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    जयराम रमेश ने क हा-पर्यावरण प्रभाव आकलन मसौदा जनभागीदारी के सिद्धांत के प्रतिकूल

  • August 16, 2020


    नयी दिल्ली। केंद्र सरकार के पर्यावरण प्रभाव आकलन की अधिसूचना-2020 के प्रारूप पर विभिन्न वर्गों के विरोध के कारण विवाद उत्पन्न हो गया है। विपक्ष इस मसौदे को कानून को कमजोर करने वाला और जनभागीदारी के सिद्धांत के खिलाफ बता रहा है, दूसरी तरफ सरकार इसे विकास, रोजगार और पर्यावरण संतुलन को बढ़ावा देने वाला मसौदा मानती है। पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं पर्यावरण एवं वन मंत्रालय संबंधी संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष जयराम रमेश का कहना है कि यह मसौदा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986 को कमजोर करने वाला है और इसमें कई ऐसे प्रावधान हैं जो मूल्यांकन और सार्वजनिक भागीदारी के सिद्धांतों के प्रतिकूल हैं।

    केंद्र सरकार द्वारा जारी पर्यावरण प्रभाव आकलन की अधिसूचना-2020 के प्रारूप पर जयराम रमेश ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986, भोपाल में औद्योगिक दुर्घटना के बाद लाया गया था। मसौदा पर्यावरण प्रभाव आकलन की अधिसूचना 2020, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के कई प्रावधानों को खत्म करने की बात करती है। यह न केवल खतरनाक है बल्कि अवैध भी है। अधीनस्थ कानून, मूल कानून का स्थान नहीं ले सकते हैं। इसके साथ ही देश के पर्यावरण नियामक ढांचे और पर्यावरण पर इसके प्रभाव से जुड़ी ईआईए मसौदा अधिसूचना-2020 के निहितार्थ को गलत ढंग से पेश किया जा रहा है। ईआईए अधिसूचना में यह बदलाव जांच, आकलन और विश्लेषण के आधार पर नहीं हैं और न ही किसी तरह का शोध ही किया गया है। जयराम रमेश ने कहा कि सरकार इसे विकास, रोजगार और पर्यावरण संतुलन को बढ़ावा देने वाला मसौदा मानती है। उन्होंने कहा कि मसौदे में ऐसी सोच झलकती है जो पर्यावरण नियमन को लोगों के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिये टिकाऊ विकास सुनिश्चित करने संबंधी आवश्यक दायित्व मानने की बजाए इसे अनावश्यक बोझ मानती है। इसमें ऐसे प्रावधान हैं जिससे वे उद्योग भी अपनी प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए मंजूरी प्राप्त कर सकेंगे जो इससे पहले पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करते रहे हैं। वहीं, बड़ी संख्या में पर्यावरण मंजूरी देने से परियोजनाओं के लिए लंबी अवधि के लिए जमीन सुरक्षित की जा सकेगी। उस समय भी जब वहां पर कोई निर्माण नहीं होगा। इससे जमीन पर कब्जा बढ़ेगा, न कि विकास होगा। मसौदे में कई तरह की परियोजनाओं को पर्यावरण अनुमति लेने की आवश्यकता से मुक्त किया गया है तथा रणनीतिक एवं राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं को लोक विमर्श से छूट देने का प्रस्ताव है इस पर जयराम रमेश ने कहा कि इसका खतरा ये है कि अब कई सारी परियोजनाओं के लिए रास्ता खुल जाएगा और उद्योग कई परियोजनाओं को ‘रणनीतिक’ बताकर आसानी से मंजूरी ले लेंगे और उन्हें इसकी वजह भी बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वहीं अगर यह अधिसूचना लागू हो जाती है तब केवल सरकारी एजेंसियां पर्यावरण उल्लंघन का मामला सरकार के समक्ष उठा सकेंगी। इसमें जनता के प्रतिनिधियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं की भूमिका नहीं रहेगी, जो अनुचित है । देश में कई परियोजनाएं अनेक संगठनों के विरोध एवं अदालती मामलों के कारण लंबे समय तक अटकी रहती हैं, ऐसे में क्या पर्यावरण संबंधी नीतियों में बदलाव की जरूरत नहीं है?  किसी भी संवैधानिक लोकतंत्र में सरकार को ऐसे कानूनों पर जनता की राय लेकर कानून के प्रावधानों में उन्हें भागीदार बनाना होना होता है जिसमें बड़ी संख्या में लोगों के प्रभावित होने की संभावना हो। पर्यावरण को लेकर ये नई अधिसूचना लोगों के इस अधिकार को छीनती है और पर्यावरण को बचाने में लोगों की भूमिका का दायरा बहुत कम करती है। इसमें पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन से भी दूरी बनाई गई है। उन्होंने कहा कि ईआईए प्रारूप किसी परियोजना का काम पूरा होने के बाद भी स्वीकृति की अनुमति देता है। यह पर्यावरण मंजूरी से पहले होने वाले मूल्यांकन और सार्वजनिक भागीदारी के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। यह केंद्र को राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार देता है जो सहकारी संघवाद की भावना के खिलाफ है।

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