– हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय इतिहास दृष्टि में लोकमंगल का लक्ष्य है और समग्रता का दृष्टिकोण है। इतिहासबोध राष्ट्रभाव की आत्मा है। स्वाधीनता संग्राम के सभी शिखर पुरूष वास्तविक इतिहासबोध से लैस थे। गांधी जी का इतिहास बोध अप्रतिम था। इस इतिहास बोध में सच्चा राष्ट्रबोध है। स्वसंस्कृति और स्वराष्ट्र के प्रति सत्याग्रही आदरभाव है। सो गांधी जी का इतिहास बोध पश्चिम की सभ्यता, सत्ता और संस्कृति पर आक्रामक था। लोकमान्य तिलक का इतिहासबोध ऋग्वेद से लेकर आधुनिक काल तक सतत् प्रवाही सीधी रेखा है। विपिन चन्द्र पाल के इतिहास बोध ने राष्ट्रगौरव बढ़ाया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का इतिहास बोध भारत के साथ साथ विश्व इतिहास की गहन समझ से भी लैस था। सुभाष चन्द्र बोस के इतिहास बोध में भारत एक प्राणवान आर्थिक, राजनीतिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक सत्ता है। यहां मैं नेताजी के इतिहास बोध पर चर्चा करूंगा।
‘द इण्डियन स्ट्रगल’ (1920-42) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की लिखी प्रीतिकर ऐतिहासिक किताब है। पुस्तक का 1920-35 तक का हिस्सा लारेन्स ऐण्ड विशर्ट लंदन ने जनवरी 1935 में छापा था। भारत में इस पर प्रतिबंध लगा। ‘हाउस आफ कामंस’ में भारत मंत्री सेमुअल होर ने सफाई दी “इसकी सामग्री आतंकवाद और सीधी कार्रवाई को प्रोत्साहन देने वाली है। पुस्तक का शेष भाग (1935 से 1942 तक) बाद में लिखा गया था। भारत सरकार के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित नेताजी सम्पूर्ण वाड्.मय के खण्ड 2 में यह पुस्तक संकलित है। नेताजी के मस्तिष्क में भारत क्या था? लिखते हैं, “भौगोलिक दृष्टि से देखें तो लगता है कि भारत शेष संसार से अलग एक स्वायत्त इकाई है। उत्तर में विशाल हिमालय और दोनों ओर महासागरों से घिरा भारत एक स्पष्ट भौगोलिक इकाई होने की बेजोड़ मिसाल है। रक्त या जातीय भिन्नता तो भारत में कभी कोई समस्या रही ही नहीं। इतिहास में वह न जाने कितनी जातियों को आत्मसात करने और उन सब पर अपनी समान संस्कृति और परम्परा की छाप डालने में समर्थ रहा है।
भारत एक सांस्कृतिक सूत्र में बंधा हुआ है। सो क्यों? नेता जी ने लिखा है, “सबको जोड़ने और मिलाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन रहा है हिन्दू धर्म। उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम – आप कही भी जाएं, आपको सर्वत्र समान धार्मिक विचार, समान संस्कृति और समान परम्पराएं मिलेंगी। सभी हिन्दू भारत को अपनी पुण्य भूमि मानते हैं। हिन्दुओं की पवित्र नदियां और पवित्र नगरियां देश-भर में फैली हैं।” (वही) यहां हिन्दू धर्म अंध आस्था नहीं है। धर्म यहां वैचारिकी है। एक समान संस्कृति का प्रेरक है। उन्होंने लिखा, “श्रद्धालु हिन्दू के लिए चारों धामों की तीर्थ-यात्रा तभी पूरी होती है, जब वह दूर दक्षिण में सेतुबन्ध रामेश्वर से लेकर उत्तर में हिममंडित शिखरों वाले हिमराज की गोद में स्थित बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है। जो भी संत-महात्मा देश को अपने पंथ या धार्मिक विचारों की ओर आकृष्ट करना चाहता था, उसे सारे देश का देशाटन करना होता था। उनमें से एक महापुरूष थे शंकराचार्य जो आठवीं शताब्दी में हुए और जिन्होंने भारत के चारों कोनों में चार आश्रम (पीठ) स्थापित किए जो आज तक सुचारु रूप से चले आ रहे हैं।” नेताजी के लिए समूचा भारत एक रीति, एक प्रीति में बंधा हुआ है।
नेताजी आन्दोलनकारी योद्धा थे। वे तत्कालीन स्वातंन्न्य आन्दोलन को सम्यक् इतिहासबोध से जोड़ते हैं “भारत के आधुनिक राजनीतिक आन्दोलन को उचित परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए यहां की पिछली राजनीतिक व्यवस्था पर सरसरी नजर डालना आवश्यक है। भारत की सभ्यता अधिक नहीं तो भी 3000 ई0पू0 से तो आरम्भ होती ही है, और तब से आज तक संस्कृति और सभ्यता की अजस्र् धारा बहती रही है। यह अजस्र धारा भारत के इतिहास की एक बहुत बड़ी विशेषता है।” वे मोएन जोदड़ो और हड़प्पा की खोदाई को उद्धृत करते हैं और लिखते हैं “बहुत नहीं तो भी कम से कम 3000 ई0 पूर्व में ही भारत सभ्यता के ऊंचे शिखर पर था।” नेताजी के अनुसार यूरोपीय इतिहासकार प्राचीन भारतीय इतिहास की उपेक्षा कर रहे थे। नेताजी ने लिखा “भारत का इतिहास दो चार दशकों या सदियों नहीं, बल्कि हजारों वर्ष पुराना है।” नेता जी ने लिखा “आदि वैदिक साहित्य में राजतंत्र से भिन्न प्रकार की शासन प्रणाली का उल्लेख है …… वैदिक समाज या समुदायों में ग्राम सबसे छोटे और जन सबसे ऊंचे सामाजिक संगठन थे।”
