श्रीगुरुजी पुण्य स्मरण : माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः॥
यह वेदमंत्र जब भी पढ़ने में आया या सुनने में, हर बार इसकी अर्थ ध्वनि लम्बे समय तक उस असीम परमात्मा के बारे में अथवा उस विराट प्रकृति पुरुष के चिंतन में विवश करती है, जिससे यह लोक सृष्टि अपने वर्तमान स्वरूप में नजर आती है। इस मंत्र का अर्थ कुछ इस रूप में देखा भी जा सकता है (विश्वतः-चक्षु) सर्वत्र व्याप्त नेत्र शक्तिवाला-सर्वद्रष्टा (उत) और (विश्वतः-मुखः) सर्वत्र व्याप्त मुख शक्तिवाला सब पदार्थों के ज्ञानकथन की शक्तिवाला (विश्वतः-बाहुः) सर्वत्र व्याप्त भुज शक्तिवाला-सर्वत्र पराक्रमी (उत) और (विश्वतः-पात्) सर्वत्र व्याप्त शक्तिवाला-विभु गतिमान् (एकः-देव) एक ही वह शासक परमात्मा (द्यावाभूमी जनयन्) द्युलोक पृथिवीलोक-समस्त जगत् को उत्पन्न करने हेतु (बाहुभ्याम्) भुजाओं से-बल पराक्रमों से (पतत्रैः) पादशक्तियों से-ताडनशक्तियों से (संधमति) ब्रह्माण्ड को आन्दोलित करता है-हिलाता-झुलाता चलाता है।
वस्तुत: इस मंत्र का जैसा महत्व है, वैसे ही किसी सत्ता, संगठन, समूह या समयानुकूल उत्पन्न आन्दोलनों में संघर्ष की विराटता के बीच प्रकट होता कोई नेतृत्वकर्ता का भी महत्व समाज जीवन में रहता है। भारत जब से इस भू-भाग पर है तब से महापुरुषों की लम्बी श्रंखला है, जिन्होंने भारत का मान बढ़ाया और समय-समय पर अपने आचरण व नेतृत्व से सभी को चमत्कृत भी किया। वास्तव में ऐसा होना स्वभाविक भी है, क्योंकि भा का अर्थ चमक और रत का अर्थ निरत या लगा हुआ अर्थात जो अपनी शोभा को चारों दिशाओं में फैलाने में संलग्न है, वह ”भारत” है।
बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में पैदा हुए माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर भी ऐसे ही एक महापुरुष हैं, जिनका जिक्र यदि आज 21वीं सदी के विश्व में तेज गति से बढ़ते भारत के बीच नहीं किया जाए तो सच में विकास की यह संपूर्ण यात्रा बेमानी होगी। कहने को वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सर संघचालक थे, भारत की प्राचीन संत परम्परा को आत्मसात कर चुके ऐसे एक संन्यासी, जिन्हें मार्क्स और लेनिन का समाजवाद एक पल के लिए भी सहन नहीं कर सकता। कांग्रेस तथा अन्य इसी प्रकार की सोच रखनेवाले तमाम की नजरों से देखें तो ऐसे दक्षिणपंथी हिन्दूवादी और संकीर्ण सोच रखनेवाले वे थे जोकि सिर्फ हिन्दुत्व को ही भारत का आधार मानते रहे। किंतु क्या ये सोच सच है? वस्तुत: यह सोच न केवल सच बल्कि सच के नजदीक भी नहीं है। सही पूछा जाए तो इन संपूर्ण व्यक्तित्व की परिधि से परे विराट पुरुष की तरह भारतीयता के सामाजिक जीवन में वे विराट थे, हैं और रहेंगे।
यह कहना कुछ गलत नहीं होगा कि यदि तत्कालीन समय में त्वरित निर्णय लेकर एक तरफ कश्मीर का विलय भारत में करानेवालों में वे प्रमुख ना होते तो आज कश्मीर भारत का भू-भाग कदापि ना होता । उन्होंने तब जम्मू-कश्मीर के सभी संघ स्वयंसेवकों से कहा कि वे कश्मीर की सुरक्षा के लिए तब तक लड़ने को तैयार रहें, जब तक उनके शरीर में खून की आखिरी बूंद बचे। दूसरी ओर तत्कालीन समय में विभाजित भारत में पीडि़तों की सेवा करने के लिए कई प्रेरणा पुंज खड़े करने के साथ वे समाज जीवन के विविध पक्षों से जुड़े सेवा के संगठन खड़े करते रहे। इसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि आजादी के बाद जो पाकिस्तान के पीड़ित बहुसंख्यक हिन्दू-सिख विभाजित भारत में आए या नए भारत के पुनर्निमाण में जो ऊर्जा लगी, जिसके प्रभाव से आज का वर्तमान भारत प्रदीप्तमान है, वह हमारे सामने दृष्यमान बिल्कुल नहीं होता । यह उनके कार्य और दूरदृष्टि का ही प्रभाव है कि आज राष्ट्रवादियों की सत्ता केंद्र में एवं देश के कई राज्यों में प्रत्यक्ष है।
