– ऋतुपर्ण दवे
भारतीय अर्थव्यवस्था सदी के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। इसको लेकर चिन्ताएं स्वाभाविक है। वैश्विक महामारी के बीच तमाम विकसित देशों का यही हाल हुआ है। इसका मतलब यह नहीं कि जो दुनिया का हाल है वही हमारा रहे और चुप बैठ जाएं। अचानक आई इस आपदा से निपटने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन हालात और कोशिशों के बीच का फर्क अर्थशास्त्र की डिमाण्ड और सप्लाई के सिध्दांत की याद दिलाता है। जब सारी गतिविधियां तालाबन्दी के चलते ठप पड़ जाए तो फिर रोजगार, अर्थव्यवस्था और जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) यानी सकल घरेलू उत्पाद में वृध्दि की बात बेमानी हो जाती है। यही भारत में हुआ।
जीडीपी यानी देशभर में कुल मिलाकर जितना कुछ बन रहा है, बिक रहा है, खरीदा-बेचा जा रहा यानी लिया-दिया जा रहा है उसका जोड़ है जीडीपी। जाहिर है इसमें वृध्दि देश की तरक्की का पैमाना है। यह अलग-अलग सेक्टरों में कहीं कम कहीं ज्यादा होता है लेकिन कुल मिलाकर जीडीपी जितनी बढ़ेगी देश की आर्थिक मजबूती व दुनिया में अपनी खास जगह बनाने के लिए बेहतर होगी। ज्यादा जीडीपी से सरकार को ज्यादा टैक्स मिलेगा, ज्यादा कमाई होगी। लेकिन, जब यही थम जाएगी तो सारा आर्थिक तंत्र चरमराना स्वाभाविक है। भारत में यही हुआ।
हमारी अर्थव्यवस्था 40 साल के सबसे बुरे दौर में है। अप्रैल से जून की पहली तिमाही में जीडीपी बढ़ने के बजाए माइनस 24 प्रतिशत लुढ़क गई जो बहुत चिन्ताजनक है। जो स्थिति दिख रही है उसमें अगली तिमाही यानी जुलाई से सितंबर के बीच भी हालात यही रहेंगे क्योंकि इस अवधि के दो महीने से ज्यादा का वक्त बुरे हाल में बीत चुका है और हालात सामने हैं। यह पहला मौका जरूर है जब अर्थव्यवस्था पर मंदी का साया कमजोर मानसून, सूखा या अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में वृध्दि से न आकर महामारी से आया। ऐसा आया कि सारी कारोबारी गतिविधियां ठप करनी पड़ गईं। ये स्वाभाविक भी था कि जो नतीजा तय था वही आया।
स्वतंत्रता के बाद से 1980 तक ऐसे पाँच मौके देश ने देखे हैं। इसमें सबसे बुरा दौर 1979-80 का था जब यह 5.2 प्रतिशत की गिरावट थी। लेकिन बाद की दो आर्थिक मंदी और भी जबरदस्त थी जो वर्ष 1991 और 2008 की है। हालांकि 1991 की मंदी के पीछे आंतरिक कारण थे लेकिन 2008 में वैश्विक मंदी ने प्रभावित किया। 1991 में हमारे सामने भुगतान संकट था। आयात में भारी गिरावट आई और देश दोतरफा घाटे में चला गया। व्यापार संतुलन गड़बड़ा गया, सरकार बड़े राजकोषीय घाटे में थी। खाड़ी युद्ध में 1990 के अंत तक स्थिति इतनी बिगड़ी कि भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार केवल तीन हफ्तों के आयात लायक बचा था। सरकार कर्ज चुकाने में असमर्थ थी। नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की सरकार बजट तक नहीं पेश कर पाई और सरकार को भुगतान पर चूक से बचने के लिए सोना गिरवी रखना पड़ा था। रुपये की कीमत तेजी से घटी और चालू खाते का घाटा बढ़ता चला गया। निवेशकों के भारत के प्रति घटते भरोसे से रुपये की विनिमय दर में कमी आई।
2008 की मंदी के दौर में दुनिया के साथ व्यापार काफी घटा और आर्थिक तरक्की घटकर 6 फीसदी से नीचे चली गई। 2008 की मंदी को वैश्विक कारण माना गया था। हालांकि अर्थव्यवस्था ने जल्द ही गति भी पकड़ ली लेकिन मौजूदा मंदी को लेकर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह आर्थिक नरमी करीब दो साल पहले से बनी हुई है और जल्द दूर होने के संकेत नहीं मिल रहे हैं।
जीडीपी अभी माइनस 23.9 प्रतिशत पर है। इससे उबरने के लिए पहले तो माइनस से शून्य पर आना पड़ेगा और फिर शून्य से आगे का सफर शुरू होगा। निश्चित रूप से भारत की जीडीपी में अनुमान से बहुत ज्यादा ऐतिहासिक गिरावट हुई जो कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए लगे सख्त लॉकडाउन के चलते हुआ। करीब 14 करोड़ नौकरियां चली गईं। गिरावट तय थी क्योंकि हमारा लॉकडाउन दुनिया में सबसे सख्त था जिसकी कीमत अच्छी खासी चुकाई जो मौजूदा आंकड़ा बताता है।
