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    भारतीय वेद और विश्व शांति की प्रार्थना

  • July 18, 2023

    – हृदयनारायण दीक्षित

    भारत अव्याख्येय है। राष्ट्र रूप में भारत की व्याख्या कठिन है। यह सामान्य राष्ट्र राज्य नहीं है। भूमि का साधारण खण्ड नहीं है। सामान्य इतिहास या भूगोल नहीं है। इस धरती के लोग सदियों से व्यक्तिगत हित की तुलना में विश्व लोकमंगल की आराधना में संलग्न रहे हैं। भारत की अनुभूति संसार में अद्वितीय है। यह एक प्रेमपूर्ण गीत है। हम सब के अंतस का छंदस है भारत। भारत और भारतीय संस्कृति विश्व के विद्वानों के लिए शोध का विषय रहे हैं। ऋग्वेद में एक सुंदर मंत्र में भारत बोध की झांकी है, ‘हे सोम देव जहां सदा नीरा नदियां बहती हैं। प्रचुर अन्न होता है। कृषि धन धान्य देती है। जहां मुद, मोद, प्रमोद विस्तृत हैं। हम उसी भूखंड में आनंदित रहना चाहते हैं।’

    संविधान की उद्देशिका ‘हम भारत के लोग’ वाक्य से प्रारम्भ होती है। उद्देशिका के 4 शब्द महत्वपूर्ण है। हम भारत के लोगों की राष्ट्रीय संरचना का आधार जाति, पंथ, मत, मजहब नहीं है। ऐसा होता तो संविधान निर्माता उद्देशिका में दर्ज करते कि, ‘हम भारत के अगड़े, पिछड़े जाति और पंथ से जुड़े लोग संविधान बनाते हैं।’ वैदिक काल की सबसे छोटी, सुसंगठित और प्रीतिपूर्ण इकाई परिवार है। गण कई परिवारों से मिलकर बने समूह हैं। गण महत्वपूर्ण है। सभी गणों में परस्पर सम्बंध थे। राष्ट्रगान में जन के साथ गण हैं। गण नाम के इस छोटे से समूह नेता गणपति कहा जाता था। जैसे गण का नेता गणपति होता था वैसे ही गण का आराध्य देवता गणेश। गणेश गण और ईश से मिलकर बना शब्द है। बृहस्पति के लिए ऋग्वेद में स्तुति है – गणानां त्वा गणपतिं – आप विद्वान हैं। गणपति हैं। गण परस्पर प्रीति और प्यार में साधनारत एक सामूहिक इकाई थी।


    वैदिक इतिहास में अनेक गण हैं। देवताओं के समूह भी गण हैं। जैसे मरुदगण, रूद्रगण आदि। सांस्कृतिक व आर्थिक कारणों से गण टूट कर जन नाम की बड़ी इकाई में बदल गए। तब अनेक जन थे। लेकिन पांच जनों की चर्चा ज्यादा है। ये पंचजन अनु, द्रुह्यु , यदु, तुर्वश और पुरु थे। सरस्वती वैदिक काल की प्रसिद्ध नदी हैं। उनसे स्तुति है कि आप पांच जनों को समृद्धि देती हैं। जन गण से बड़े जनसमूह थे। इनका उल्लेख वैदिक साहित्य में विद्यमान है। भारतीय संस्कृति उदात्त और विश्ववरेण्य है। इस संस्कृति के प्रति दुनिया के तमाम देशों का आदर भाव रहा है और आज भी है। वैदिक ऋषियों का संकल्प ध्यान देने योग्य है। कहते हैं, ‘कृण्वंतों विश्वं आर्यं – हम विश्व को आर्य बनाना चाहते हैं। हम किसी भी राष्ट्र राज्य पर आक्रमण के इच्छुक नहीं हैं।’ भरतीय इतिहास में किसी दूसरे देश को जीतने की इच्छा नहीं मिलती।

    हाल ही में विश्व मुस्लिम लीग के प्रमुख मोहम्मद बिन अब्दुल करीम अल ईसा भारत आए थे। इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में आयोजित कार्यक्रम में अल ईसा ने भारत के ज्ञान और संविधान की प्रशंसा की है। विश्व मुस्लिम लीग दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम संगठनों में गिना जाता है। इसके प्रमुख अल ईसा ने भारत को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का सुंदर उदाहरण बताया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अल ईसा से भारत और सऊदी अरब के बीच साझेदारी को गहरा करने पर विचारों के आदान प्रदान की बातें कीं। उन्होंने अल ईसा के साथ हुई बैठक का जिक्र करते हुए कहा कि हमने अंतरधार्मिक वार्ता को आगे बढ़ाने, चरमपंथी विचारधाराओं का मुकाबला करने व वैश्विक शांति को बढ़ावा देने पर बातचीत की।

    अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति की चर्चा होती है। होनी भी चाहिए। तमाम कारणों से विश्व तनाव में है। इसका एक कारण मजहबी कट्टरपंथ भी है। पंथिक मजहबी समूहों का सहअस्तित्व बड़ा कठिन होता है। गांधी जी स्वाधीनता के पहले से ही हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा स्थापित करने के लिए सक्रिय थे। बहुसंख्यक समाज के सामने सहअस्तित्व को लेकर कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन कट्टरपंथी मजहबी तत्वों को सहअस्तित्व की यह धारणा अच्छी नहीं लगी। गांधी जी ने स्वीकार किया कि हिन्दू-मुस्लिम एकता व सहअस्तित्व के प्रश्न पर उन्होंने हार मान ली है। अल ईसा ने सारी दुनिया से अपील की कि शांति के सम्बंध में भारत से सीखना चाहिए। उनका वक्तव्य आदर योग्य है। भारतीय ज्ञान ने दुनिया को प्रभावित किया है। विश्व शांति और लोकमंगल भारतीय राष्ट्र राज्य के ध्येय रहे हैं।

    भारतीय समाज में गजब की विविधता है। अनेक जातियां हैं। अनेक विश्वास हैं। विविधता स्वाभाविक है। लेकिन तमाम विविधताओं के बावजूद भारत में सभी विचारधाराओं और विश्वासों का सहअस्तित्व रहा है। सभी विचारधाराओं के बीच संवाद रहा है। आज भी है। भारतीय समाज के चिंतकों, विद्वानों और वैदिक काल के ऋषियों ने शांति की उपासना की है। ऋग्वेद में विश्व शांति की प्रार्थना है और यह भारतवासियों की शांति की प्यास को सुंदर अभिव्यक्ति देती है। शांति मंत्र में कहते हैं, ‘अंतरिक्ष शांत हों। पृथ्वी शांत हों। आकाश शांत हों। शांति भी शांत हों।’ यहां केवल मनुष्यों के बीच परस्पर सद्भाव वाली शांति की ही बात नहीं है। यहां पृथ्वी से लेकर आकाश तक शांति स्थापित होने की प्रार्थना है। शांति अशांति की अनुपस्थिति नहीं है। शांति मौलिक रूप में मानव मन की प्राकृतिक प्यास है।

    अशांत चित्त से सृजन संभव नहीं होते। अशांत चित्त विध्वंसक होता है और शांत चित्त सर्जक। अल ईसा ने संवाद शांति और भाईचारा के लिए भारत की प्रशंसा उचित ही की है। जन गण का सामूहिक मन स्वाभाविक होता है। वह सामूहिक होकर ही समाज को आनंद देता है। मन चंचल होता है। मन की गलती को मनमानी कहते हैं। वैदिक पूर्वज मन की चंचलता को लेकर सजग थे। यजुर्वेद में मन को प्रशांत और लोक कल्याण से जोड़ने सम्बंधी 6 मंत्र एक साथ आए हैं। इसे शिव संकल्प सूक्त कहते हैं। ऋषि कहते हैं, ‘हमारा मन कभी पर्वत की ओर कभी आकाश की ओर जाता है। कभी इस नगर में कभी उस नगर में जाता है। हे देवताओं उस मन को शिव संकल्प से भर दो।’ शिव संकल्प वस्तुतः मन को लोक कल्याण की भावना से भरने का नाम है।

    सम्प्रति दुनिया के तमाम देशों की सीमाएं रक्तरंजित हैं। यूक्रेन और रूस के मध्य जारी युद्ध से धरती-आकाश तनावग्रस्त हैं। आतंकवादी मजहब के नाम पर लोगों को मार रहे हैं। बच्चे और महिलाएं भी मारी जा रही हैं। कहते हैं, ‘हमारा बेचैन मन कभी यहां कभी वहां हमको विषाद की दशा में ले जाता है। हे देवताओं हमारा मन शिव संकल्प से भरो – तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु।’ पूर्वजों ने सारी दुनिया को आनंदित करने के लिए लगातार चिंतन किया था। ऋग्वेद का अंतिम सूक्त ध्यान देने योग्य है। अग्नि से प्रार्थना है कि, ‘हमारे मन संकल्प एक ध्येय हों। मन समान हों। सभा और समितियां भी समान हों। सब लोग साथ साथ चलें। साथ साथ प्रेमपूर्ण वार्ता करें। सबके चित्त एक समान हों। सबका समान मन चित्त समान हो। हम लोकमंगल के लिए काम करें।’ अंत में कहते हैं, ‘सं वो मनासि जानतां। ऐसा ही तप और कार्य हमारे पूर्वज करते आए हैं – देवानां यथा पूर्वे सं जानां उपासते।’

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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