पथनमथिट्टा। धातु के फ्रेम में जड़े अरणमूला शीशे केरल के सदियों पुराने हस्तशिल्प हैं और ब्रिटिश संग्रहालय से लेकर बकिंघम पैलेस तक की शोभा बढ़ा रहे हैं। लेकिन, जीआई संरक्षित अरणमूला शीशा निर्माण की कला जलवायु परिवर्तन के कारण अब संकट में है क्योंकि बदलते मौसम चक्र से, इन शीशों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाली मिट्टी की गुणवत्ता पर असर पड़ा है।
मिट्टी तलाशने में मुश्किलें : बाढ़ तथा भूस्खलन के कारण कारीगरों को शीशा बनाने के लिए मिट्टी तलाशने में मुश्किलें आ रही हैं। अरणमूला शीशे बनाने में इस्तेमाल धातुओं का अनुपात यहां के लोग किसी को नहीं बताते और परंपरागत रूप से अगली पीढ़ी को इस कला में पारंगत किया जाता है।
13 जिलों में मिट्टी की गुणवत्ता में बदलाव
पिछले 20 साल से अरणमूला शीशे बना रहे मनोज एस ने बताया, 2018 की बाढ़ के बाद मिट्टी की गुणवत्ता में बदलाव आया है। पहले हम शीशे की ढलाई के लिए खेतों की ऊपरी मिट्टी लेते थे। अब इसके लिए गहरी खुदाई करनी होगी। केरल मृदा सर्वेक्षण विभाग के मुताबिक बाढ़ के बाद 13 जिलों में मिट्टी की गुणवत्ता में काफी बदलाव आया है। भीषण बारिश की घटनाओं से स्थिति और खराब हो सकती है।
कार्बन उत्सर्जन में 90 फीसदी अमेरिका सहित पांच देशों की हिस्सेदारी
कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से वैश्विक उत्तर के अमेरिका, जर्मनी जैसे विकसित देश वैश्विक दक्षिण के भारत जैसे देशों के कर्जदार हैं। औद्योगिकीकरण के दौरान इन देशों ने अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन किया। इसमें 90 फीसदी हिस्सेदारी इन्हीं देशों की है। इस लिहाज से भारत इन विकसित देशों से 2050 तक प्रतिव्यक्ति 1,446 डॉलर का मुआवजा पाने का हकदार है।
नेचर सस्टैनेबिलिटी पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक, उत्तर के देशों को कार्बन उत्सर्जन के मुआवजे के तौर पर 170 ट्रिलियन डॉलर का भुगतान करना चाहिए। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदारी निर्धारित करने के लिए 168 देशों का विश्लेषण किया और एक साक्ष्य-आधारित मुआवजा तंत्र प्रस्तुत किया है। इस लिहाज से अमेरिका, जर्मनी, रूस, ब्रिटेन और जापान 131 ट्रिलियन डॉलर के कर्जदार हैं, जबकि भारत, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया और चीन 102 ट्रिलियन डॉलर मुआवजे के दावेदार हैं।
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