नेताजी ने वैदिक साहित्य के तथ्य देकर प्राचीन राजनैतिक प्रणाली के बारे में लिखा, “इस बात के भी प्रमाण हैं कि अत्यन्त प्राचीन काल में भी शासन निर्णयों के लिए लोकप्रिय संसद आयोजित होती थी। वैदिक साहित्य में सभा समितियों के उल्लेख हैं।” वैदिक काल में राजा थे, ऋग्वेद में राजा हैं। वैदिक काल जनतंत्री था। विविध प्रकार की विचारधाराएं थीं, देवोपासक थे, प्रकृति के साधक भी थे। सभा -समितियां ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में हैं। महाभारत में तो कई अध्यायों से मिलकर बने एक बड़े हिस्से का नाम ‘सभा पर्व’ है। नेताजी ने सभा और समिति का विस्तृत वर्णन किया है। लिखा है “इतिहास के वैदिक काल और महाकाव्यों के काल में सत्ता के केन्द्रीकरण की यह प्रवृत्ति प्रबल होती दिखाई पड़ती है। ……….सिकंदर के भारत से लौट जाने पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने 322 ई0पू0 में अपना साम्राज्य स्थापित किया।” नेताजी उपनिषद् काल और वेदान्त दर्शन की प्रशंसा करते हैं और हर्षवर्द्धन (640 ई0) तक राजनीतिक एकता की तारीफ करते हैं।
अधिकांश विचारक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कम्युनिस्ट बताते हैं। नेता जी ने पं0 नेहरू के एक कथन पर टिप्पणी की है। पं0 नेहरू ने 18 दिसम्बर 1933 को सम्वाददाताओं से कहा था “मेरा पक्का विश्वास है कि आज की दुनिया को मूलतः साम्यवाद या फासिस्टवाद में से एक को चुनना होगा? और मैं पूरे दिल से पहले यानी साम्यवाद के पक्ष में हूँ। ………. फासिस्टवाद और साम्यवाद के बीच कोई रास्ता नहीं है। हमें दोनो में से एक को चुनना होगा और मैं साम्यवाद के आदर्श को चुनूंगा।” नेताजी ने अपनी किताब में इस पूरे वक्तव्य को उद्धृत किया है। फिर अपनी टिप्पणी दी है “यहां प्रकट मत बुनियादी तौर पर गलत है ……..यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हमें केवल इन्हीं दो रास्तों में से एक को चुनना है। हीगल, बर्गसन या विकास के अन्य किसी सिद्धांत को मानें, हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि सृजन का अंत आ गया है।” बिल्कुल ठीक कहा है। एक रास्ता हिटलर का है, दूसरा मार्क्स या माओ का। हिटलर के राष्ट्रवाद में मार्क्स 0माओ का रक्तपात है, तानाशाही है। मार्क्स- माओ के समाजवाद में हिटलर का रक्तपात है। हिंसा है और वैसी ही तानाशाही है। दोनों रास्ते गलत हैं। सभी विचारधाराओं का समन्वित आदर्श ही भारत का मार्ग होगा। नेता जी ने लिखा “क्या यह आश्चर्य की बात होगी कि यह समन्वय भारत ही प्रस्तुत करें।”
सुभाष चन्द्र बोस की दृष्टि में भारत स्वयं में एक विचारधारा है। कम्युनिज्म राष्ट्रवाद नहीं मानता। नेताजी ने लिखा, “कम्युनिज्म में राष्ट्रवाद के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है।” नेताजी ने बताया है कि “रूस में कम्युनिज्म का विकास धर्म विरोधी नास्तिकवादी रूप में हुआ है। भारत में कोई संगठित धार्मिक संस्था नहीं रही।” रूस में संगठित चर्च और राज्य व्यवस्था एक थे। भारत में ऐसा नहीं था। नेताजी ने लिखा, “इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या को, जो कि कम्युनिस्ट सिद्धांत का मुख्य बिन्दु है, भारत में वे लोग भी सम्पूर्ण रूप में ग्रहण नहीं कर पाएंगे, जो इसके आर्थिक सिद्धांतों को मानने को तैयार होंगे।” नेताजी ने रूसी साम्यवाद से भारत को आगाह किया “भारत सोवियत रूस का नया संस्करण कभी नहीं बनेगा।” बिल्कुल सही लिखा है। पं0 नेहरू सोवियत रूस से प्रेरित थे। लेकिन सोवियत रूस ही साम्यवाद में बिखर गया। सुभाष चन्द्र बोस की जयंती है। उनकी इतिहास समझ प्रेरक है।
(सुप्रसिद्ध विद्वान- लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)
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