– अरुण कुमार दीक्षित
भारतीय राजनीति में जाति की बड़ी अहमियत है। हालांकि अधिकांश महापुरुष जाति विहीन भारत के निर्माण के पक्ष में थे। वे जातिवाद को बेहद खतरनाक मानते थे और कई मौकों पर यह बात उन्होंने कही भी। जाति तोड़ो अभियानों में वे निरंतर जुटे रहे लेकिन जाति की जड़ों को हिला नहीं पाए। इसकी वजह यह रही कि उस समय जातियों का उभार तत्कालीन राजनीति कर रही थी। धीरे-धीरे यह जातीय उभार राजनीतिक गुटों, गिरोहों और वर्गों की शक्ल लेता गया और गांधी, लोहिया तथा अंबेडकर के सपने धराशायी हो गए।
आज भारत की राजनीति में जाति सम्मेलनों की बहुलता बढ़ी है। वर्गों का आधिपत्य बढ़ा है । सभी जातियों-वर्गों के अपने नेता हैं । वह जातीय सम्मेलन करते हैं। सत्तारूढ़ दलों के नेता भी अपने स्तर पर जातीय उभार को मजबूती देते हैं। राजनीति दलों के बॉयलॉज की बात करें तो उसमें एक बात समान होती है कि राजनीतिक दल सर्व समाज के लिए बिना किसी भेदभाव के समान अवसर उपलब्ध कराने के काम करेंगे। जाति नहीं देखेंगे। चुनाव में जाति की बात नहीं करेंगे, मगर विधानसभाओं, विधान परिषद, राज्यसभा के चुनाव में जाति वर्ग के कई चरण मंथन- चिंतन की जातीय इंजीनियरिंग को प्राथमिकता दी जाती है। बात यहीं नही समाप्त होती, यह धर्म और पंथ तक जाती है।
समता मूलक समाज की स्थापना की नकली रस्मों ने भी भारत का बड़ा अहित किया है। यहाँ वोट का गणित है। योग्यता-मेधा नहीं है। जातियों के नाम पर पार्टियां हैं। सभी जातियों की अपनी अपनी पार्टियां हैं। अपने-अपने महापुरुष हैं। उनकी मूर्तियों को लगाने की होड़ है। पार्कों को बनवाने के लिए प्रबल माँगें हैं। इतना ही नहीं, प्राचीन भारत के गौरवशाली इतिहास पुरुषों, शासकों को अपनी जाति बताने में गर्व होता है। राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों के पोस्टर बैनर, लेटर हेड में अपनी जाति के महापुरुषों के चित्रों को लगाने का फैशन बढ़ा है। सरकारों के बदलने पर अपनी जाति वर्ग के विचारों वाले महापुरुषों व्यक्तियों की मूर्तियां लगाने, पार्क बनाने का काम पहले से ही जोरों पर है। इसमें खास बात यह है कि यह मूर्तियां लगाने और पार्क बनाने का काम जनता के धन से ही बड़ी सरलता से संपन्न होता है।
देश में लोकसभा चुनाव का तापमान मौसम के साथ बढ़ता जा रहा है। गांव-गांव, नगर-नगर जातियों के नेता सक्रिय हैं। दलों के प्रभारी भी जाति देखकर राष्ट्रीय, प्रदेशीय व जनपदों में बनाए जा जाते हैं। टिकट बंटवारे में राजनीति का मूल तत्व जाति ही है। टीवी पर भारी बहसें होती हैं। जाति के इस व्यक्ति या उस व्यक्ति के टिकट मिलने या मिलने पर, ऐसे में जाति विहीन राजनीति की बातें बेमानी है ।
समता, ममता और सामाजिक एकता के दावे भी फर्जी हैं। सबको साथ लेकर चलने की पंचायतें हैं, मगर जातियों की पंचायतें तय कर रही हैं कि मेरी जाति का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए। लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण में सभी राजनीतिक दलों में जातियों को लेकर गला काट प्रतिस्पर्धा है। जातिवादी, गुटों वर्गों द्वारा लगातार दलों को धमकी दी जा रही है। जातियों के अति सक्रिय होने से वे जातियां भी पीड़ित अपमानित महसूस करती हैं जिनकी संख्या कम है। वहीं अनेक जातियां उल्लसित हैं कि मेरी जाति की संख्या ज्यादा है। टीवी चैनल भी दलों के पक्ष में जाति आधारित वक्तव्य झगड़े की स्थिति तक दोहराते नहीं थकते हैं लेकिन मूल प्रश्न अनुत्तरित है कि क्या भारत में अति सक्रिय जातिवादी ही सबसे बड़े लोकतंत्र के ठेकेदार हैं? तब उनका क्या होगा जो जातिवादी नहीं हैं।
