रोशनी का त्यौहार दिवाली अनकऱीब है। इस दफे धनतेरस दो दिन मनाई जा रही है साब। मतलब आज और कल धनतेरस और परसों दिवाली पूरे जोशोखरोश से मनाई जाएगी। आज से पांच दिनी दिवाली पर्व का आगाज़ हो रहा है। आइये आपको साठ, सत्तर और अस्सी की दहाई में भोपाल के उस मशहूर पत्रकारों के मेहल्ले में ले चलें जिसे हाथीखाना कहा जाता है। बुधवारा चार बत्ती से एमएलबी कालिज जाने वाली सड़क के दाएं तरफ के खित्ते में हाथी खाना आबाद था। यहां 17 सरकारी मकान हुआ करते थे। नवाबी दौर के उन बड़े बड़े मकानों में उस दौर के भोपाल के मशहूरो मारूफ़ सहाफी (पत्रकार) रहा करते थे। पत्रकारों के परिवारों में घरों घर दिवाली का बड़ा जोश रहता और खुशियां मिल बांट के मनाई जातीं। उस दौर में हाथीखाने में जाने माने सहाफी (पत्रकार) युगलबिहारी अग्निहोत्री, विष्णुदत्त तरंगों उनके पत्रकार फज़ऱ्न्द अशोक तरंगी, ठाकुर विक्रम सिंह, ध्यान सिंह तोमर राजा, राजेन्द्र नूतन, जगदीश गुर, ओमप्रकाश कुंद्रा और दिनकर शुक्ला रहते थे। उस बुज़ुर्ग पीढ़ी के अब सिर्फ अशोक तरंगी और दिनकर शुक्ला ही जीवित हैं। उस दौर के सहाफी सादगी से जि़न्दगी जीते। आज जैसे जलवे तो नहीं थे बाकी कम तनख्वाह में इतनी बरकत होती थी कि गुज़ारा आराम से हो जाता था। दिवाली पे पूरा हाथीखाना अपने शबाब पे होता। उन पत्रकारों की तीन चार संतानें ही सहाफत में आईं।
पत्रकार राजीव अग्निहोत्री और धर्मेंद्र सिंह ठाकुर ने सहाफत में करियर बनाया। ये लोग बताते हैं कि हाथीखाने में पत्रकारों के घरों घर गुजिया, पपड़ी, मीठे खुरमे और दूसरी मिठाईयां बनाई जातीं थीं। माहौल में पकवानों की खुशबू महकती रहती। महिलाएं अपने अपने घरों के सामने गोबर लीपतीं। उसपे बड़ी सारी खूबसूरत रंगोली बनाई जाती। पत्रकारों के बच्चे बड़ों की निगरानी में घर के सामने पटाख़े चलाते। सारे घरों के बच्चे एक साथ पटाखे चलाते तो गज़़ब माहौल बन जाता। पूजन के बाद एक दूसरे के घर मिठाईयां भेजी जातीं। पत्रकार एक दूसरे के घर दिवाली मिलने जाते। घरों की बाहरी दीवारों पे बॉम्बे कील ठोक के चूडिय़ों पे सुतली से दिए लगाए जाते। दिवाली की रात को पत्रकार रस्मी तौर पे जुआ भी खेलते। ये रस्मी जुआ तीन पत्ती के गेम के तौर पे खेला जाता। इसकी महफि़ल कभी युगल बिहारी अग्निहोत्री साब के घर तो कभी तरंगी साब के यहां तो कभी नूतन जी के यहां जमती। हाथीखाने में भोपाल के साबिक मेंबर ऑफ पार्लियामेंट आलोक संजर के वालिदैन भी रहते। संजर साब के वालिद रेलवे में मुलाजि़म थे जबकि उनकी वालेदा सरकारी टीचर थीं। इसी कालोनी में गुलनार आपा नाम की एक सरकारों टीचर भी रहती थीं। उनकी दो बहनें नसीम आपा और फिद्दो आपा अपने भाई आफताब के साथ रहतीं थीं। ये मुस्लिम परिवार दिवाली पर हर घर मे जाके मुबारकबाद पेश करता। इसी तरह ईद के मौके पे पत्रकारों के परिवार गुलनार आपा के घर सिवइयां खाने जाते। राजीव अग्निहोत्री और धर्मेंद्र सिंह ठाकुर कहते हैं कि वो अपनापा, वो बेलौस मुहब्बत अब कहां। अब तो दिवाली कब आके कब चली जाती है पता ही नहीं चलता। खैर…आप सबों को दिल से दिवाली की मुबारकबाद।
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