जैसा कि वर्तमान संघ के सर संघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि संघ कुछ नहीं करता स्वयंसेवक सबकुछ करता है। वैसे ही श्रीगुरूजी का मंत्र था, सभी कुछ भारत के लिए। भारत का वैभव ही हमारा वैभव है और भारत का दुख हमारा दुख। उनका दिया हुआ मंत्र है, “राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” । सभी कुछ राष्ट्र का, पल-पल जीवन समर्पित अपनी जन्मभूमि को है। राष्ट्रीय विचार के साथ संघ में कार्य करने का उन्हें 33 वर्षों का समय मिला। संघ के संस्थापक हेडगेवारजी के बाद श्री गुरुजी के सरसंघचालक बनने के बाद वे इस दायित्व को 5 जून 1973 तक पूर्ण करते रहे। ये 33 वर्ष ही हैं जिसमें संघ और राष्ट्र के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण बदलाव होते दिखते हैं।
1942 का भारत छोडो आंदोलन, 1947 में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात हो या हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्थान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण, 1948 की 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ पर प्रतिबन्ध का लगना हो, अथवा भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नितियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, 1962 में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, 1965 में भारत-पाक युद्ध, 1971 में भारत व पाकिस्तान के बीच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म ही क्यों ना रहा हो। ये सभी महत्वपूर्ण घटनाएं जहां एक ओर भारत के सामने कई चुनौतियां लेकर आईं तो वहीं गुरुजी के सफल नेतृत्व में रास्वसंघ कदम-कदम सधी चाल से निरंतर अपने स्वयंसेवकों के सामर्थ्य के दम समाज जीवन के विविध आयामों में अपनी पैठ बनाने एवं राष्ट्र को मजबूती प्रदान करने में सफल रहा।
इतिहास को देखें तो 16 सितम्बर, 1947 को महात्मा गांधी ने स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए कहा ”बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार जीवित थे। स्व. जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ था। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्मत्याग से प्रेरित है उसकी ताकत बढ़ती ही है। संघ एक सुसंगठित एवं अनुशासित संस्था है।” वस्तुत: सन् 1925 संघ स्थापना से लेकर वर्तमान समय तक ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिन्हें सुनकर या पढ़कर लगता है कि संघ नहीं होता तो क्या होता? बड़ी से बड़ी कठिनाईं और घटना के वक्त जैसा स्वयंसेवकों ने परिश्रम और धैर्य दिखाया है, उस पर यदि हजारों पुस्तकें भी लिख दी जाएं तो वे भी आज कम पढ़ेंगी ।
जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि श्रीगुरुजी कट्टर हिन्दुत्व को मानने वाले थे, उन्हें अवश्य इतिहास और उस समय के श्रीगुरुजी के दिए भाषणों का अध्ययन करना चाहिए, जिसमें उनके इस व्यक्तित्व का पता बहुत ही साफ ढंग से हो जाता है, वस्तुत: यह एक अकाट्स सत्य है कि गुरु गोलवलकर ने वीर सावरकर और स्वामी करपात्री महाराज का हिंदुत्व खारिज कर दिया था। सावरकरजी की हिंदू महासभा भारत विभाजन को मान्यता देती थी। उनका राष्ट्रवाद पश्चिमी राष्ट्रवाद पर टिका था। वहीं, करपात्री पंथ की अस्मिता को ही पूरे राष्ट्र की अस्मिता मान बैठे थे। लेकिन इन दोनों के विपरीत श्रीगुरुजी का स्पष्ट मत रहा कि राष्ट्र में पंथ, मत, सम्प्रदाय अनेक हो सकते हैं, किंतु आवश्यक यह है कि वे अपना सर्वस्व राष्ट्र की वेदी पर न्योछावर करने के लिए तैयार हैं या नहीं । जिनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है, वे राष्ट्र के और राष्ट्र उनके लिए है, फिर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस भाषा, भूषा, धर्म, पंथ या संप्रदाय के हैं।
वास्तव में संघ का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज को संगठित कर हिन्दू जीवन दर्शन के प्रकाश में भारत का सर्वांगीण विकास करना है। यहां रहने वाले मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में संघ की सोच और समझ क्या है वह 30 जनवरी, 1971 को प्रसिद्ध पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी और गुरुजी गोलवलकर से कोलकाता में हुए वार्तालाप, जिसका प्रकाशन 1972 में हुआ, से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।
देश में आज अनेक संगठन यथा-विश्व हिंदू परिषद्, हिन्दुस्थान समाचार, भारतीय मजदूर संघ, किसान संघ, विद्या भारती, भारत विकास परिषद, सेवा भारती, इतिहास संकलन, कीड़ा भारती विद्यार्थी परिषद्, अधिवक्ता परिषद ग्राहक पंचायत, संस्कार भारती, भारतीय जनता पार्टी, लघु उद्योग भारती, आरोग्य भारती, नेशनल मेडिकोज एसोसिएशन, संस्कृत भारती, प्रज्ञा भारती, विज्ञान भारती राष्ट्र सेविका समिति, राष्ट्रीय सम्पादक परिषद, भारत प्रकाशन, हिंदू स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय शिक्षण मण्डल, वनवासी कल्याण आश्रम, स्वदेशी जागरण मंच, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, भारतीय विचार केन्द्र, राष्ट्रीय सिख संगत , विवेकानन्द केन्द्र, पूर्व सैनिक सेवा परिषद, शैक्षिक महासंघ, वित्त सलाहकार परिषद्, सहकार भारती,सामाजिक समरसता मंच, हिन्दू जागरण अखिल भारतीय साहित्य परिषद् जैसे राष्ट्रीय जन संगठन हैं, जिनकी स्थापना के पीछे श्रीगुरुजी की सोच है।
आज जब आप इन सभी संगठनों के कार्य का विचार करते हैं तो समझ आता है कि भारत के परम वैभव तक की निरंतर की यात्रा में इनका योगदान कितना अहम है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि आरएसएस की मूल भावना इसके सभी संगठनों में हो और सभी एक ही उद्देश्य को लेकर चलें। यह है मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण और प्रेम। हमें यह स्वीकार्य करने में भी गुरैज नहीं होना चाहिए कि वर्तमान मोदी सरकार यदि केंद्र में आज है और विश्व में भारत दिनों दिन शक्ति सम्पन्न हो रहा है तो वह इन सभी संगठनों की राष्ट्रीयता को समर्पित जीवन का ही प्रत्यक्ष परिणाम है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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