इंदौर को विकास नहीं विजन चाहिए…
योजनाएं इंदौर से भेजी जाती हैं, भोपाल में दम तोड़ जाती हैं
बस 24 घंटे ही तो बचे हैं… सबकी सुन ली…अब अपनी कह लें… किसे चुनें और क्यों चुनें… सवाल खुद से करना होगा… जवाब भी खुद को ही खोजना होगा… शहर हमारा है… हमें यहीं रहना है… गलत चुना तो हमें ही सहना है… और चयन सही रहा तो शहर को आगे बढऩा है… पिछले 20 सालों में शहर बुनियादी जरूरतें तो पा गया… लेकिन विस्तार का विजन कमजोर रहा… हम इंदौर को मिनी बाम्बे समझते हैं… विदेशों से तुलना करते हैं… लेकिन हकीकत यह है कि हमें विकास के नाम पर आज भी कहीं सडक़ें दिखाई जाती हंै तो कहीं पानी की टंकी बताई जाती है तो कहीं अंधेरे की समस्या से निजात दिलाने को विकास की दृष्टि बताई जाती है… शहर की जरूरतों की हकीकत समझी ही नहीं जाती है… आज भी शहर बौनी इमारतों में सांस ले रहा है… मात्र छह से आठ मंजिला ऊंचे भवन शहर की जमीनें निगलते जा रहे हैं… शहर फैलता जा रहा है… यातायात बिगड़ता जा रहा है… घर रौंदकर सडक़ें चौड़ी की जा रही हैं और वही सडक़ें अतिक्रमण से लेकर वाहनों की पार्किंग में घिरती जा रही हंै… जिस शहर में ऊंची इमारतों की कतारें होना चाहिए थीं… जिस शहर का विकास वर्टिकल होना चाहिए… कम जमीन खर्च कर अधिक लोगों की जरूरतें पूरी का जानी चाहिए थीं, वहां सरकार की कंजूस निगाहों ने शहर को आसमान देखने ही नहीं दिया… मात्र डेढ़-दो एफएआर निर्माण की अनुमति ने शहर को इतना फैला दिया कि हर व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने के लिए दस-दस किलोमीटर की दूरी तय करना पड़ती है… स्मार्ट सिटी के नाम पर कई घर रौंद दिए गए… यहां रहने वाले लोगों को मुआवजा देना तो दूर टीडीआर का झांसा दिया गया और टीडीआर देना तो दूर पांच साल में पालिसी ही नहीं बन पाई… गांव में रोजगार नहीं होने से आसपास के ग्रामीण इलाकों से हुआ पलायन इंदौर शहर पर बोझ बनता गया… हकीकत यह है कि इस शहर को विकास की नहीं विजन की जरूरत है… यदि जरूरतों को समझा नहीं जाएगा … मुंबई-अमेरिका का नाम देकर बहलाया जाएगा… स्वच्छता के खिताब का खिलौना थमाकर खिलाया जाएगा तो यह इंदौर और आगे नहीं बढ़ पाएगा… बीते सालों में इंदौर शहर में परंपरागत विकास तो हुआ, लेकिन शहर ने अधिकारियों की बर्बरता को भी झेला… छोटे से छोटा कर्मचारी बिना पैसे के काम करने की आदत भूल चुका है… ऐसे में जनप्रतिनिधियों की खामोशी ने खंजर का काम किया… सत्तापक्ष तो दूर विपक्ष ने भी अपना काम नहीं किया… शहर में लोकतंत्र नहीं ठोकतंत्र मजबूत होता गया… निगम ने संपत्ति कर के लिए 79 गांवों को हड़प लिया… और हकीकत यह है कि वो गांव पानी, बिजली तो दूर ड्रेनेज तक की समस्या से जूझ रहे हैं… आतंक फैलाते निगम के कर्मचारी प्रतिष्ठानों पर ताला डाल रहे हैं, लेकिन व्यवस्थाओं के नाम पर ठेंगा दिखा रहे हैं… शहर में आज इमारतों का नक्शा पास करने के लिए सर्वाधिक फीस जमा करना होती हैै और उसमें भी स्वच्छता कर से लेकर पंचायत कर और गाइड लाइन की कीमत जोड़ी जाती है… अब यह कौन पूछे कि गांव जब शहर में शामिल कर लिए गए तो पंचायत कर कैसा, सफाई के लिए हर घर से पैसा ले रहे हैं तो स्वच्छता कर कैसा… और जमीन की कीमत चुका दी, सर्वाधिक गाइड लाइन से रजिस्ट्री करा ली तो नक्शा पास कराने के लिए प्रीमियम ऑन एफएआर क्यों… शहर विजन और विकास को लेकर परेशान है तो व्यापारी बढ़ते करों को लेकर हैरान है… सरकार का कर्ज बढ़ता जा रहा है… और खैरात का बोझ सामने नजर आ रहा है… पता नहीं यह पैसा कहां से आएगा, किससे वसूला जाएगा… गलती नेताओं की नहीं हमारी है… वो जो विकास बताते हैं हम मान जाते हैं… अपनी जरूरतें समझ नहीं पाते हैं… सवाल करना हमें आता नहीं है… नेताओं का तो दूर जनता में भी विजन नहीं है… यह विधानसभा का चुनाव है…हमें गली-मोहल्लों नहीं शहर और प्रदेश के बारे में विचार करना चाहिए… हर काम की गारंटी मिलना चाहिए… हर वादा पूरा होने की समय सीमा तय होना चाहिए… हर शहर के लिए विजन और योजना बनना चाहिए… यह वक्त है जब हम भी विचार करें और उन्हें भी विचार करने पर मजबूर करें… वरना पांच साल और बीत जाएंगे… आज वक्त है जिस नेता में सोच हो… साहस हो… समझदारी हो… उसे वोट देकर इस शहर की चाबी थमाएं…
सवाल
– कहां है इंदौर का मास्टर प्लान?
– बहुमंजिला इमारतों की इजाजत क्यों नहीं?
– ट्रैफिक प्लान तो दूर ट्रैफिक इंजीनियरिंग तक नहीं?
– तोड़े मकानों के मुआवजे में टीडीआर पॉलिसी तक नहीं
– जीएसटी विसंगतियां और अधिकारियों का आतंक?
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