– ऋतुपर्ण दवे
क्या किसान आन्दोलन ने पूरे देश में नई अलख जगा दी है? क्या किसानों की माँग वाकई न्यायोचित नहीं है? यदि ये कानून किसानों के हित में है तो कोई बड़ा किसान संगठन इसके पक्ष में क्यों नहीं है? क्या जिन तीन कृषि कानूनों का पुरजोर विरोध हो रहा है, उसे बनाते समय केन्द्र सरकार ने जिनके लिए यह बनाया जा रहा है, उनकी राय जरूरी समझी? अब वजह कुछ भी हो लेकिन स्थिति कुल मिलाकर यूँ होती जा रही है कि पाँच दौर की वार्ता विफल होने के बाद आगे क्या होगा किसी को पता नहीं है। न किसान झुकने को तैयार हैं और न सरकार।
किसान आन्दोलन के 12 दिन हो चुके हैं। शनिवार को पाँचवें दौर की वार्ता विफल होने के बाद दोनों पक्षों में अपनी-अपनी रणनीतियों को लेकर मंथन हो रहा होगा। निश्चित रूप से किसानों के आन्दोलन की सफलता का बड़ा राज यह भी है कि राजनैतिक दलों के लोगों के जुड़ने के बाद भी इसमें किसी का ठप्पा नहीं लगा है। अवार्ड लौटाने का सिलसिला और इसमें नामचीन लोगों के आगे रहने के साथ किसानों के जुड़ने से आन्दोलन वृहद होता जा रहा है। सरकार के इस आग्रह को कि सर्दी का मौसम है, कोविड का संकट है इसलिए बुजुर्ग, बच्चों, महिलाओं को घर भेज दें, बुजुर्ग और महिलाएँ किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं हैं। कुल मिलाकर मामला पेचीदा होता जा रहा है।
हाँ एक बात जरूर दिख रही है कि आन्दोलन को लेकर कुछ जिम्मेदार व कुछ स्वयंभू लोगों के बयानों ने एक नई हवा देने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन सुकून की बात यह है कि इसे आन्दोलनकारियों ने तवज्जो नहीं दी वरना रास्ता भटक सकता था। एक ओर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया यानी ईजीआई किसानों के प्रदर्शन के समाचार कवरेज को लेकर चिंतित है कि मीडिया का कुछ हिस्सा बगैर किसी साक्ष्य के आंदोलन को अवैध करार दे रहा है। एडीटर्स गिल्ड इसे जिम्मेदार, नैतिकतापूर्ण और भरोसेमन्द पत्रकारिता के सिद्धांतों के खिलाफ मानते हुए किसान आंदोलन का निष्पक्ष और संतुलित कवरेज करने की सलाह दी है।
किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपीको कानूनी अधिकार बनाए जिससे कोई भी ट्रेडर या खरीददार किसानों से उनके उत्पाद को कम दाम पर न खरीद पाए। फिर भी कोई ऐसा करता है तो उसपर कार्रवाई हो। सरकार की सफाई है कि कानून किसानों को एक खुला बाजार देता है जहाँ वे अपनी मनमर्जी के कृषि उत्पाद बेच सकें। सरकार का यह भी कहना है कि एमएसपी खत्म नहीं की जा रही है और मंडियां भी पहले की तरह काम करती रहेंगी। लेकिन किसान इसपर आशंकित हैं।
किसानों का दूसरा विरोध कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए अनुबंध से खेती को बढ़ावा देने के लिए बने राष्ट्रीय फ्रेमवर्क पर है। इसमें किसान और खरीददार के बीच समझौता होगा और किसान ट्रेडर या खरीददार को एक पूर्व निर्धारित कीमत उपज बेचेगा। जिसमें कृषि उत्पाद की गुणवत्ता, ग्रेड और स्टैंडर्ड भी पहले ही तय होगा। इसमें नियमों के तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां, किसानों का अनाज एक संविदा के तहत, तय मूल्य पर खरीदने का वादा करेंगी। तीसरा कानून है आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम यानी ईसीए। इसमें अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल यहाँ तक कि प्याज और आलू को भी आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है। किसान इसे दोधारी तलवार मान रहे हैं क्योंकि निजी खरीददारों द्वारा इन वस्तुओं के भंडारण या जमा करने पर सरकार का नियंत्रण नहीं होगा। इसमें बड़े पैमाने पर थोक खरीद या जमाखोरी के कारण जरूरी जिंसों के दाम बढ़ेंगे।
ऐसे में किसानों की आशंकाएँ बेवजह नहीं लगती। यह ध्यान रखना होगा कि भारत जय जवान-जय किसान का समर्थक था है और रहेगा। ऐसे में सरकार बनाम किसानों की रस्साकशी, सुलह में बदलनी चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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