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    भारतीय शिक्षा परंपरा और शिक्षक

  • September 08, 2024

    – हृदयनारायण दीक्षित

    सर्वोत्तम हमारी सर्वोत्तम मनोकामना है। सर्वोत्तम हमारी गहन अभिलाषा है। यही अभिलाषा भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है। प्रतिस्पर्धा में प्रथम होने की इच्छा। धनसंग्रही होने की अभिलाषा। लोकसंग्रही होने की आकांक्षा और यश अभीप्सा। शिक्षा हमारे उत्तम को उभारती है और सर्वोत्तम में प्रकट करती है। लेबनानी चिन्तक खलील जिब्रान की सुंदर पुस्तक है- ‘प्राफेट’। लिखा है, “शिक्षक ने पूछा कि शिक्षा के विषय में बताओ। उसे बताया गया। कोई व्यक्ति तुम्हारे सामने वही उद्घाटित कर सकता है जो तुम्हारे भीतर हो।” शिक्षा हमारे ही सुप्त ज्ञान प्राप्ति का उपकरण है। ज्ञान के लिए चाहिए गुरू। तुलसीदास ने गाया है-“बिन गुरू होंहि कि ज्ञान”? इसी तरह शिक्षा के लिए शिक्षक की महत्ता है और ज्ञान के लिए गुरू की।


    शिक्षा का शिखर सर्वोत्तम ज्ञान है। ज्ञान का प्रारम्भिक चरण शिक्षा है। शिक्षक का शिखर विकास गुरूत्व है। गुरूत्व विकास का मध्यवर्ती चरण शिक्षक है। गुरू होना हरेक शिक्षक की संभावना है। शिक्षक महत्वपूर्ण है। गुरू को भी शिक्षक होकर ही गुरूत्व मिलता है। बीते 5 सितम्बर को देश में शिक्षक दिवस था। विश्व प्रख्यात भारतीय दार्शनिक डाॅ. राधाकृष्णन की जन्मतिथि (5 सितम्बर) शिक्षक दिवस के रूप में मनाई जाती है। भारत में शिक्षक को गुरू भी कहा जाता है। शिक्षक की भारतीय अनुभूति यही है। उत्तरवैदिक काल अनूठा है। इस काल में तमाम ज्ञान है, कर्मकाण्ड भी हैं। कर्मकाण्ड विरोधी अनेक चिन्तन धाराएं भी हैं। चिन्तन और दर्शन का विकास ध्यान देने योग्य है। इस काल में तैत्तिरीय आरण्यक के सातवें, आठवें और नवें अध्याय को तैत्तिरीय उपनिषद् कहा जाता है। उपनिषद् प्रारम्भ होती है-शिक्षा व्याख्यास्यमः से। यहां शिक्षा की अतिसंक्षिप्त परिभाषा है। कुल तीन छोटे वाक्य हैं। पहला है-वर्णः स्वर। वर्ण स्वर का बोध शिक्षा है। दूसरा वाक्य पढ़ते हैं-मात्रा बलम्। मात्रा का ज्ञान, इन पर बल देने की जानकारी। तीसरा है-साम सन्तानः। गीता प्रेस के अनुवाद में साम का अर्थ वर्णो का समवृत्ति से उच्चारण है और सन्तान का अर्थ संधि है। फिर अंतिम वाक्य है-शिक्षा अध्याय समाप्त हुआ।

    शब्द ज्ञान श्रेय है पर वही अंतिम नहीं। शब्द संसार के ध्वनि प्रतिनिधि हैं। यहां प्रत्येक वस्तु, पदार्थ के लिए शब्द है। इसलिए वे स्वयं एक विराट विश्व हैं। संसार में वन, उपवन, पर्वत और नदी समुद्र हैं। तो शब्द संसार में वन, उपवन आदि शब्द हैं। लेकिन वे प्रत्यक्ष वन, पर्वत आदि नहीं हैं। केला, आम या अंगूर वास्तविकता में सुस्वाद फल हैं। इनके नाम केवल संज्ञा हैं। हमारे संज्ञान में वे मूल पदार्थों के प्रतिनिधि स्वर-वर्ण मात्र हैं। आम खाकर मिठाई का बोध होता है। आम कहकर स्वाद नहीं मिलता। वे केवल नाम हैं। नाम से रूप समझना शिक्षा है और देखकर रूप नाम बोलना भी। नाम, रूप, गुण, व्यवहार आदि का ज्ञान शिक्षा से होता है। शिक्षक यही बोध देते हैं। वे संसार का साधारण परिचय कराते हैं। तैत्तिरीय के ऋषि ने शिक्षा की ठीक परिभाषा की है। ऐसा ज्ञान दुखमुक्ति का उपकरण नहीं हो सकता। गांधीजी ने पीड़ा व्यक्त की है कि गणित, भूगोल, इतिहास आदि जानकर मुझे क्या मिला? गांधी सत्यप्रिय थे। सत्यधर्मान् महान व्यक्ति। विश्व मानव। यह शिक्षा उनके काम नहीं आ रही थी। वे आगे बढ़े, सत्य के साथ हो गये।

