– हृदयनारायण दीक्षित
एक संसार प्रत्यक्ष है। यह सबको दिखाई पड़ता है। दूरी की बात अलग है। दूरी के अनुपात में सभी वस्तुएँ किसी-न-किसी रूप में दिखाई पड़ती हैं। भारतीय चिंतन में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म और अस्तित्व पर्यायवाची हैं। हम प्रत्यक्ष अस्तित्व का बड़ा भाग देख लेते हैं। उससे भी बड़े भाग को नहीं देख पाते हैं। पूर्वजों ने ज्ञान बढ़ाने के लिए वस्तुओं, पशुओं, पक्षियों, नदियों, पर्वतों सहित प्रकृति के अधिकांश रूपों के नाम रख दिए हैं। प्रत्येक रूप का एक नाम भी है। इस तरह संसार में जितने रूप हैं उतने नाम। हम इसे शब्द संसार कह सकते हैं। शब्द अपने मूल रूप में ध्वनि संयोजन है। रूप अपने मूल अर्थ में प्राकृतिक संसार की इकाई है। जीवन में सतत् कर्म करने के लिए रूप और नाम दोनों की महत्ता है।
संसार में करोड़ों शब्द हैं। भाषाओं के आधार पर गिनने में शब्दों की संख्या और बढ़ जाती है। सभी नाम रूपों के प्रतिनिधि हैं। अस्तित्व प्रकाश और ध्वनि जैसी करोड़ों तरंगों से भरा पूरा है। आकाश भी सूना नहीं है। रोज उड़ते हवाई जहाजों ने आकाश को भी अशान्त बना रखा है। अस्तित्व में शब्द और ध्वनि की मात्रा बढ़ी है। शब्द-शब्द प्रतिशब्द कोलाहल है। पूर्वज वाक् संयम पर जोर देते थे। एक-एक महीने के मौनवृत होते थे। विश्व सार्वजनिक जीवन के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने अनेक बार मौनवृत की शक्ति के सहारे अनुकूल निर्णय प्राप्त करने में सफलता पाई।
शब्द संयम में बड़ी ऊर्जा है। शब्द संघान उचित बिन्दु पर अपना अर्थ प्रकट करता है। शब्द का एक गर्भ भी होता है। इस गर्भ के भीतर शब्द का अर्थ छुपा होता है। शब्द का अर्थ प्राप्त करना मनीषी का कर्तव्य है। कई बार सुशिक्षित अनुवादक भी शब्दों का सही अर्थ नहीं निकाल पाते। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त में कहा है कि विद्वान शब्द का अर्थ आसानी से निकाल लेते हैं।
संसार करोड़ों शब्दों से भरा-पूरा है। शब्द गतिशील है। सभी दिशाओं से शब्द आ रहे हैं। शब्दों की भीड़ है। भारतीय चिंतन में आकाश का गुण शब्द कहा गया है। यह बात उचित भी है। शब्द ध्वनि ऊर्जा है। शब्दों के संयोजन और विकास से मंत्र बनते हैं। मंत्रों की प्रभाव शक्ति का वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विद्वान भी स्वीकार करते हैं। हम सब आनंद चाहते हैं। आनंद आदिम अभिलाषा है। वैदिक समाज आनंदी था। वैदिक ऋषियों ने आनंद के ढेर सारे स्रोत और उपकरण खोज लिए थे। यहां वाणी भी आनंद का स्रोत है। मधुर बोलना और सुनना आनंददायी है।
तमाम खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट होते है, मधु, दुग्ध और घी ऐसे ही है लेकिन ऋषि अनुभूति में वाणी भी स्वादिष्ट है “उच्यते वचः स्वादोः स्वादीयः। (1.114.6) वाणी भी मधुरसा है। माधुर्य आनंददाता है। मानवता हितैषी भी है। मन माधुर्य आनंद का स्रोत है। आनंद के प्रतिष्ठित देवता हैं सोम। ‘सोम’ वैसे भी आनंदवर्द्धक पेय हैं। लेकिन काव्यसर्जन में वह रचनाशीलता का आनंद है। दर्शन और प्रगाढ़ भाव में वह आनंददाता हैं। बताते हैं कि “यह सोम आनन्द को जन्म देने वाला है – सोमेन आनन्दं जनयन्।” सोम की स्तुति है “हे सोम! आप वरूण को आनंदित करते हैं इन्द्र को आनंद देते है, मरूतों को, विष्णु को और सभी देवों को आनंदित करते हैं।” आनंद वैदिक समाज की प्रकृति है। एक मन्त्र में ‘आनन्द, मुद, मोद, प्रमोद’ चार शब्दों का प्रयोग है। यह आनंद आखिरकार है क्या?
