रीवा। कहते हैं जहाँ सरस्वती होती है वहाँ लक्ष्मी का स्वतः आगमन होता है।वर्तमान में रीवा जिले मे ज्योति स्कूल इसका जीता जागता उदाहरण है।सरस्वती का तो पता नहीं किंतु लक्ष्मी जी की कृपा स्कूल संचालक व प्रबंधक पर खूब बरसती है। ये अपने विद्यालय में दो से तीन साल के ऐसे नौनिहालों का भी नामांकन करने को तैयार है जिन्होंने अपना डायपर बदलना सीख लिया हो ।बस अभिभावक की अंटी में नकद नारायण विद्यमान हो।
वर्तमान हाइटेक युग में माता पिता को बस अपनी व्यस्तता से समय निकालकर बच्चा पैदा करने की टेंशन मात्र रह गई है।बाकी उसके बाद तो बच्चों की परवरिश व पढ़ाई के लिए मानक संस्थान के रूप में प्राइवेट स्कूल तो है ही। रीवा मे ज्योति स्कूल प्ले ग्रूप से ही बच्चों की जिम्मेदारी लेने को तैयार बैठा है। आपकी जेब में मनीलाल(मुद्रा) हो तो आपके नौनिहाल प्राइवेट स्कूल की प्रॉपर्टी व रिस्पांसिबिलिटी बन सकते है। एक वो भी जमाना था जब पैदाइश के पाँच छः साल तक बचपन का मजा लुटा जाता था फिर सरस्वती पुजा के दिन पंडित जी द्वारा मंत्रोच्चार कर खल्ली (चाॅक/पेंसिल) छुआने का रस्म पुरा किया जाता था खल्ली छुआई रस्म का मतलब ही होता था अ-आ सीखने लिखने एवं पढ़ने के अवधि की शुरूआत। एक वो भी जमाना था जब आप किसी विद्यालय की नर्सरी कक्षा में एडमिशन ले लेते तो फिर आपको केवल मासिक फीस एवं परीक्षा शुल्क देकर ही उस विद्यालय की अंतिम उच्च कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने की अथॉरिटी मिल जाती थी।स्कूल बदलने की स्थिति में ही नए विधालयों में नामांकन शुल्क देय होता था। जबकि वर्तमान हाइटेक युग के इस तथा कथित प्राइवेट स्कूल में प्रतिवर्ष एडमिशन फीस प्रतिवर्ष तो नहीं भरना पड़ता , लेकिन अगर इन्हे बीच मे कोई नया प्रवेश मिलता है तो ये शुरू कर देते हैं कमीशनखोरी का नंगा नाच ताज्जुब इस बात का है की ये प्रशासन की नाक के नीचे खुलेआम डोनेशन का गंदा खेल खेलते हैं।
रीवा के बिकास पुरुष को भी कठपुतली समझता है ज्योति स्कूल का फादर
जी हाँ हम जो कह रहे हैं ये थोड़ा अटपटा जरूर है लेकिन हमने ताजा मामला देखा है जहाँ तथाकथित विकास पुरुष भी बौने साबित हुए या फिर हाथी के दाँत खाने के और वा दिखाने के और होते हैं कह पाना जरा मुश्किल है। दूसरी या तीसरी मे प्रवेश लेने पर प्रवेश शुल्क के नाम पर 2 से 5 लाख तक का डोनेशन लिया जाता है। जी हाँ ज्योति स्कूल का संचालक इस तरह का गेम प्लान करता है के सामान्य तौर पर वो दो से तीन बार संस्था मे हाजिरी लगाने के बाद ही अभिभावक से मिलता है, लेकिन इस दौरान संचालक के खबरी लाल सक्रिय हो जाते हैं और अभिभावक की पूरी माली स्थिति का जायजा लेकर संचालक को बता देते हैं l
तीसरी मुलाक़ात मे मिलता है फादर
दो से तीसरी बार ज़ब अभिभावक स्कूल का चककर काटते ही रहते हैं तब संचालक वा उसके मातहत ये समझ जाते हैं की अभिभावक मजबूर है इसे प्रवेश किसी भी क़ीमत पर लेना ही है
फिर शुरू होता है डोनेशन का नंगा नाच
फादर ज़ब ये पूरी तरह से भाँप जाता है की अभिभावक अब उसके कब्जे मे आ चुका है l तब अभिभावक से मिलकर फादर वा उसका खास कर्मचारी डोनेशन के बदले एडमिशन की बात करता है।
अभिभावक की भी बना रखा है दी श्रेणीयाँ
