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जानें तालिबान सरकार को किन देशों ने दी थी मान्‍यता, अब कौन दे सकता आतंक का साथ

August 17, 2021

नई दिल्‍ली। ये दिलचस्प सवाल हो सकता है कि अब तालिबान(Taliban) के अफगानिस्तान (Afghanistan) की सत्ता में कमोवेश आने के बाद कौन से देश उसको मान्यता दे सकते हैं. जब 20 साल पहले तालिबान वहां राज कर रहा था तब किन देशों ने उसको मान्यता(recognition) दी थी. ये भी एक गौरतलब सवाल है कि आखिर किसी देश को दूसरे देश कब और कैसे मान्यता देते हैं. सबसे पहले ये देखते हैं कि 20 साल पहले कैसे तालिबान सत्ता में आया और तब वो किन देशों के करीब था. कौन से देशों ने तब उसको मान्यता दी थी. 1996 में पहली बार तालिबान(Taliban) ने अफगानिस्तान(Afghanistan) में अपनी सरकार बनाई थी. इस सरकार के बनते ही 03 देशों ने तुरंत उसे मान्यता दे दी थी. हालांकि दुनिया के अन्य देशों ने उसके साथ कोई रिश्ते नहीं बनाए थे.


ये तीनों देश इस्लामिक देश थे. इन देशों के नाम हैं – पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात. पाकिस्तान तालिबान को 1994 में स्थापना के बाद से मदद देता रहा था. कहा जा सकता है कि तब पाकिस्तान ने बड़े पैमाने पर तालिबानियों को आर्थिक और हथियारों की मदद दी थी ताकि वो अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज हो पाएं. 1996 में जैसे ही तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमाया, पाकिस्तान ने तुरंत उसे मान्यता दे दी. पाकिस्तान ने वहां सबसे पहले अपना दूतावास भी खोला. हालांकि पाकिस्तान 2001 में अफगानिस्तान से राजनयिक संबंध तोड़ते हुए मान्यता खत्म की जबकि अमेरिका की वर्ल्ड ट्रेड टॉवर पर हमले के बाद पूरी दुनिया अफगानिस्तान के आतंक राज के खिलाफ हो गई. तब पाकिस्तान को उसके साथ मान्यता खत्म करने की घोषणा करनी पड़ी. संयुक्त अरब अमीरात ने भी 1996 में तालिबान के सत्ता संभालने के बाद उन्हें मान्यता दी. उन्होंने वर्ष 2001 में सबसे पहले उसकी मान्यता खत्म करने की घोषणा की.

सऊदी अरब ने इसलिए तोड़े थे संबंध
सऊदी अरब ने भी 1996 में तालिबान राज को मान्यता दी. लेकिन 02 साल बाद ही दोनों देशों के संबंध बिगड़ने लगे. ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान में रह रहा था लेकिन वो सऊदी अरब में वांछित था. अमेरिका भी लगातार सऊदी अरब पर दबाव डाल रहा था कि वो लादेन को अफगानिस्तान से मांगे. जब सऊदी अरब के बार बार कहने के बाद भी मुल्ला उमर की अगुवाई वाली अफगानिस्तान सरकार ने ओसामा बिन लादेन को सऊदी अरब को नहीं सौंपा. ऐसा करने से इनकार कर दिया तो 2008 में सऊदी ने अपने रिश्ते उससे तोड़ लिए.

और किसी देश ने नहीं दी थी मान्यता
इसके अलावा दुनिया के किसी भी देश ने तब तालिबान राज को मान्यता नहीं दी थी. अबकी बार जबकि 20 साल बाद तालिबान फिर अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो चुके हैं, तब कौन से देश उसको मान्यता देंगे. इसे लेकर अटकलें चल रही हैं.

