नई दिल्ली (New Delhi) । दिल्ली सरकार (Delhi Government) ने केंद्र सरकार (Central government) के अध्यादेश (Ordinance) पर तत्काल रोक की मांग को लेकर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का दरवाजा खटखटाया है. केजरीवाल सरकार (Kejriwal government) नेअध्यादेश को असंवैधानिक बताया है और इसके खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए दिल्ली में ट्रांसफर-पोस्टिंग पर केंद्र सरकार के नियंत्रण को चुनौती दी है. केंद्र सरकार ये अध्यादेश, 19 मई को लेकर आई थी.
केंद्र ने किया संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघनः दिल्ली सरकार
दिल्ली सरकार का कहना है कि यह अध्यादेश लाकर केंद्र ने संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और निर्वाचित सरकार के अधिकारों को हड़पने की कोशिश की है. अध्यादेश, संघवाद के बुनियादी सिद्धांतों को कमजोर करता है. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 11 मई को दिल्ली सरकार को ट्रांसफर-पोस्टिंग के अधिकार सौंपे थे, जिसके बाद केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर कोर्ट का फैसला पलट दिया है.’
‘निर्वाचित सरकार के पास होना चाहिए सर्विसेज का कंट्रोल’
दिल्ली सरकार के अधिकारिक बयान के मुताबिक, दिल्ली सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 की संवैधानिकता को चुनौती दी है. अध्यादेश के जरिए दिल्ली सरकार में सेवारत सिविल सर्वेंट्स की ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार से छीनकर अनिर्वाचित उपराज्यपाल को दे दिया है. जबकि संविधान के अनुसार सर्विसेज को लेकर पावर और कंट्रोल निर्वाचित सरकार का होना चाहिए.
दिल्ली सरकार ने कोर्ट में क्या रखी हैं मांगे
दिल्ली सरकार ने एक अंतरिम आवेदन दायर कर अध्यादेश पर तत्काल रोक की मांग की है. हालांकि, दिल्ली सरकार ने अपनी मुख्य याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 को असंवैधानिक घोषित करने और रद्द करने के लिए एक निर्देश, ऑर्डर या उचित रिट पारित करें. इसके तहत सरकार ने अध्यादेश की अलग-अलग धाराओं को जिक्र कर उन्हें रद्द करने की मांग की है.
सरकार ने अपनी याचिका में विस्तार से उन सभी धाराओं का जिक्र किया है, जिन्हें रद्द करने के लिए कोर्ट में याचिका दायर की गई है.
सरकार ने की ये मांगे-
– राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 द्वारा पेश किए गए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 की धारा 3ए को असंवैधानिक घोषित करने और रद्द करने के लिए एक निर्देश, ऑर्डर या उचित रिट पारित करें.
– राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 द्वारा संशोधित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 की धारा 41 को असंवैधानिक घोषित करने और रद्द करने के लिए एक निर्देश, ऑर्डर या उचित रिट पारित किया जाए.
– राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 द्वारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम 1991 की धारा 45 बी, 45 सी, 45 डी, 45 ई, 45 एफ, 45 जी, 45 एच, 45 आई, 45 जे और 45 को रद्द करने की घोषणा और रद्द करने के लिए एक निर्देश, ऑर्डर या उचित रिट पारित करें.
– याचिका में सरकार ने कहा है कि अनुच्छेद 239एए दिल्ली विधानसभा और संसद को सर्विसेज पर विधायी अधिकार प्रदान करता है. हालांकि यह संविधान का एक मौलिक सिद्धांत है कि सक्षमता का प्रश्न ऐसी क्षमता के प्रयोग में पारित कानून की वैधता से अलग है.
सुप्रीम कोर्ट की दो संविधान पीठों ने इसकी व्याख्या की थी. खासकर विवादित अध्यादेश असंवैधानिक है, जो अनुच्छेद 239एए में दिल्ली के लिए निहित संघीय, लोकतांत्रिक व्यवस्था का उल्लंघन करता है और स्पष्ट रूप से मनमाना है. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 11 मई 2023 के फैसले को आधार में बदलाव किए बिना विधायी रूप से समीक्षा की थी, जिसके अनुसार दिल्ली सरकार के अधिकारियों की जवाबदेही और सिविल सर्विस पर दिल्ली की चुनी हुई सरकार का कंट्रोल है. संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत अध्यादेश बनाने की शक्तियों का अनुचित और असंवैधानिक दुरुपयोग किया गया है.