तैत्तिरीय उपनिषद् में रस आनंद की गहरी मीमांसा है। इसे खोजने की जरूरत नहीं। ऋषि बिना लाग लपेट के सीधे कहते हैं, “सैषा आनंद मीमांसा – अब उस आनंद की मीमांसा करते हैं।” कोई पूछे कि आप आनंद का विवेचन क्यों करते हो? तो उत्तर सुस्पष्ट है कि रस और आनंद ही सभी प्राणियों की गहन अभीप्सा है। यहां मोक्ष या मुक्ति की प्यास नहीं। आनंद ही हमारा गोत्र है और आनंद से ही हमारा विस्तार। रूप आनंद संवेदन जगाते हैं। रस आनंद हमारे व्यक्तित्व के अणु परमाणु को मधुमय अनुभूति देता है। पूर्वजों की आनंदानुभूति का परिणाम निर्भयता है। तब भूत भविष्य की चिन्ता नहीं होती। आनंद समय का अतिक्रमण करता है। वाणी का रस सामूहिकता में फैलता है। वाणी का क्षीर सागर धरती से परम व्योम तक मधुरसा है। इसी क्षीर सागर में कमलासन पर विष्णु उगते हैं और श्री समृद्धि उनके पैर दबाती हैं। अभय और निर्भय होने का अनन्त है यहां। सांपो की शैय्या लेकिन विष्णु शान्ताकार-शान्ताकारं भुजगशयनं। तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ठीक ही कहते हैं “आनंद संपूर्णता को जानने वाला किसी से भी नहीं डरता।”
शंकराचार्य ने तैत्तिरीयोपनिषद् के भाष्य (गीता प्रेस गोरखपुर, ईशादिनौउपनिषद पृष्ठ 979) में लिखा है “आनंद विद्या और कर्म का फल है – आनंद इति विद्याकर्मणोः फलं। …….. विद्या और कर्म भी प्रिय आदि के लिए ही हैं ….. प्रिय पदार्थ की प्राप्ति से होने वाला हर्ष ‘मोद’ कहलाता है, वही हर्ष प्रकट होने पर प्रमोद कहा जाता है।” तैत्तिरीय उपनिषद पढ़ना मधुरसा आस्वाद है। यहां ऋग्वेद की आनंदवर्द्धन अभिलाषा का विस्तार है। कहते हैं, “चेतन से आकाश पैदा हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियाँ, औषधियों से अन्न और अन्न से पुरुष पैदा हुआ। यह पुरुष अन्नमय है।” यहां सृष्टि का विकासवादी सिद्धांत है। फिर कहते हैं “अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है। वह अन्न से जीवित रहती है, अन्न में लीन होती है। अन्न प्राणियों का ज्येष्ठ है – अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्। फिर कहते हैं कि “अन्नमय शरीर के भीतर प्राणमय शरीर है।”
शब्द अराजकता से संवाद की शक्ति घटी है। सूचना और ज्ञान में भारी अंतर है। सूचना अल्पकालिक सत्य है। आग लगना, बाढ़ आना, दुर्घटनाग्रस्त होना ऐसी सारी बातें सूचना है। सृष्टि की गतिविधि का अध्ययन करना ज्ञान है और इसका जन्म और विकास जिज्ञासा से होता है। सोशल मीडिया के संवाद भारतीय शील का उल्लंघन करते हैं। शब्द और शब्द की भिड़ंत सुखद परिणाम नहीं देती है। भिड़ंत वाले शब्द अपशब्द हो जाते हैं। शब्द का सदुपयोग लोकमंगल का उद्देश्य है। ऋग्वेद के ऋषि ने एक मंत्र में लोकमंगल की अभिलाषा व्यक्त की है कि ‘‘सर्वत्र मधुरता हो, पृथ्वी की रजकण मधुर हो, हम कठोर बात भी मधुरता के साथ कहें।‘‘ यहाँ अथर्ववेद की यह बात ध्यान देने योग्य है कि कठोर बात भी मधुरता के साथ ही कही जानी चाहिए। वाद-विवाद, संवाद, साहित्य और लेखन सबका उद्देश्य मनुष्य को माधुर्य से भरना है। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने कहा है कि पृथ्वी सभी तत्वों का मधु है और सभी तत्व से पृथ्वी के मधु है, लेकिन यह मनुष्य सभी भूतों का मधु है। मनुष्य को आनंदित बनाने के काम में भाषा, वाणी, शब्द प्रयोग की विशिष्ट भूमिका है। इसलिए भाषा संयम पर लगातार ध्यान देना जरूरी है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)
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