सच यह है कि तब भी कोई विकल्प नहीं था और न अब कोई विकल्प है। तब कोरोना वायरस न फैले इस पर फोकस था और अब भारत में ही दिन-प्रतिदिन बनते विश्व रिकॉर्ड मुसीबत बने हुए हैं। एक दिन में 80 से 90 हजार संक्रमितों के मिलने से अर्थव्यवस्था पर भारी कोरोना की जंग जल्द थमती नहीं दिखती। लेखा महानियंत्रक द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि हमारा राजकोषीय घाटा अप्रैल-जुलाई की अवधि में ही पूरे साल के बजट अनुमानों के 103 प्रतिशत तक पहुंच गया है। जिससे अर्थव्यवस्था पर महामारी का नकारात्मक प्रभाव दिखा। इससे राजस्व संग्रह भी जबरदस्त घटा और टैक्स कलेक्शन में इस साल अकेले अप्रैल-जुलाई की अवधि में पिछले साल के मुकाबले 42 प्रतिशत की कमी आ गई।
दरअसल जीडीपी के आंकड़ों को आठ अलग-अलग सेक्टरों से इकट्ठा किया जाता है। इनमें कृषि, मैन्युफैक्चरिंग, इलेक्ट्रिसिटी, माइनिंग, क्वैरीइंग, गैस सप्लाई, होटल, कंस्ट्रक्शन, ट्रेड और कम्युनिकेशन, वानिकी और मत्स्य, फाइनेंसिंग, रियल एस्टेट और इंश्योरेंस, बिजनेस सर्विसेज और कम्युनिटी, सोशल और सार्वजनिक सेवाएँ शामिल हैं। कृषि सेक्टर को छोड़ जहां 3.4 प्रतिशत की वृध्दि दर्ज की गई, हर कहीं गिरावट और कहीं-कहीं जबरदस्त गिरावट दिखी। सारे के सारे सेक्टर कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े या संबंधित हैं। जैसे कारखानों में ताला लगने से बिजली की खपत कम हुई और सप्लाई नहीं होने से ट्रांसपोर्ट, कम्युनिकेशन, इंश्योरेनस प्रभावित हुआ। सीमेण्ट से निर्माण सेक्टर, सार्वजनिक यातायात से टूरिज्म और होटल व्यवसाय यानी कुल मिलाकर पूरी की पूरी व्यावसायिक चेन ही ठप हो गई। हर तरह के कारोबार रुक से गए और इस तरह औसतन 40 से 50 प्रतिशत के बीच गिरावट आ गई।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इस गिरावट के लिए अकेले महामारी या तालाबन्दी को ही जिम्मेदार ठहराया जाए। सच तो यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था बीते कुछ वर्षों से लगातार सुस्ती के दौर में थी। इसी बीच कोरोना महामारी से उत्पन्न हालातों ने आग में घी का काम कर दिया। नतीजा जीडीपी के आंकडों ने बजाए उछाल के माइनस का ऐसा गोता लगाया कि अर्थव्यवस्था की चूलें हिल गईं। अप्रैल से जून यानी मोटे तौर पर महज 70 से 90 दिनों के गतिरोध ने अर्थव्यवस्था के हालातों को बद से बदतर कर दिया। लॉकडाउन के दौरान खाने-पीने की चीज़ों और आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई को छोड़कर बाकी सभी आर्थिक गतिविधियाँ ठप रहीं।
दुनिया पर नजर डालें तो सिवाय चीन के अमेरिका, जापान समेत कई देशों की जीडीपी अब भी माइनस में है। जबकि साल के शुरू में चीन में भी 6.8 प्रतिशत की गिरावट थी। जिसे दूसरी ही तिमाही में उसने सुधार कर 3.2 प्रतिशत पर ले आया। वहीं इसी दौरान अमेरिका में 32.9, यूनाइटेड किंगडम में 20.4, इटली में 12.4,फ्रान्स में 13.8, कनाडा में 12, जर्मनी में 10.1, जापान में 7.8 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली। यहां भी चीन की चालाकी दिखी। सिवाय वुहान के चीन ने अपनी पूरी व्यापारिक गतिविधियां चालू रखीं। जबकि पूरी दुनिया लॉकडाउन की ओर बढ़ रही थी। वैश्विक महामारी के बीच चीन की ऐसी चालाकी से अक्सर दुनिया के सामने युध्द का खतरा भी दिखने लगता है।
एक ओर अमेरिका दुनिया का दारोगा बनना चाहता है तो चीन सेठ। ऐसे में दोनों के बीच की होड़ में बाकी दुनिया फंसकर रह जाती है। कोई अपना सामान बेचना चाहता है तो कोई युध्द का भय दिखा हथियारों की आड़ में कारोबार कर रहा है। मकसद दोनों के एक हैं। ऐसी दशा में भारत को आपदा में अवसर ढ़ूढ़ना ही होगा ताकि कोरोना के संग जीकर भी दुनिया में अपनी धमक और चमक बनाए रखे। इस बरस न सही अगले कुछ बरसों में 5 ट्रिलियन की इकॉनामी का प्रधानमंत्री का सपना पूरा हो सके।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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