दिल्ली सरकार ने अध्यादेश की कुछ धाराओं की संवैधानिकता को इस तरह चुनौती दी है –
1- GNCTD अधिनियम की धारा 3ए यह निर्धारित करती है कि राज्य सूची की प्रविष्टि 41 अब दिल्ली की विधानसभा के लिए उपलब्ध नहीं होगी.
2- GNCTD अधिनियम की धारा 45ई से 45एच के अनुसार दिल्ली सरकार में काम करने वाले अधिकारियों पर एलजी का कंट्रोल है और अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग और अनुशासन सहित मामलों पर एलजी को सिफारिशें करने के लिए राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा ट्रिब्यूनल का गठन करती है.
3- GNCTD अधिनियम की धारा 41 में GNCTD अधिनियम के भाग 4ए से संबंधित मामलों में एलजी के स्वविवेक का प्रावधान है.
4- GNCTD अधिनियम की धारा 45डी निर्धारित करती है कि किसी अन्य कानून के बावजूद, दिल्ली सरकार में कोई भी प्राधिकरण, बोर्ड, आयोग या कोई वैधानिक निकाय का गठन और उसके सभी सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी.
5- GNCTD अधिनियम की धारा 45 के(3) और 45के(5) के तहत ब्यूरोक्रेट्स और एलजी को मंत्रिपरिषद और प्रभारी मंत्रियों द्वारा लिए गए निर्णयों को रद्द करने की अनुमति है.
6- GNCTD अधिनियम की धारा 45के (1) के तहत ब्यूरोक्रेट्स को कैबिनेट नोट्स को अंतिम रूप देने का अधिकार है और उन्हें मंत्रिपरिषद द्वारा विचार किए जाने से पहले किसी भी प्रस्ताव रोकने की अनुमति है.
दिल्ली सरकार ने याचिका में अध्यादेश की वैधता पर उठाया कड़ा सवाल
दिल्ली सरकार ने अपनी याचिका में अध्यादेश की वैधता पर कड़ा सवाल उठाया है. दिल्ली सरकार ने कहा कि यह अध्यादेश देश के संघीय ढांचे, वेस्टमिंस्टर शैली के लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को नष्ट करता है, जो कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के अनुच्छेद 239एए में संवैधानिक रूप को निहित करता है.
अध्यादेश से कैसे कम हो गई सीएम की शक्ति, यहां समझिए
दिल्ली सरकार ने कहा कि यह अध्यादेश पूरी तरह से निर्वाचित सरकार के सिविल सर्विसेज के ऊपर अधिकार को खत्म करता है. इसी के साथ यह अध्यादेश संस्थाओं का निर्वाचन करने की शक्ति केंद्र को देकर निर्वाचित सरकार को और भी कमजोर बना रहा है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सिविल सेवा प्राधिकरण (एनसीसीएसए) को इस तरह से बनाया गया है कि इसके अध्यक्ष तो दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री रहेंगे, लेकिन वो हमेशा अल्पमत में रहेंगे. समिति में बाकी दो अधिकारी कभी भी उनके खिलाफ वोट डाल सकते हैं, सीएम की अनुपस्थिति में बैठक बुला सकते हैं और सिफारिशें कर सकते हैं. यहां तक कि एकतरफा सिफारिशें करने का काम किसी अन्य संस्था को सौंप सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खिलाफत है अध्यादेशः दिल्ली सरकार
दिल्ली सरकार ने अपनी याचिका में यह भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से माना है कि संविधान का अनुच्छेद 239एए न केवल भारतीय संघ और GNCTD के बीच शक्तियों का वितरण निर्धारित करता है, बल्कि सर्विसेज के मामले में दोनों की विधायी शक्तियों के प्रयोग और सीमाओं को भी निर्धारित करता है. भले ही संसद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के संबंध में सभी विषयों पर कानून बनाने में सक्षम है, लेकिन उसके पास इसकी शक्ति पूर्ण नहीं है. बल्कि यह अनुच्छेद 239एए के सिद्धांतों द्वारा लगाई गई वास्तविक सीमा से बाध्य है, जिसकी सर्वोच्च न्यायालय की दो संविधान पीठों द्वारा व्याख्या की गई है. यह अध्यादेश संविधान में संशोधन किए बिना, केवल GNCTD अधिनियम में संशोधन करके इन दोनों पहलुओं में से प्रत्येक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का प्रयास करता है.