अब कौन से देश दे सकते हैं मान्यता
माना जा रहा है कि अबकी बार पाकिस्तान, चीन और ईरान उसको मान्यता दे सकते हैं. रूस भी देरसबेर ये काम कर सकता है लेकिन अभी किसी भी देश ने ऐसा किया नहीं है बल्कि वो समय का इंतजार कर रहे हैं और देख रहे हैं कि वो सत्ता किस तरह से तालिबान के पास पूरी तरह हस्तांतरित होती है. ऐसा लग रहा है कि चीन भी अब तालिबान के नए राज को मान्यता दे सकता है. उसने अफगानिस्तान में सत्ता के बदलाव पर सधी प्रतिक्रिया दी है.
वैसे पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार इस मामले को लेकर एक मीटिंग कर रही है. चीन ने ये घोषणा कर दी है कि उसको तालिबान सरकार के साथ दोस्ती से कोई एतराज नहीं है. ईरान पहले ही तालिबान से संबंधों को बेहतर करने के लिए अपने लोगों के साथ तालिबान की मुलाकात करता रहा है. रूस ने कहा कि वो तालिबान को मान्यता नहीं दिखाएगा लेकिन उसके प्रति अपने नजरिए को सकारात्मक रखेगा. लिहाजा ये नजर आ रहा है कि चीन, पाकिस्तान और ईरान मिलकर जल्द ही तालिबान राज को मान्यता दे सकते हैं.ये तीन ही देश इस समय अमेरिका के खिलाफ भी खड़े हैं.
इसमें चौथा देश तुर्की भी शामिल है, जिसने इन दिनों काबुल हवाईअड्डे का संचालन संभाला हुआ है लेकिन उसने मान्यता को लेकर अभी मंशा जाहिर नहीं की है. अब ये जानते हैं कि अगर कोई देश दूसरे देश को मान्यता देता है तो उसका मतलब क्या होता है और उसका क्या असर होता है.

क्या है राजनीतिक मान्यता
राजनयिक मान्यता एक राजनीतिक क्रिया है, जिसके द्वारा एक देश दूसरे देश को मान्यता देता है. इसके बाद दोनों देशों की सरकारों के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हो जाते हैं. वो तमाम प्लेटफार्म पर एक दूसरे से सहयोग करते हैं. आपस में एक दूसरे के साथ रिश्ते कायम करने के लिए दूसरे देश में अपने दूतावास खोलते हैं. इसका मतलब ये भी हुआ कि एक देश दूसरे देश की राजनीतिक सत्ता और अस्तित्व को स्वीकार करता है
जब एक देश को दुनिया में कई देशों के जरिए मान्यता हासिल हो जाती है तो वो अंतरराष्ट्रीय संगठनों, संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन सकता है लेकिन अब भी दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं, जिन्हें मान्यता हासिल नहीं है या फिर उनकी मान्यता का विरोध होता रहा है.

क्या मान्यता भी कई तरह की होती है
हां, मान्यता भी दो तरह की हो सकती है- एक स्पष्ट और दूसरी सांकेतिक. स्पष्ट मान्यता में दोनों देशों के बीच कागजी तौर पर संधियां और करार होते हैं लेकिन सांकेतिक मान्यता में उन देशों के बीच रिश्ते बेहतर हो सकते हैं. कुछ हद तक सहयोग भी हो सकता है लेकिन पूरी तरह से राजनयिक संबंध नहीं होते. ये भी देखने वाली बात होती है कि जो देश दूसरे देश को मान्यता दे रहा है उसकी खुद की अंतरराष्ट्रीय स्थिति कैसी है.

मान्यता के नतीजे
किसी नए राज्य अथवा नई सरकार को मान्यता मिलने के बाद ये नतीजे सामने आ सकते हैं
– मान्यता प्राप्त करने के बाद उक्त देश या सरकार को मान्यता देने वाले देशों के साथ संधि और कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त होता है
– मान्यताप्राप्त देश को अधिकार मिल जाता है कि वो मान्यता देनेवाले देशों के न्यायालयों में मुकदमा दायर कर सके

क्या मान्यता वापस ली जा सकती है
हां विशेष हालात में ऐसा हो सकता है. जैसा तालिबान सरकार के साथ हुआ. वर्ष 2001 में उसके साथ पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात ने मान्यता तोड़ दी. सऊदी अरब ने पहले ही राजनयिक संबंध तोड़ दिये थे. यदि कोई देश अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है या उसकी सरकार प्रभावशून्य हो जाती है या युद्ध में वो हार जाता है तो भी उसकी मान्यता वापस ली जा सकती है. दुनिया में अब भी बहुत से देश हैं, जिनकी मान्यता को लेकर विवाद हैं या उनकी सीमित मान्यता है. इसका असर उनकी संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता पर पड़ता है और उन्हें सदस्यता मिलनी मुश्किल हो जाती है.

 

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