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भारतीय किसान की चुनौतियों को सुलझाना जरूरी

January 07, 2021

– गिरीश्वर मिश्र

भारत गाँवों की धरती के रूप में पहचाना जाता रहा है। भारत के परम्परागत समाज के मौलिक प्रतिनिधि के रूप में गांव को लिया गया। सन सैतालीस में पचासी प्रतिशत भारतवासी गाँवों में रहते थे। खेतीबारी ही आमजन की आजीविका का मुख्य साधन था। तब भारत की राष्ट्रीय आय में 55 प्रतिशत हिस्सा खेती का था। किसान देश की मजबूती की कड़ी था। राष्ट्र के निर्माण में किसान मुख्य था। असली भारत का प्रतिनिधि था गाँव। आर्थिक विकास में सत्तर के दशक की हरित क्रांति के आधार पर भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ था।

सात दशक बाद गांव की यह छवि बदल चुकी है। भारत तेजी से आगे बढ़ते शहरों और मध्यवर्ग की छवि वाला हो रहा है। गांव या कृषि क्षेत्र एक बेवजह के भार जैसा, पिछड़ेपन, अशिक्षा और गरीबी वाला माना जा रहा है। कर्ज के चलते आत्महत्याएं भी बड़ी संख्या में हुई। आर्थिक शक्ति और नगरीय अर्थव्यवस्था तकनीकी ढंग से प्रशिक्षित गतिशील मध्य वर्ग ही प्रमुख है। वे बाजार की जान हैं। गांव और कृषि की अर्थव्यवस्था अब चर्चा से बाहर हाशिए पर जा चुकी है। हालांकि अब भी लगभग 70 फीसदी भारतीय ग्रामीण हैं और गांव भी कई लाख हैं। श्रम और मजदूरी की मुश्किलें अभी भी हैं। भूमिहीन भी हैं। सरकार की नव उदारवादी पूंजीवादी रुझान पूंजी के पक्ष में ही कार्य करती है। विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (स्पेशल इकोनोमिक जोन) का विचार इसका स्पष्ट प्रमाण है। भूमि सुधार की पहल ढीली पड़ चुकी है।

बाजार उन्मुख खेती की अनिश्चितताओं ने खेती को नया रंग दिया है। नब्बे के दशक में अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के साथ आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया गया उसमें हमारी वरीयताएँ बदलती गईं। गाँव में खेती करने वाला किसान और किनारे खिसक गया। नई अर्थ नीति के तहत सरकार का हाथ पीछे खींचता गया और बाजार हावी होता गया। छोटे किसान जो ज्यादा संख्या में हैं, नगदी फसल के लिए विभिन्न स्रोतों से उधार लेते हैं। कृषि उत्पादन का चक्र ऐसा कि सब फसल एकसाथ बाजार पहुंचती है और छोटे किसानों को बड़े सौदागरों से अच्छा सौदा करना मुश्किल होता है। देश के कई भागों में किसानों की आत्महत्या इसी विसंगति की ओर संकेत करती है।

स्थानीय और वैश्विक अर्थ तंत्र के रिश्ते, सरकार की नीति और कृषि की उपेक्षा व सामाजिक संरचना ने कृषि के क्षेत्र में त्रासदी पैदा की। किसान निराश है और अर्थ तंत्र में कृषि अलग-थलग है। किसानों के हित अब नीतियों के केंद्र में नहीं रहे। गाँव और शहर के बीच की बढ़ती खाई ने शहर को ही विकास की नीति का केंद्र बना दिया। किसानों की आवाज अनसुनी रह गई। कृषि राज्य सरकार का विषय है जबकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार की नीतियाँ केंद्र के जिम्मे हैं। शहरी कॉरपोरेट अर्थव्यवस्था जो मध्य वर्ग के उपभोक्ताओं पर टिकी थी प्रबल होती गई और गरीब किसान राष्ट्रीय नीतियों में किनारे पड़ता गया। नियति का खेल यह है कि कुल कामगारों में आधे से कुछ ज्यादा को अवसर देने पर भी राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का योगदान महज छठा हिस्सा रह गया है। कृषि के क्षेत्र में ठहराव स्तैग्नेशन के चलते लोग शहर की ओर पलायन करने लगे। जीवन के देश काल में गाँव की जगह अनाकर्षक होती गई। गरीब और धनी अपने भाग्य आजमाने गाँव से बाहर जाने लगे। ऐसे थोड़े ही किसान हैं जो उद्यमिता के आत्मविश्वास के साथ खेती को पुनरुज्जीवित करने में लगे हैं।

