नई दिल्ली (New Dehli) । शिवराम हरि राजगुरु (Shivram Hari Rajguru) उन क्रांतिकारियों में प्रमुख (Chief) रूप से शामिल हैं, जिनका बलिदान (sacrifice) देश को आजाद (Azad) करवाने में अहम योगदान (Contribution) रखता है। भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को बलिदान देने वाले राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के खेड़ा गांव (अब राजगुरु नगर) में पिता हरिनारायण राजगुरु तथा माता पार्वती देवी के घर हुआ। इनकी माता भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं। इसी कारण इन्हें भगवान शिव का प्रसाद मान कर नाम शिवराम रखा।
राजगुरु 6 वर्ष के ही थे तभी पिता का देहांत हो गया और घर की जिम्मेदारियां बड़े भाई दिनकर पर आ गईं। राजगुरु बचपन से ही निडर, साहसी और नटखट थे। इनमें देशभक्ति जन्म से कूट-कूट कर भरी थी। वह वीर शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक से बहुत प्रभावित थे। छोटी उम्र में वह वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने गए। इन्होंने हिन्दू धर्म ग्रंथों तथा वेदों का अध्ययन तो किया ही, लघु सिद्धांत कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रंथ बहुत कम आयु में कंठस्थ कर लिया। इन्हें कसरत (व्यायाम) का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध शैली के बड़े प्रशंसक थे। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए वह पुणे के न्यू इंगलिश हाई स्कूल में दाखिल हुए।
राजगुरु का संपर्क अनेक क्रांतिकारियों से हुआ। वह चंद्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। पार्टी में इन्हें रघुनाथ के नाम से जाना जाता था। चंद्रशेखर आजाद के साथ इन्होंने निशानेबाजी की ट्रेनिंग ली और बहुत जल्द कुशल निशानेबाज बन गए। 1925 में काकोरी कांड के बाद क्रांतिकारी संघ लगभग खत्म-सा हो गया, इसलिए नेता पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए नए-नए नौजवानों को अपने साथ जोड़ रहे थे और इसी समय इनकी मुलाकात मुनिशर अवस्थी से हुई और उनकी सहायता से राजगुरु इस संघ से जुड़ गए।
महात्मा गांधी के विचारों के विपरीत
राजगुरु क्रांतिकारी तरीके से हथियारों के बल पर आजादी हासिल करना चाहते थे, उनके कई विचार महात्मा गांधी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता था; राजगुरु के नाम से नहीं। पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारी इनके अभिन्न मित्र थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे।
लाला लाजपत राय की मौत का बदला
19 दिसंबर 1928 को राजगुरू ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर ब्रिटिश पुलिस ऑफीसर जेपी साण्डर्स की हत्या की थी। असल में यह वारदात लाला लाजपत राय की मौत का बदला थी, जिनकी मौत साइमन कमीशन का विरोध करते वक्त हुई थी। उसके बाद 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली में हमला करने में राजगुरु का बड़ा हाथ था। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का खौफ ब्रिटिश प्रशासन पर इस कदर हावी हो गया था कि इन तीनों को पकड़ने के लिये पुलिस को विशेष अभियान चलाना पड़ा।
23 मार्च 1931 को फांसी
पुणे के रास्ते में हुए गिरफ्तार पुलिस अधिकारी की हत्या के बाद राजगुरु नागपुर में जाकर छिप गये। वहां उन्होंने आरएसएस कार्यकर्ता के घर पर शरण ली। वहीं पर उनकी मुलाकात डा. केबी हेडगेवर से हुई, जिनके साथ राजगुरु ने आगे की योजना बनायी। इससे पहले कि वे आगे की योजना पर चलते, पुणे जाते वक्त पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931 को सूली पर लटका दिया गया। तीनों का दाह संस्कार पंजाब के फिरोज़पुर जिले में सतलज नदी के तट पर हुसैनवाला में किया गया।
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