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    जयंती विशेषः स्वामी दयानंद सरस्वती- एक संन्यासी योद्धा

  • February 26, 2022

    – योगेश कुमार गोयल

    भारत की पावन धरती पर अनेक समाज सुधारकों, देशभक्तों, महापुरुषों और महात्माओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपना सारा जीवन देश के प्रति न्यौछावर कर दिया। आर्य समाज के संस्थापक के रूप में वंदनीय महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती भी ऐसे ही देशभक्त, समाज सुधारक, मार्गदर्शक और आधुनिक भारत के महान चिंतक थे, जिन्होंने न केवल ब्रिटिश सत्ता से जमकर लोहा लिया बल्कि अपने कार्यों से समाज को नई दिशा और ऊर्जा भी प्रदान की। 1857 की क्रांति में स्वामी दयानंद सरस्वती का अमूल्य योगदान था। वास्तव में देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी और ‘स्वराज’ का नारा उन्होंने ही दिया था, जिसे बाद में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया।

    वेदों का प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ उनकी महत्ता लोगों तक पहुंचाने तथा समझाने के लिए स्वामी जी ने देशभर में भ्रमण किया। जीवन पर्यन्त वेदों और उपनिषदों का पाठ करने वाले स्वामी जी ने पूरी दुनिया को इस ज्ञान से लाभान्वित किया। उनकी किताब सत्यार्थ प्रकाश आज भी दुनिया भर में अनेक लोगों के लिए मार्गदर्शक साबित हो रही है। वेदों को सर्वोच्च मानने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों का प्रमाण देते हुए हिन्दू समाज में फैली कुरीतियों और अंधविश्वासों का डटकर विरोध किया। जातिवाद, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने में उनका योगदान उल्लेखनीय है, इसीलिए उन्हें ‘संन्यासी योद्धा’ भी कहा जाता है। दलित उद्धार तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए भी उन्होंने कई आन्दोलन किए। हिन्दू धर्म के अलावा इस्लाम तथा ईसाई धर्म में फैली बुराईयों और अंधविश्वासों का भी उन्होंने जोरदार खंडन किया। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव कल्याण, धार्मिक कुरीतियों की रोकथाम तथा वैश्विक एकता के प्रति समर्पित कर दिया।

    स्वामी दयानंद का जन्म गुजरात के टंकारा में 12 फरवरी 1824 को हुआ था लेकिन हिन्दू पंचांग के अनुसार उनकी जयंती प्रतिवर्ष फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की दशमी को मनाई जाती है। इस साल पूरा देश 26 फरवरी को उनकी 199वीं जयंती मना रहा है। परिवार की भगवान शिव में गहरी आस्था होने तथा मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण स्वामी दयानंद सरस्वती का बचपन का नाम उनके माता-पिता ने मूलशंकर रखा था। जाति से ब्राह्मण स्वामी जी ने अपने कर्मों से ‘ब्राह्मण’ शब्द को परिभाषित करते हुए बताया कि ज्ञान का उपासक होने के साथ-साथ अज्ञानी को ज्ञान देने वाला दानी ही ब्राह्मण होता है। स्वामी दयानंद का बचपन बहुत अच्छा बीता लेकिन उनके जीवन में घटी एक घटना ने उन्हें इस कदर प्रभावित किया कि वे 21 वर्ष की आयु में ही अपना घर बार छोड़कर आत्मिक एवं धार्मिक सत्य की तलाश में निकल पड़े और एक संन्यासी बन गए। जीवन में ज्ञान की तलाश में वे स्वामी विरजानंद से मिले, जिन्हें अपना गुरु मानकर उन्होंने मथुरा में वैदिक तथा योग शास्त्रों के साथ ज्ञान की प्राप्ति की। 1845 से 1869 तक कुल 25 वर्षों की अपनी वैराग्य यात्रा में उन्होंने कई प्रकार के दैविक क्रियाकलापों के बीच विभिन्न प्रकार के योगों का भी गहन अभ्यास किया।

    आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद ने मुम्बई के गिरगांव में गुड़ी पड़वा के दिन 10 अप्रैल 1875 को की थी, जिसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के साथ समूचे विश्व को एक साथ जोड़ना था। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‘, जिसका अर्थ है ‘विश्व को आर्य यानी श्रेष्ठ बनाते चलो’। आर्य समाज के द्वारा उन्होंने दस मूल्य सिद्धांतों पर चलने की सलाह दी। मूर्ति पूजा के अलावा वे जाति विवाह, महिलाओं के प्रति असमानता की भावना, मांस के सेवन, पशुओं की बलि देने, मंदिरों में चढ़ावा देने इत्यादि के सख्त खिलाफ थे और इसके लिए उन्होंने लोगों में जागरुकता पैदा करने के अथक प्रयास किए। निराकार ओमकार में भगवान का अस्तित्व बताने और धर्म की बनी-बनाई परम्पराओं तथा मान्यताओं को नहीं मानने वाले स्वामी जी ने वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया। उन्होंने सदैव ब्रह्मचर्य का पालन किया, जिसे वे ईश्वर से मिलाप का सबसे प्रमाणित तरीका मानते थे।

    अपने 59 वर्ष के जीवनकाल में महर्षि दयानंद ने न सिर्फ देश में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगों को जागृत किया बल्कि अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को भी देशभर में फैलाया। हालांकि कई लोगों ने उनका जमकर विरोध भी किया लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती के तार्किक ज्ञान के समक्ष बड़े-बड़े विद्वानों और पंडितों को भी नतमस्तक होना पड़ा। वे अपने जीवन को पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य, संन्यास तथा कर्म सिद्धांत के चार स्तंभों पर खड़ा मानते थे। स्वामी जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे और उनका मत था कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश में एक ही भाषा ‘हिन्दी’ बोली जानी चाहिए। मानव शरीर को नश्वर बताते हुए वह कहते थे कि हमें इस शरीर के जरिये केवल एक अवसर मिला है, स्वयं को साबित करने का कि ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है। वे कहा करते थे कि शक्ति किसी अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए नहीं होती। उनका कहना था कि अज्ञानी होना गलत नहीं है लेकिन अज्ञानी बने रहना गलत है। स्वामी जी का तर्क था कि काम करने से पहले सोचना बुद्धिमानी, काम करते हुए सोचना सतर्कता और काम करने के बाद सोचना मूर्खता है। वह कहा करते थे कि दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिए और तब आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा। सभी धर्मों और उनके अनुयायियों को वे एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे। दरअसल उनका मानना था कि आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा उठाता हैं, इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक है।

    संन्यास लेने के बाद से ही स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंग्रेजों के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया और राष्ट्र भ्रमण के दौरान उन्होंने महसूस किया कि लोगों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोश है लेकिन उन्हें उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता है, इसीलिए उन्होंने लोगो को एकत्रित करने का कार्य किया। उनके विचारों से उन दिनों तांत्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब जैसे महान वीर भी प्रभावित थे। स्वामी जी ने ऐसे ही वीरों के सहयोग से देश की आजादी के लिए लोगों को एकजुट करना शुरू किया और इसके लिए सबसे पहले उन्होंने साधु-संतों को जोड़ा ताकि उनके जरिये जनसाधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके। यही कारण था कि स्वामी जी ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में पत्थर की भांति खटकने लगे थे और इसीलिए अंग्रेजी हुकूमत द्वारा षड्यंत्र के जरिये उन्हें जहर देकर मारने के भी प्रयास किए गए लेकिन योग पारंगत होने के कारण स्वामी जी को कुछ नहीं हुआ।

    1883 में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह के निमंत्रण पर स्वामी जी जोधपुर गए, जहां उन्होंने देखा कि नन्हींजान नामक एक नर्तकी के प्रति महाराजा बहुत ज्यादा आसक्त थे। स्वामी जी के समझाने पर महाराजा ने उससे संबंध तोड़ लिए लेकिन इससे नर्तकी स्वामी दयानंद की दुश्मन बन गई और उसने स्वामी जी के रसोईये कलिया उर्फ जगन्नाथ को षड्यंत्र में शामिल कर स्वामी जी के दूध में पिसा हुआ कांच मिलवा दिया। इससे स्वामी दयानंद इतने बीमार हुए कि कभी उबर नहीं पाए और दीवाली की शाम 30 अक्तूबर 1883 को ‘प्रभु! तूने अच्छी लीला की, आपकी इच्छा पूर्ण हो’ इन अंतिम शब्दों के साथ राजस्थान में अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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