किसानों की हालत पतली है और उनके श्रम का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है। यह ऐसा तथ्य है जो सबको मालूम है। उनसे जिस दाम पर वस्तुएं खरीदी जाती हैं और जिस कीमत पर बाजार में उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराई जाती हैं, उसमें जमीन आसमान का फर्क है। आलू का चिप्स, भुनी मूंगफली, मक्का (पापकार्न) और चने या फिर लाई के पैकेट पूरे देश में गली-गली जिस कीमत पर बिकते हैं उनको देखकर यही लगता है कि गरीब किसान कहीं का नहीं है। आज की बाजार की व्यवस्था में वह सिर्फ और सिर्फ ठगा जाता है। मिट्टी के खेत में फसल उगाने में किसान की मेहनत-मशक्कत घलुए में ही बिकती है। खेत तैयार करने, बीज बोने, सिंचाई करने, खाद की व्यवस्था, फसल की रोग व्याधि से रक्षा और देखरेख करने की लम्बी कृषि-यात्रा में किसान की जिन्दगी खेती से एकाकार हो जाती है। खेती करना 24×7 का हिम्मत का काम होता है जिसके लिए साधन जुटाना और समय के अनुसार जरूरी श्रम लगाना अच्छी खासी योजना और तैयारी की मांग होती है।

अब खेती के लिए जरूरी उपकरणों के लिए तकनीकी जानकारी भी जरूरी होती जा रही है। फसलें भी कई तरह की होती हैं और मौसम तथा जमीन की गुणवत्ता के हिसाब से दलहन, तिलहन, रबी, खरीफ, गन्ना, फूल, सब्जी, फल आदि की खेती के लिए तैयारी कब और कैसे की जाय, बिजली और पानी की व्यवस्था कैसे हो, यह सब अब परिपक्व ‘प्रोफेशनल’ जानकारी की अपेक्षा करती है।

कहने का मतलब यह कि खेती नए ढंग से व्यवस्थित करने की जरूरत है। इन सवालों को लेकर विचार होता रहा है। स्वामीनाथन समिति ने अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं। सरकार ने काफी विचार-विमर्श के बाद कृषि सुधार के लिए तीन कानून लागू करने की मंशा बनाई जिसे लेकर किसानों के कुछ नेता असंतुष्ट हैं और महीने से ज्यादा हुए दिल्ली घेरकर धरना दे रहे हैं। दूसरी तरफ बहुत से किसान कानूनों का स्वागत भी कर रहे हैं। सात दौर की बातचीत हो चुकी है। कई मुश्किलों को पहचाना गया है और सरकार बदलाव के लिए तैयार भी है। पर विरोधी दलों ने जिसमें वे भी शामिल हैं जो कभी प्रस्तावित कानूनों की व्यवस्था के पक्षधर थे, आन्दोलन को समर्थन दिया है। आन्दोलनकारी किसानों और उनके लिए जिस तरह का समर्थन मिल रहा है उससे किसानों के वर्गीय चरित्र भी उजागर हो रहा है। यह हाईटेक हो रहा आन्दोलन नए रंग में है। कभी गांधी, पटेल और सहजानंद सरस्वती जैसे लोगों ने किसानों के प्रश्नों को लेकर आन्दोलन छेड़ा था। किसानों के कई मुद्दे अभी भी इंतज़ार कर रहे हैं।

आज पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए उच्च वर्गीय किसान खानपान और सारी व्यवस्था के साथ आन्दोलन के लिए जमे हुए हैं। किसानों का भारत जिन मुश्किलों से गुजर रहा है उनका राजनीतिक हित से परे हटकर मूल्यांकन जरूरी है। खेती किसानी विशाल भारत की जीवनी शक्ति की धुरी है और उसकी उपेक्षा किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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