डॉ. राम मनोहर लोहिया ने जाति तोड़ो अभियान चलाया था। डॉक्टर लोहिया मानते थे कि जाति प्रथा के ऊपर सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक हमला होना चाहिए, जिससे एक दृढ़ समाज बने । दृढ़ और मजबूत समाज के लिए जनता की उदासीनता देश के प्रति खत्म होनी चाहिए। महात्मा गांधी के बाद देश में जाति तोड़ो अभियान की अगुवाई डॉ. लोहिया ही कर रहे थे। डॉ. लोहिया के विचार खासकर आज के राजनीतिक वातावरण में विशेषत: प्रासंगिक हैं । लोहिया ने कहा कि राजनीति बुराई से लड़ती है इसलिए लड़ो। गांधी ने अपनी पुस्तक सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा के अध्याय 12 के पेज नंबर 35पर लिखा कि मेरे विलायत जाने की बात पर जाति में खलबली मच गई। कहा कि अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया। जातीय सभा बुलाई गई। मुझे जाति सभा में बुलाया गया। कहा गया कि जाति का ख्याल है कि विलायत (विदेश) जाना ठीक नहीं। हमारे धर्म में समुद्र पार करने की मनाही है। गांधी ने कहा कि मैंने माताजी और भाई से अनुमति प्राप्त की है। सरपंच ने कहा तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा। गांधी ने कहा जाति को दखल नहीं देनी चाहिए। सरपंच गुस्सा गए। सरपंच ने आदेश दिया कि यह लड़का ‘गांधी’ आज से जाति च्युत माना जाएगा। महात्मा गांधी पर जाति के निर्णय थोपने के प्रयास हुए । गांधी को भी जाति के खाँचे में रखने के प्रयास हुए। बाद में वे विदेश जा पाए।
डॉ आंबेडकर का विचार था कि जाति प्रथा से लड़ने के लिए चारों तरफ से प्रहार करना होगा। यह ईंट की दीवार जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है। यह एक विचार है। अंबेडकर ने सवाल उठाया कि हमारे देश को बार-बार आजादी क्यों खोनी पड़ी। क्यों हम इतनी बार विदेशियों के अधीन हुए। कारण यह था कि हमारा सारा देश हमले के खिलाफ खड़ा नहीं हो सका। हमेशा एक छोटे से वर्ग ने मुकाबला किया और यह पराजित हो गया तो सारा देश विजेता के कदमों पर झुक गया। यह मुख्यत: हिंदुओं की जाति प्रथा के कारण हुआ है। बाबा साहब अंबेडकर एक चिंतन (मधु लिमये) की पुस्तक पृष्ठ संख्या 31 । स्वामी दयानंद ने जाति प्रथा की विकृति छुआछूत या अस्पृश्यता की प्रथा पर तीखा प्रहार किया। कहा कि यह प्रथा अनुचित और अमानवीय है, बल्कि यह वैदिक धर्म के विरुद्ध भी है। स्वामी दयानंद ने जिस राज्य व्यवस्था का समर्थन किया है, वह धर्म तंत्र नहीं है। वह कल्याणकारी राज्य है। इसमें धर्म और नैतिकता की रक्षा के साथ सार्वजनिक शिक्षा के प्रबंध आदि शामिल हैं। उन्होंने कहा कि न्याय सत्य पर आधारित राजनीति के प्रति गहरा लगाव मूल्यवान है। लोकमान्य तिलक ने अस्पृश्यता की अमानवीय प्रथा का विरोध किया। जात-पांत पर आधारित भेदभाव की निंदा की। वे भारत में सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप सच्चा समाज सुधार लाना चाहते थे। भारतीय समाज में परिवर्तन चाहते थे।
जिस समय भारत के यह सभी महापुरुष जाति उन्मूलन के लिए लगातार आंदोलनरत थे उस समय आधुनिक भारत उदय हो रहा था। गांधी, अंबेडकर, लोहिया, अरविंद घोष, लाला लाजपत राय, सुभाषचन्द्र बोस ने यह न सोचा होगा कि हमारा भारत अगले कुछ दशकों में राजनीति का संचालन जाति को प्राथमिकता देकर करेगा। आज जाति, धर्म, पंथ सर्वोच्च विषय लेकर लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। यह आहत करने वाली बात है। राजनीतिक दल, सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता, प्रबुद्ध जन जब तक चुनाव में जाति विहीनता के लिए अभियान नहीं चलाएंगे तब तक जातीय संगठन, जातीय पंचायतें, जातिवादी राजनीतिज्ञ जाति के नाम पर सत्ता की मलाई खाते रहेंगे। उपेक्षित होंगी प्रतिभाएं। चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र की हों या किसान, मजदूर, नौजवान महिलाएं हों।
आधुनिक भारत के निमार्ताओं के सपने साकार करने के लिए समाज के लोगों को आगे आना होगा। इस गंभीर समस्या पर विचार करना होगा। हमारे सभी कार्य के पीछे विचार मूल स्रोत होता है। अच्छे विचार के बीज ही महान कार्यों को संपन्न करते हैं। सुंदर विचारों को हम उनकी स्वाभाविक गति में चलने दें तो परिवर्तन निश्चित ही आता है। विचारों की शक्ति अपार होती है। विचारों की चेतना के साथ हम सब आगे आएं। समतामूलक समाज की स्थापना के लिये अगुवाई करें।
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