– अरविंद कुमार शर्मा
पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर में दो खास बातें हुईं, जिनकी ओर कम ध्यान गया है। पहली बात तो यह हुई कि अभी 22 अगस्त को ही भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर इस राज्य के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अनुच्छेद-370 को फिर से बहाल करने की मांग की है। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी), पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), पीपल्स कॉन्फ्रेंस, सीपीआईएम, कांग्रेस और आवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जम्मू-कश्मीर की पुरानी स्थिति बहाली के लिए संघर्ष का संकल्प जताया है। इसके विपरीत दूसरी बात में कुछ दिन पहले सिर्फ एक व्यक्ति का फैसला कुछ और ही बयां करता है। वह व्यक्ति पूर्व प्रशासनिक अधिकारी शाह फैजल हैं। वे अपनी नौकरी छोड़कर करीब 17 महीने राज्य की राजनीति में रहे और अब उन्होंने इससे दूर रहने का फैसला कर लिया है। शाह फैजल को लगा कि लुभावने झूठे वादे कश्मीरियों को गुमराह करते हैं। इन दोनों घटनाओं के आलोक में राज्य के ताजा हालात को परखा जाना चाहिए।
जीसी मुर्मू की जगह मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश का उपराज्यपाल बनाने के साथ राज्य में राजनीतिक माहौल बनाने की कोशिशों पर चर्चा हो रही है। ऐसे में मुमकिन है कि राजनीतिक दल चुनाव में जाने अथवा बाहर रहने के सवाल पर अपने लिए मुद्दे ढूंढ़ रहे हों। कांग्रेस सहित राज्य के इन दलों की ताजा मोर्चेबंदी इसी का नतीजा जान पड़ती है। अलग बात है कि यह मोर्चेबंदी कितने समय तक कायम रहेगी, इसपर अभी से संदेह किया जाने लगा है। खबर आयी थी कि खुद फारुख अब्दुल्ला अपनी कथित गिरफ्तारी से बाहर आने को बेचैन थे। बाहर निकलकर उन्होंने दावा भी किया कि उन्हें घर में ही नजरबंद रखा गया था। दूसरी पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती जरूर अभी कैद में हैं और पब्लिक सेफ़्टी एक्ट (पीएसए) के तहत उनकी गिरफ्तारी और तीन महीने के लिए बढ़ा दी गई है।
22 अगस्त को राज्य में 370 की बहाली की मांग करने वालों में महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी भी शामिल है। निश्चित ही पिछले साल 5 अगस्त को राज्य को अनुच्छेद-370 के तहत विशेष दर्जा हटाने और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने पर राज्य के इन दलों की बदहाली देखते ही बनती है। ये दल उम्मीद कर रहे थे कि इस सवाल पर राज्य की जनता उठ खड़ी होगी। इसके विपरीत केंद्र की प्रशासनिक पहल और सूबे के युवाओं के अपने पुराने नेताओं के प्रति अनमनेपन ने विपक्षी दलों के मंसूबों पर पानी फेर दिया। राज्य के प्रमुख नेताओं पर पाबंदी लगी, तो केंद्र ने राज्य के विकास और रोजगार सृजन की घोषणाएं की।
पहली बार घाटी के युवाओं को लगा कि राज्य की कानूनी स्थिति से अधिक महत्वपूर्व जमीनी सूरत-ए-हाल है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी शाह फैजल का फैसला भी इन युवकों के रुख को देखते हुए ही बदला है। और तो और, सईद अलीशाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेता ने तो राजनीति से संन्यास लेने का मन बना लिया है। उनका फैसला भी सहज नहीं लगता। अपनी उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें भी लगने लगा है कि कश्मीर को पाकिस्तान के इशारे पर चलाने का मंसूबा आम लोगों, खासकर युवकों के बिना मुमकिन नहीं है।
गिलानी जैसे अलगाववादी नेता की निराशा बहुत कुछ कहती है, तो राज्य के दलों में बिखराव भी उन्हें लाचार करता हुआ लगता है। सच यह है कि इस बीच फारुख-उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी, दोनों में बिखराव भी शुरू हो गए हैं। मुमकिन है कि राज्य में चुनाव को लेकर एक नये मोर्चे का गठन भी हो जाय। कांग्रेस भी चुनाव की घोषणा तक राज्य के प्रमुख दलों के साथ रह पायेगी, अभी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में फारुख अब्दुल्ला के निवास (गुपकर रोड) पर पिछले साल जिस गुपकर घोषणापत्र के साथ एकता दिखी थी, साल भर बाद उसे बनाये रखने की कोशिश भी बेमानी लग रही है। बेमानी इसलिए कि इस घोषणापत्र को समर्थन मिल पायेगा, इसमें संदेह है। यह संदेह निश्चित ही राज्य के नए रूप के कारण है, जहां विकास की नई किरणें दिखने लगी हैं और इन किरणों के साथ युवाओं की उम्मीद बंधी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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