‘अध्यादेश पूरी तरह से मनमाना’
दिल्ली सरकार ने आगे कहा है कि नौकरशाहों और एलजी को निर्वाचित सरकार के निर्णयों की वैधता पर निर्णय लेने और उस आधार पर कार्रवाई करने की अनुमति देकर अध्यादेश अनुच्छेद 239एए के तहत अधिकारों और शासन की शक्तियों के विभाजन को पूरी तरह से ध्वस्त कर देता है. चूकि जहां जरूरत होती है, वहां हर विभाग व मंत्रालय के कानूनी विशेषज्ञों द्वारा निर्णयों की जांच की जाती है. इसलिए इस विवादित अध्यादेश में यह प्रावधान लाया गया है कि केवल एलजी और नौकरशाहों के माध्यम से ही केंद्र के कहने पर शासन को रोकने का काम किया जा सके. यह पूरी तरह से मनमाना है.
स्वतंत्र निकायों और आयोगों पर नियंत्रण की धारा 45डी की वैधता को चुनौती देते हुए दिल्ली सरकार ने कहा कि यहां स्पष्ट रूप से मनमाने ढंग से काम किया गया है. GNCTD अधिनियम की धारा 45डी में कहा गया है कि एनसीटीडी में सभी वैधानिक निकाय, आयोग, बोर्ड और प्राधिकरण का गठन राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा और उनके सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा. ऐसा न करना पड़े, इसके लिए इस अध्यादेश को इस तरह से तैयार किया गया है कि केंद्र सरकार को दिल्ली में शासन संभालने की अनुमति दी जा सके.
दिल्ली की 50 से अधिक संस्थाएं होंगी प्रभावित
दिल्ली के लोगों के लिए काम करने वाली 50 से अधिक संस्थाएं इस एक व्यापक प्रावधान से प्रभावित होंगी. इनका नियंत्रण दिल्ली के लोगों से लेकर केंद्र के पास चला जाएगा. यह संस्थाएं दिल्ली के यातायात-परिवहन, जल और बिजली आपूर्ती जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम करती हैं. जिसमें दिल्ली ट्रांस्पोर्ट कॉर्पोरेशन, दिल्ली जल बोर्ड, दिल्ली स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन, दिल्ली वुमन कमीशन, दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेट्री बोर्ड सहित कई महत्वपूर्ण संस्थाएं शामिल हैं.
इन सभी संस्थाओं को विशेष रूप से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के मतदाताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए गठित किया गया है औ यह दिल्ली की जनता की रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करती हैं. इस संस्थाएं राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली द्वारा वित्तपोषित हैं. सिविल सर्विसेज के बाद यह संस्थाएं दिल्ली में प्रशासनिक कार्य करती हैं और प्रशासन का केंद्र हैं. इस प्रावधान के तहत सबसे बड़ी मनमानी यह की गई है कि इन सभी संस्थाओं के लिए बजट दिल्ली विधानसभा और दिल्ली सरकार से ही पारित किया जाएगा, मगर इनमें नियुक्तियां केंद्रीय राजनीतिक अधिकारियों द्वारा की जाएंगी.
दिल्ली सरकार ने याचिका में कहा है कि वर्तमान में अध्यादेश की घोषणा लोकतांत्रिक और न्यायिक विचार-विमर्श को दरकिनार करने का एक स्पष्ट प्रयास है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की 2023 संविधान पीठ के फैसले के महज 6 दिन बाद ही 17 मई 2023 को अध्यादेश को मंजूरी देने वाला कैबिनेट प्रस्ताव पारित किया गया था. जबकि अध्यादेश को 19 मई को ही कानूनी रूप दिया गया और उसी शाम जैसे ही सुप्रीम कोर्ट की छुट्टियां शुरू हुई इस अध्यादेश को जनता के लिए लागू कर दिया गया.