जी हाँ ज्योति सीनियर सेकंडरी स्कूल का संचालक अपने खास राजदार वा शागिर्द से अभिभावक की हैसियत की जानकारी लेकर A वा B दो श्रेणीयों के अभिभावक रखता है। A श्रेणी के अभिभावक का बच्चा इंट्रेन्स मे फ़ैल कर दिया जाता है, तो वहीं B श्रेणी के अभिभावक का बच्चा इंट्रेन्स मे पास होकर अगली प्रक्रिया से गुजार दिया जाता है l A श्रेणी के फैल बच्चों के अभिभावक को बुलाकर फादर कहता है के आपके बच्चे का स्तर काफ़ी निम्न है अतः इसे हम प्रवेश नहीं दे सकते l लेकिन जैसे ही अभिभावक हताश होकर जाने लगता है फादर तत्काल अधिक डोनेशन जमा करने का पांसा फेक देता है और इस तरह A श्रेणी के अभिभावक के बच्चे भी डोनेशन राशि बढ़ाकर प्रवेश पा लेने मे सक्षम हो जाते हैं l शिक्षा के मंदिर मे लालच, झूठ, कपट और संवेदनहीन्ता का ये गंदा खेल पिछले कई वर्षों से चला आ रहा
फादर कहता है के वो शिवराज का खास है और शिबराज के अलावा वो किसी को कुछ नहीं समझता
फादर अक्सर ये कहते सुना जाता है की वो शिवराज का खास है, और शिवराज ने ही उसे नौनीहालों के भविष्य के साथ खेलने वा दिन रात मेहनतकश लोगो की जमा पूंजी पर डांका डालने का अधिकार दिया है l इसलिए प्रशासन भी कभी ज्योति स्कूल के फादर के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करती l आखिर इस लूट खसोट का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है कोई सत्ताधारी नेता, मंत्री या विधायक l इसका जवाब कौन देगा आखिर रीवा मे ये स्कूल क्यों और कैसे खुलेआम डकैती डाल रहा क्या प्रशासन खबरदार है या अनजान यदि अनजान है तो क्यों अनजान है और यदि खबरदार है तो क्यों कार्यवाही नहीं करता
यहां एक भी नहीं चलती न राजेंद्र की न उनके PA की
जी हाँ रीवा के विकास पुरुष जो की इस बार विकास की नदी मे खुद को बहता महशुश कर रहे हैं l पक्की उम्मीद है की इस बार विकास पुरुष के विकास की नदी उन्हें शायद मऊगंज की तरफ बहा कर ले जा रही है, सूत्रों की मानें तो विकास पुरुष इस बार जिस विकास की गाथा लिखे हैं उस गाथा का गूढ अध्ययन रीमही रियाया ने कर लिया है l शायद यहीं वजह है की एक विधायक जो पिछले 15 वर्षो से मंत्री वा विधायक रह चुका है, उसकी बात एक प्राइवेट स्कूल संचालक नहीं सुन रहा l और इनके लेटर को भी रद्दी की तरह डस्टबिन मे डाल देता है l अब बारी आती है विकास पुरुष के PA राजीव तिवारी की, जो की हमेशा गेंद को अपने पाले मे आने का बेसब्री से इंतजार करते हैं और जैसे ही इन्हे मौका मिलता है ये अपने शाम दाम दण्ड भेद लगाने लगते हैं l ज़ब इनको दिखने लगता है की अब यहां उनकी नहीं गलने वाली तो फिर धीरे से किनारा कर लेते हैं और अक्सर ये कहते हैं की मेरे बाल ऐसे नहीं झड़ गए, मै तजुर्बेदार व्यक्ति हु l लेकिन यहां फादर इनकी भी नहीं सुनता l ये कितना सत्य है ये तो बाद मे पता चलेगा लेकिन एक बात साफ है वो ये की कही न कही कुछ तो है जो हमे नहीं दिखाई दे रहा।
एडमिशन फी,डेवलपमेंट फी, कम्प्यूटर फी,एग्जामिनेशन फी आदि के नाम पर प्रतिवर्ष एक ही विद्यालय में अलग-अलग कक्षा के लिए एक ही छात्र के नाम पर हजारों रूपये की रसीद तैयार रखते हैं और अभिभावक बच्चों के भविष्य से बिना समझौता किए भुगतान करते रहते हैं।
एक हमारा जमाना था जब नई कक्षा में जाने से ज्यादा खुशी तब होती थी जब सीनियर छात्र से पुरानी किताब आधा या पौने दाम पर खरीदते थे और यदि घर में कोई छोटा भाई रहा तो अगले वर्ष उसी पुस्तक से वो भी विद्या हासिल कर लेता था।उस समय सिलेबस (पाठ्यक्रम) भी संसदीय सरकार की तरह पाँच छः वर्षो पर ही बदलती थी।
