– अरुण कुमार दीक्षित
मौजूदा लोकसभा चुनाव मुद्दाविहीन है। जब कोई चुनाव मुद्दों पर आधारित होता है तब पक्ष और विपक्ष के लिए बहस आसान होती है। सत्ता पक्ष के पास अपने अनेक कार्य गिनाने का अवसर चुनाव के समय होता है। सत्ता पक्ष द्वारा अपने पक्ष में रखी जा रही बातों और प्रशंसा का मंच चुनाव होता है। सत्तारूढ़ दल अपने कार्यों को बता कर यदि चुनाव में लाभ उठाता है तो यह उसका अधिकार भी है। विपक्ष के पास सत्ता दल को घेरने के लिए मुद्दे होने चाहिए। इस लोकसभा चुनाव में विपक्ष किसी भी समस्या को मुद्दा नहीं बना पाया। सच तो यह है कि कोई भी सरकार अपने कार्यों से बोलती है और विपक्ष माइक से बोलता है। पूरे पांच साल विपक्ष मुद्दा आधारित लोकहित के विचार सदन के भीतर और बाहर नहीं रख पाया। न ही आंदोलन से अपने पक्ष में वातावरण बना पाया। जनहित की बातों और समस्याओं को लेकर लोकसभा में सकारात्मक चर्चा भी ठीक नहीं रही। राष्ट्रीय बिंदुओं पर जहां विपक्ष भागता रहा, वहीं इसका लाभ सत्ता दल को लगातार मिलता देखा गया। प्राय: सत्तादल की किसी छोटी सी बात या टिप्पणी पर विपक्ष भ्रमित होता देखा गया।
जनहित पर चर्चा लोकसभा और विधान मंडल के सदनों में नहीं होने से सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में निराशा होती है। सत्ता दल को इसका लाभ मिलता है। राष्ट्र का नुकसान होता है। खास बात यह भी है, कि सदन के भीतर माननीय सदस्यों को मर्यादित रहने, सदन को सुव्यवस्थित चलाने , संसदीय व्यवस्था के अनुसार आचरण करने के प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं। सत्र के एक-दो दिन पूर्व सर्वदलीय बैठक और साथ में सत्ता दल द्वारा सदन के सभी दलों के नेताओं के साथ बैठक का आयोजन भी किया जाता है। मगर सदन के पहले दिन ही हंगामा शुरू हो जाता है। सदन चलाने में मोटी धनराशि खर्च होती है। अपने नेता के प्रति वफादारी दिखाने का अवसर सदन में मिलता है। वह इस स्वर्णिम अवसर को खोना नहीं चाहते हैं।
चुनाव में जनमानस इस बात का मूल्यांकन करता है उसके क्षेत्र के सांसद और विधान ने सदन में नए कानून पर कितनी चर्चा की। क्या कोई ऐसे सुझाव दिए जो राष्ट्र निर्माण के लिए सुंदर हैं। क्या शिक्षा को लेकर कोई विषय रखा ? क्या सदन में पर्यावरण की चिंता की ? नदियों में प्रदूषण को घटाने पर कोई उपयोगी सुझाव दिए। क्या इस पर चर्चा हुई कि किसानों की फसल का अधिकतम लाभ मिले। इस पर कितने सांसदों और विधायकों की राय आई। प्रश्न प्रति प्रश्न हुए । सरकार का प्रश्नों में क्या रुख रहा। विधान परिषद सदस्य स्नातक क्षेत्र के भी होते हैं। तो भी स्नातकों की बात क्यों नहीं होती है। सदस्यों ने सदन के भीतर यह जरूर बताया होगा कि किसान के बेटे हैं। गांव से आए हैं। भारत गांव में ही है। बेरोजगारी को लेकर सांसदों- विधायकों की राय सामने नहीं आती है। न ही लोकसभा में न विधानसभा में । आखिर यह विषय आते क्यों नहीं।
विपक्ष बोलता नहीं । सत्ता दल मौन होता है, जबकि शक्तियों की बात की जाए तो विधायक, एमएलसी, लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य चाहे वे सत्ता दल के हों या हो या विपक्ष के, समान शक्तियों से लैस हैं। मगर वह प्राय: नहीं बोलते । उनके अंदर प्रश्न नहीं उठते। सदन के भीतर अपने क्षेत्र की उपेक्षा करते हैं। वह प्रश्नाकुल नहीं होते हैं। वह उनके लिए भी विचलित नहीं होते जिनके वोट से पदासीन होते हैं। उपनिषदों में एक उपनिषद है-प्रश्नोपनिषद , वह उससे भी प्रेरित नहीं होते। वह किसी सरकारी अस्पताल में चिकित्सक की कमी को भी देखकर सदनों में यह समस्या नहीं रखते हैं। बात चिकित्सा, शिक्षा या नई ट्रेन चलवाने की बस चलवाने, नदियों ,पहाड़ों को बचाने की नहीं है। मूलभूत प्रश्न है संसद, विधानमंडल में जब गांव-गरीब, मजदूर-बेरोजगारी, दवा ,अपराध ,न्याय की चर्चा में भागीदारी नहीं होगी तो उपाय क्या है?
हमारे अधिकार क्या हैं। बहुसंख्यक आबादी नहीं जानती कि उनके संवैधानिक अधिकार क्या हैं? आज भी प्राय: लोग मानते हैं कि सांसद या विधायक पुलिस-तहसील में सिफारिश करने के लिए उपयुक्त है। यह काम जनप्रतिनिधियों से कराया जाए। मगर लोकसभा में जब कोई विधेयक लाया जा रहा हो तब सांसदों की क्या भूमिका होती है? देश की जनता प्राय: नहीं जानती है। संसद और विधान मंडल की कार्यवाही में जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी क्या है? इसे लेकर शिक्षित और प्रबुद्ध समाज भी गंभीर नहीं है। जब बेरोजगारी पर बात होती है। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं के बजट पर चर्चा होती है तो किसानों, मजदूरों और डिग्री धारकों के भविष्य पर चर्चा भी होनी चाहिए, ऐसे में जनप्रतिनिधियों की चुप्पी तो चौंकाती ही है।
डॉ. जगदीश्वर चतर्वेदी ने अपनी पुस्तक हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका के पेज 85 अध्याय भारतेंदु युगीन पत्रकारिता का परिप्रेक्ष्य में लिखा है कि आधुनिक युग में संस्कृत और राजनीतिक नाभिनालद्वय है जो लोग संस्कृति और राजनीति में संबंध नहीं देखते। वे समाज के प्रति समग्र दृष्टिकोण पैदा भी नहीं कर सकते। इन दिनों परिवारवाद बड़ा मुद्दा है। जातिवाद उन्मूलन बड़ा मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है, यह विषय गंभीर है। इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। मतदाताओं को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत रहना होगा। डॉ. ओमप्रकाश गाबा की पुस्तक ‘राजनीति चिंतन की रूपरेखा’ के पेज 163 पर जर्मन दार्शनिक कान्ट ने नैतिकता को सर्वोपरि स्थान देते हुए कहा कि राजनीतिज्ञों को नैतिकता के सामने सदैव नतमस्तक रहना चाहिए। सच्ची राजनीति तब तक एक कदम आगे नहीं बढ़ सकती जब तक वह नैतिक आदर्शों को प्रणाम न कर लें। अपेक्षा की जा सकती है कि नई लोकसभा के साथ नई ऊर्जा तथा समाज राष्ट्र के हितों के लिए काम करेंगे।
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