    मैंने सम्मानित शिक्षकों से विज्ञान पढ़ा। मातृभाषा पढ़ी। माननीय शिक्षकों ने अंग्रेजी भी पढ़ाई। वह मातृभाषा है नहीं सो मात्र-अंश ही समझ में आई। अर्थशास्त्र पढ़ा एमए तक। उत्तम अंक मिले, ज्ञान गंध तो मिली लेकिन तत्व ज्ञान नहीं मिला। दुखिया मन और दुखिया रहा। योरोपीय विद्वान और उन जैसे भारतीय विद्वानों ने भारत के प्राचीन साहित्य को धार्मिक आस्था वाला बताकर षड्यंत्र किया था। वैदिक साहित्य विज्ञान और दर्शन की अनुभूतियों से भरा-पूरा है। यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय दर्शन चिंतन को कमतर बताया है। अंग्रेजी सभ्यता ने राष्ट्रजीवन को आत्महीन बताया। अब अंग्रेजी हमारी बुद्धि में है। सभी भारतीय भाषाएं हमारी मां, मां जैसी या मौसी लेकिन अंग्रेजी सुपरिचित आत्मीय शत्रु। अंग्रेजी भारतीय अनुभूति के प्रकटीकरण में अक्षम है।

    शिक्षक श्रद्धेय हैं। उम्र में छोटे हों तो भी। मनुस्मृति की बड़ी निन्दा होती है। इसमें शिशु ‘दीक्षित’ के सम्मान में भी 50-60 वर्षीय वरिष्ठजनों को सम्मान में खड़े होने के सुझाव हैं। तुलसीदास का “श्रीगुरू चरण सरोज रज/निज मन मुकुर सुधार” दोहा है। इसका अंग्रेजी अनुवाद कठिन है। अंग्रेजी में गुरू का समानार्थी शब्द है नहीं। चरण के लिए शब्द है लेकिन सरोज का क्या करें? उसका ठीक अनुवाद हो भी तो सरोज रज का अनुवाद असंभव। शिक्षक की कठिनाई है। वे सुयोग्य हैं लेकिन शब्द ज्ञान से ही काम नहीं चलता। डाॅ. राधाकृष्णन् भारतीय दर्शन की गहन समझ से भरे-पूरे थे। उनकी पुस्तक “इण्डियन फिलॉस्फी” ने सारी दुनिया को भारतीय चिन्तन की जानकारी दी। गीता का अंग्रेजी अनुवाद असंभव है। उन्होंने इसे संभव बनाया। उन्होंने अनुवाद में अपना कोई दृष्टिकोण नहीं जोड़ा। भारतीय शिक्षा और शिक्षकों में राष्ट्रीय आत्मा की सुवास रही है। शिक्षा अच्छे मनुष्य की निर्मिति है। अच्छा मनुष्य आदर्श मनुष्य होना चाहिए। भारतीय आदर्श का अच्छा मनुष्य लोकमंगल अभीप्सु मानव है। आत्मबोध में वह सम्पूर्ण विश्व का अंश है। शिक्षक पर ऐसा ही मनुष्य गढ़ने की जिम्मेदारी हैं। आदर्श मनुष्य गढ़ना आसान नहीं।

    शिक्षा मनुष्य के सर्वोत्तम को प्रकट करती है। इसके लिए ध्यान चाहिए। ध्यान यानी एकाग्रता। विवेकानंद ने कहा है, “एकाग्रता ही वह विधि है जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। मन की एकाग्रता ही शिक्षा का सार तत्व है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने का यही सर्वोत्तम साधन है। विचारों की एकाग्रता के अभाव में ही मनुष्य भयंकर भूलें करता है। जो मनुष्य प्रशिक्षित होता है या जिनका मन एकाग्र होता है वह भूल नहीं करता। मनुष्य के चित्त की एकाग्रता के अनुपात में भिन्नता के कारण ही मनुष्यों में अंतर होता है। महान व्यक्ति का चित्त एकाग्र और साधारण व्यक्ति का मन कम एकाग्र या चंचल होता है।

    हरेक मनुष्य अनूठा है। अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा मनुष्य है ही नहीं। दूसरा हो भी नहीं हो सकता। इसलिए उसके अन्तस् को उसी स्वरूप में, उसकी निजता और वैशिष्ट्य में सर्वोत्तम तक विकसित करने का काम कठिन है। परिश्रमी शिक्षक भी संगीत प्रिय छात्र को अर्थशास्त्र का विद्वान नहीं बना सकता। शिक्षक और छात्र का सम्बंध महत्वपूर्ण है। शिक्षा देना आसान है लेकिन छात्र का ग्राह्यता स्तर मापना कठिन है। उत्तर वैदिक काल में आचार्य और शिष्य साथ-साथ प्रार्थना करते थे-सहनोभुनुक्त, सहनाववतु शब्द आज भी जीवंत हैं। शिक्षा में संसार की उपेक्षा नहीं थी। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा की संक्षिप्त व्याख्या के बाद आचार्य और शिष्य प्रार्थना करते हैं-“हम दोनों का यश साथ-साथ बढ़े। हम दोनों का तेज एक साथ बढ़े। हम लोक जानें। ज्योतियां जानें। विद्या (मुक्ति संधान) जानें और प्रकृति रहस्य भी। पृथ्वी पूर्व वर्ण है, अंतरिक्ष उत्तर वर्ण हैं। आकाश संधि है। वायु योजक हैं। आदि।” यहां शिक्षा का विस्तार अंतरिक्ष तक है। जहां तक शिक्षा है वहां तक शिक्षक का भी विस्तार है। इसलिए शिक्षक को आचार्य कहा गया। आचार्य अपने आचार शिक्षा देते थे। गुरू इसी शिक्षक चेतना का विकास है। शिक्षक दिवस गुरू उत्सव ही है।

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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