किन्तु ज्योति स्कूल में एक बच्चे ने जिस किताब को पढ़कर, परीक्षा पास कर अगली कक्षा में प्रवेश ले लिया तो फिर वो पुस्तक उसके सगे भाई को भी ज्ञान देने में निष्फल हो जाता है। उसी स्कूल की वही पुस्तक उसके छोटे भाई को तब ज्ञान देने में समर्थ हो जाती है जब विधालय के कैश काउंटर पर पुनः भुगतान कर उसी पुस्तक की नई प्रति खरीदी जाती है। एक वो भी जमाना था जब लहेरिया सराय से झुमरीतिलैया तक प्रायः सभी विद्यालयों मे एक ही पाठ्यक्रम हुआ करता था अब तो अपना विद्यालय अपना पाठ्यक्रम अपना प्रकाशक।
बच्चों की किताब काॅपी,ड्रेस, जूता मोजा आदि की खरीदारी भी आपको संबंधित विद्यालय के खास दुकानदार काउंटर से ही करनी होगी अन्यथा माँ शारदा की साधना अधूरी ही रहेगी और आप का बच्चा दिव्य व अलौकिक शिक्षा से वंचित रह सकता है। एक जमाना ऐसा था जब स्कूल बैग में एक स्लेट,पाँच पैकेट पेंसिल,मनोहर पोथी व गुड इंग्लिश ही कुल जान अर्जन पूंजी होती थी और इसी पूंजी पर दो-तीन कक्षा तक बेड़ा पार।आज के स्कूल के पहली कक्षा के बच्चों का स्कूल बैग ना हुआ मानों वितमंत्री के बजट का सूटकेस हो गया बैग मोटी मोटी किताबों से भरा रहता है।बच्चे के वजन से ज्यादा स्कूल बैग का भार। वजन इतनी की स्कूल जाते वक्त बच्चा धनुष के आकार को ग्रहण कर लेता है।
बेरोजगारी के दौर में संभवतः उतने से कम वजन के बैग में हम आल इंडिया विदाउट टिकट बैंकिंग,रेलवे,एसएससी की प्रतियोगिता परीक्षा देकर रीवा लौट आते थे।किंतु उससे ज्यादा वजन लेकर आज के टीटू,गोलू,चिंटू स्कूल जाते है।मतलब उच्चस्तरीय एजुकेशन के साथ फिज़िकल फिटनेस फ्री। एक हमारा समय था जब वार्षिक परीक्षा में खूब कलम घिसने के बाद भी गुरुजी जनवितरण प्रणाली की फिक्स रेट वाली वस्तुओं की तरह ही पेपर पर मुट्ठी भर नम्बर देते थे।ग्रेस पर पास होने वाला छात्र गुरुदेव व ईश्वर को मन ही मन दुआएं देता था तो चालीस से पचास प्रतिशत अंक लाने वाला पार्टी सेलीब्रेट करता तो साठ प्रतिशत प्राप्त करने वाले छात्र मेधावी की गिनती में आता था।
साठ प्रतिशत से उपर अंक लाने वाला बंदा मुहल्ले में कम अंक लाने वाले सहपाठियों के गार्जियन का आदर्श एवं अभिभावकों द्वारा अपने बच्चे को ताना देने का मानदंड बन जाता था।एक आजकल के गुरुजी है जो परीक्षा में छात्रों को जियो नेटवर्क की तरह झोली भरकर अंक देते हैं फिर भी नाइंटी एट परशेंट मार्क्स लाने वाला बच्चा दो प्रतिशत अंक कम आने के सदमे में रहता है तो वहीं अस्सी प्रतिशत अंक लाने वाला बच्चा हताश हो सुसाइड कर लेता है।
सचमुच एक वो भी जमाना था जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषा, देवभाषा या राजभाषा होती थी एक आज की शिक्षा पद्धति है जो उधार की आंग्ल भाषा पर आधृत है।जिस भाषा पर फख्र कर हम गौरवान्वित होते है। एक वो भी जमाना था जब पढ़ाई का उद्देश्य राष्ट्र सेवा माता-पिता के साथ रहकर समाज सेवा का होता था एक आज की शिक्षा पद्धति है जो माता पिता को छोड़ कर विदेश में सेटल होने की तैयारी करवाती है ।ज्योति स्कूल में ड्रेस,जूता,किताब काॅपी एवं पढ़ाई के लिए एक मोटी रकम चुकानी पड़ती है। कुल मिला कर ज्योति स्कूल में पैसा देना है या सरकारी विद्यालय से पैसा लेना है ये अभिभावक के विवेक पर निर्भर करता है तो शिक्षा प्राप्त करना छात्र के नसीब पर।
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