याचिका में कहा गया है कि अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की जल्दबादी और इसकी घोषणा का समय इनके इदारों को साफ दर्शाता है कि वो किसी भी ऐसे लोकतांत्रिक और न्यायिक विचार-विमर्श से बचना चाहते हैं जो दिल्ली के लोगों के हितों की रक्षा कर सके.
‘स्थापित कानून का सीधा उल्लंघन है अध्यादेश’
विवादित अध्यादेश सिविल अपील संख्या 2357/2017 में न्यायालय की संविधान पीठ के फैसले को अस्वीकार्य रूप से खारिज कर देता है. सरकार ने याचिका में यह भी कहा है कि यह पहले से स्थापित कानून है कि विधान मंडल के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खारिज करना अस्वीकार्य है. इसे केवल न्यायिक निर्णय के आधार पर हटाने या बदलने की अनुमति है, ताकि निर्णय उस परिवर्तित पृष्ठभूमि में प्रस्तुत न किया गया हो. यह अध्यादेश स्थापित कानून की सीधा उल्लंघन है और इसी के साथ यह संविधान के अनुच्छेद 239एए में किसी भी तरह का बदलाव करने का प्रयास किए बिना सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ के फैसले को पटलने का प्रयास है.
सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था ये फैसला
दिल्ली सरकार और एलजी के बीच बीते कई सालों से दिल्ली का असली बॉस कौन की लड़ाई जारी थी. इस मामले में 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार के पक्ष में अहम फैसला सुनाया था. CJI चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने आगे कहा था,’एलजी के पास दिल्ली से जुड़े सभी मुद्दों पर व्यापक प्रशासनिक अधिकार नहीं हो सकते. एलजी की शक्तियां उन्हें दिल्ली विधानसभा और निर्वाचित सरकार की विधायी शक्तियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं देती. अधिकारियों की तैनाती और तबादले का अधिकार दिल्ली सरकार के पास होगा.कोर्ट ने कहा था कि, चुनी हुई सरकार के पास प्रशासनिक सेवा का अधिकार होना चाहिए. ‘उपराज्यपाल को सरकार की सलाह माननी होगी. पुलिस, पब्लिक आर्डर और लैंड का अधिकार केंद्र के पास रहेगा.’
सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के बाद केंद्र लेकर आया था अध्यादेश
सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के बाद केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 में संशोधन करते हुए अध्यादेश लाया था. अध्यादेश के तहत राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण (NCCSA) का गठन किया जाएगा जिसके पास ट्रांसफर-पोस्टिंग और विजिलेंस का अधिकार होगा. दिल्ली के मुख्यमंत्री इस प्राधिकरण के मुखिया होंगे जिसमें दिल्ली के प्रधान गृह सचिव पदेन सचिव होंगे और दिल्ली के मुख्य सचिव, प्रधान गृह सचिव प्राधिकरण के सचिव होंगे. ट्रांसफर-पोस्टिंग का फैसला सीएम का नहीं होगा बल्कि बहुमत के आधार पर प्राधिकरण फैसला लेगा. सीएम की सलाह के बाद उपराज्यपाल (LG) का फैसला अंतिम माना जाएगा और वो चाहें तो फाइल को वापस लौटा सकते हैं या उसे मंजूरी दे सकते हैं.
ये हैं अध्यादेश की खास बातें
– केंद्र सरकार ने दिल्ली की ‘विशेष स्थिति’का हवाला देते हुए अध्यादेश का बचाव किया है और कहा कि इस पर (दिल्ली) दोहरा नियंत्रण (केंद्र और राज्य) है.
अध्यादेश में कहा गया है, ‘राष्ट्रीय राजधानी के संबंध में लिया गया कोई भी निर्णय न केवल दिल्ली के लोगों बल्कि पूरे देश को प्रभावित करता है.’
– अध्यादेश आगे कहा गया है कि स्थानीय और राष्ट्रीय, दोनों लोकतांत्रिक हितों के संतुलन के लिए दिल्ली के प्रशासन की योजना को संसदीय कानून (अदालत के फैसले के खिलाफ) के माध्यम से तैयार किया जाना चाहिए.
– अध्यादेश में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी संसदीय कानून के अभाव में निर्णय पारित किया और इसलिए यह अध्यादेश जारी किया जा रहा है.
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