नई दिल्ली । कर्नाटक सरकार(Karnataka Government) द्वारा जाति आधारित आरक्षण(Caste based reservation) को 50% की सीमा से अधिक करने की संभावित कोशिश को लेकर एक बार फिर कानूनी बहस छिड़ गई है। सुप्रीम कोर्ट के 1992 के ऐतिहासिक इंद्रा साहनी मामले में तय की गई 50% आरक्षण की सीमा को तोड़ने का प्रयास कई राज्यों में पहले भी विफल हो चुका है, और अब कर्नाटक का यह कदम भी कठिन न्यायिक जांच का सामना करने के लिए तैयार है।
क्या है मामला?
कर्नाटक सरकार ने हाल ही में अपनी जातिगत जनगणना के आधार पर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण बढ़ाने की दिशा में कदम उठाने की योजना बनाई है। सूत्रों के अनुसार, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण को वर्तमान 32% से बढ़ाकर 51% करने की सिफारिश की गई है। यदि यह लागू होता है, तो राज्य में कुल आरक्षण 85% तक पहुंच सकता है, जो सुप्रीम कोर्ट की 50% की सीमा से कहीं अधिक होगा।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पहले स्पष्ट किया है कि 50% की सीमा को केवल “असाधारण परिस्थितियों” में ही लांघा जा सकता है, जो देश की विविधता और सामाजिक जरूरतों को ध्यान में रखकर सिद्ध करना होगा। कर्नाटक सरकार का यह प्रस्ताव अब इसी आधार पर कानूनी कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती का सामना करेगा।
EWS की इजाजत दे चुका है कोर्ट
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने जब आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% आरक्षण को मंजूरी दी थी, तो बहुमत से दिए गए फैसले में यह जरूर कहा था कि “50% आरक्षण की सीमा बिल्कुल कठोर और अटल नहीं है”, लेकिन यह मुद्दा अभी भी पूरी तरह से सुलझा हुआ नहीं माना जा सकता। जस्टिस दिनेश माहेश्वरी द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले में कहा गया था, “नागरिकों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को मौजूदा आरक्षण के अलावा 10% आरक्षण देने से संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं होता, क्योंकि 50% की सीमा Articles 15(4), 15(5), और 16(4) के तहत दिए गए आरक्षण पर ही लागू होती है और वह भी कठोर नियम नहीं है।”
हालांकि, अल्पमत में रहे जस्टिस रविंद्र भट ने इस मुद्दे पर असहमति जताई और कहा कि वह 50% की सीमा के उल्लंघन के मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, क्योंकि यह मामला पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। उन्होंने तमिलनाडु के पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1993 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका का हवाला देते हुए कहा था कि “इस पर टिप्पणी करना उस मामले की सुनवाई को प्रभावित कर सकता है।”
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस भट ने यह भी चेतावनी दी कि यदि आरक्षण की सीमा बार-बार बढ़ाई जाती रही, तो समानता का अधिकार केवल ‘आरक्षण का अधिकार’ बनकर रह जाएगा। उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर के उस दृष्टिकोण की याद दिलाई, जिसमें आरक्षण को एक अस्थायी और विशेष उपाय के रूप में देखा गया था। 1992 के प्रसिद्ध इंद्रा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि आरक्षण की सीमा 50% होनी चाहिए और इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही बढ़ाया जा सकता है।
राज्यों की आरक्षण बढ़ाने की कोशिशें
कर्नाटक से पहले कई अन्य राज्य, जैसे बिहार, महाराष्ट्र, और तमिलनाडु, ने भी 50% की सीमा को तोड़ने की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर मामलों में उनकी योजनाएं अदालतों में खारिज हो गईं। बिहार सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण के आधार पर आरक्षित वर्गों के लिए आरक्षण 50% से बढ़ाकर 65% कर दिया था। हालांकि, पटना हाई कोर्ट ने पिछले साल इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लेकिन कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है।
इसी तरह छत्तीसगढ़ सरकार ने अनुसूचित जातियों का आरक्षण 16% से घटाकर 12% कर दिया और अनुसूचित जनजातियों का आरक्षण 20% से बढ़ाकर 32% कर दिया। ओबीसी का आरक्षण 14% ही रखा गया, जिससे कुल आरक्षण 58% हो गया। लेकिन छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने 2022 में इसे आरक्षण की सीमा के उल्लंघन के आधार पर रद्द कर दिया।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यदि कर्नाटक सरकार जाति जनगणना के आधार पर आरक्षण बढ़ाने का निर्णय लेती है, तो उसे संविधान की कसौटी पर खरा उतरना होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या रुख अपनाता है, विशेषकर तब जब पहले से संबंधित मामले न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
महाराष्ट्र में भी हुआ फेल प्लान
इसी तरह, महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लागू करने की कोशिश को सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि 50% की सीमा को तोड़ने के लिए कोई असाधारण परिस्थिति मौजूद नहीं थी। कर्नाटक सरकार के सामने भी यही चुनौती होगी कि वह अपने प्रस्ताव को संवैधानिक और कानूनी रूप से उचित ठहराए।
कर्नाटक का तर्क और रणनीति
कर्नाटक सरकार का कहना है कि बदलते सामाजिक परिदृश्य और पिछड़े समुदायों की बढ़ती आकांक्षाओं को देखते हुए आरक्षण की सीमा को बढ़ाना जरूरी है। सरकार ने पहले भी संकेत दिए हैं कि वह इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकती है और संविधान की नौवीं अनुसूची के तहत अपने कानून को शामिल करने की मांग कर सकती है, जो इसे न्यायिक समीक्षा से कुछ हद तक सुरक्षित रख सकता है। तमिलनाडु ने 69% आरक्षण को इसी तरह लागू किया था। हालांकि, कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि नौवीं अनुसूची का रास्ता भी आसान नहीं होगा।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
कर्नाटक में आरक्षण का मुद्दा हमेशा से राजनीतिक रूप से संवेदनशील रहा है। 2023 के विधानसभा चुनावों में भी यह एक प्रमुख मुद्दा था। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने विभिन्न समुदायों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आरक्षण को लेकर वादे किए थे। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी और एआईसीसी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने देशव्यापी जातिगत जनगणना की मांग की है, जिसे कर्नाटक में लागू करने की कोशिश अब तेज हो रही है।
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