– गिरीश्वर मिश्र
स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी व्यवस्था ही कमोबेश आधार बनी रही और महात्मा गांधी जैसे लोगों के प्रयास के बावजूद औपनिवेशिक मानसिकता से छूट न मिल सकी। इसके फलस्वरूप शिक्षा का विस्तार तो हुआ पर अनेक सीमाओं के कारण शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता भी होता रहा। शिक्षा में उत्कृष्टता के लिए विभिन्न आयोगों और शिक्षाविदों द्वारा समय-समय पर सुझाव दिए जाते रहे हैं। इनपर अमल करने के लिए कुछ प्रयास भी हुए पर पर्याप्त मात्रा में ध्यान देने के लिए संसाधन और इच्छाशक्ति के अभाव में गम्भीर प्रयास नहीं हो सके। वर्ष 1986 में बनी शिक्षा नीति में शामिल अनेक प्रस्ताव भी कार्य रूप में नहीं आ सके। इस बीच समस्याएँ बढ़ती ही गई।
यदि आजादी के समय से तुलना की जाय तो आज भारत में साक्षरता, शिक्षा संस्थाओं की संख्या और स्कूल में नामांकन भी बढ़ा है। हम गर्व भी महसूस कर सकते हैं परंतु जब विद्यार्थियों की उपलब्धि, गुणवत्ता और ज्ञान में वृद्धि की बातें करते हैं तो स्थिति बड़ी चिंताजनक दिखती है। सरकारी और गैर सरकारी मूल्यांकन स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि सरकारी स्कूलों (जिनमें 70 प्रतिशत बच्चे पढ़ने जाते हैं) के बच्चों की गणित, भाषा और अन्य विषयों में उपलब्धि उनकी कक्षा स्तर की तुलना में बहुत नीचे है। माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तरों पर भी अध्ययन-अध्यापन को लेकर व्यापक असंतोष व्यक्त किया जाता रहा है। विद्यार्थियों में जरूरी कुशलता का अभाव और अकादमिक कमजोरियों के तमाम उदाहरण आए दिन देखने को मिलते हैं। उच्च शिक्षा पाकर डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या भी बढ़ती गई है। 1986 में शिक्षा नीति आने के बाद मात्रात्मक सुधार के अतिरिक्त इसमें कोई बदलाव नहीं आ सका।
गहन और व्यापक विचार-विमर्श के बाद प्रस्तुत शिक्षा नीति- 2020 इन समस्याओं के साथ ही भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर कई सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है। इनमें शिक्षा प्रणाली की संरचना, प्रक्रिया, लक्ष्य, अध्यापक-प्रशिक्षण आदि सभी पहलुओं पर सार्थक विचार किया गया है। यह एक ऐसे दस्तावेज के रूप में उपस्थित हुई है जो भविष्य के भारतीय समाज को तैयार करने के लिए खाका प्रस्तुत करती है। इस नीति में आरंभिक स्तर पर मातृभाषा को महत्व दिया गया है। यह सर्वविदित है कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण और अध्यापन बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिये लाभकारी होता है। अंग्रेजी को विश्वभाषा मान लेने से अनुकरण की भावना और पराधीनता की प्रवृत्ति को ही उकसावा मिलता है। पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण लोगों पर अंग्रेजी का भूत हावी होता रहा। अंग्रेजी जानने वाले उच्च वर्ग के होते हैं और उनका अखंड वर्चस्व हर कहीं देखा जा सकता है।
आखिर भाषा का जन्म और पालन-पोषण समाज की परिधि में ही होता है। अतएव शुरू में ही अंग्रेजी के भाषाई संस्कार यदि अंग्रेजी संस्कृति को स्थापित करते चलते हैं तो यह स्वाभाविक है। वैसे सभी देशों में मातृभाषा को ही आरंभिक शिक्षा का माध्यम बनाया जाता है और इसका महत्व वैज्ञानिक अध्ययनों से भी प्रकट होता है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया जाना, स्वागत योग्य निर्णय है।
भविष्य की जरूरतों का आकलन करते हुए और अपनी जमीन पर टिकते हुए वैश्विक बदलाव के प्रति संवेदना के साथ यह नीति रचनात्मकता और रुचि के अनुसार विद्यार्थी के बहुमुखी विकास के अवसर उपलब्ध कराने का वादा करती है। विषय वस्तु तो माध्यम है पर जरूरी है सीखने की ललक पैदा करना और इसके लिए विकल्प देना। खासतौर पर आज के माहौल में जब जीवन की परिधि और जटिलता बढ़ती जा रही है, अवसरों की विविधता बढ़ रही है यह नीति विद्यार्थियों को अध्ययन-विषयों के चयन में व्यापक अवसरों का प्रावधान करते हुए संभावनाओं का द्वार खोलती है। आज सभी महसूस करते हैं कि अंतरानुशासनिक (इंटर डिसिप्लिनरी) अध्ययन के बिना समुचित अध्ययन संभव नहीं है। ऐसे में कला, विज्ञान और व्यावसायिक विषयों की पारस्परिकता का सम्मान आवश्यक है। शिक्षानीति में इसके लिए अवसर बनाया गया है, जिसका स्वागत होना चाहिए।
एक दूसरे स्तर पर इस बात को विद्यार्थी की रुचि और तत्परता से भी जोड़ते हुए अध्ययन में प्रवेश और उससे बाहर जाने के अवसर बढ़ाए गए हैं। यह एक बड़ा कदम है। आज हर कोई आंख मूंदकर हाईस्कूल, इंटर, बी.ए. और एम.ए. की श्रृंखला में आगे बढ़ता रहता है। एकबार घुसने पर कहीं बीच में निकलने का न अवसर है और न उद्देश्य सिद्ध होता है। आज उच्च शिक्षा में लगन के साथ पढ़ने वालों और समय-यापन करने वालों के बीच व्यवस्था के स्तर पर कोई फर्क न होने से नाहक भीड़ बढ़ती है। ऐसे में चार वर्ष के बी.ए, के पाठ्यक्रम को एम.ए. के लिए और शेष छात्र-छात्राओं को डिप्लोमा और डिग्री देकर दो और तीन वर्ष की पढ़ाई के साथ जोड़ना अच्छी पहल है।
इस नीति में भारत की बहु भाषाभाषी समृद्ध परम्परा को भी स्थान दिया गया है। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर और आगे त्रिभाषा अध्ययन की व्यवस्था, भारतीय समाज की प्रकृति की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है। भाषा न केवल किसी क्षेत्र में ज्ञान के लिए अनिवार्य आधार का काम करती है बल्कि अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक जीवन के लिए भी आवश्यक है। यह खेद का विषय है कि भाषा के अध्ययन-अध्यापन के प्रति बड़ा लचर रवैया अपनाया जाता रहा है। इसके फलस्वरूप भाषिक योग्यता में लगातार गिरावट होती रही है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में इस वर्ष हाईस्कूल की परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थी फेल हो गए हैं। नई शिक्षा नीति में भाषा और भारतीय ज्ञान परम्परा के साथ परिचय को महत्व देकर सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करने और देश की एकता के लिए मार्ग प्रशस्त किया है।
इस नीति में अध्यापक प्रशिक्षण को भी व्यवस्थित करने का प्रस्ताव शिक्षण संस्थानों के लिये लाभकारी होगा। परीक्षा की वर्तमान प्रणाली की कठिनाइयों को ध्यान में रखकर कई सुधार प्रस्तावित किए गए हैं जिनसे उसकी प्रामाणिकता को बल मिलेगा और विद्यार्थियों के विकास में मदद मिलेगी। आज के बदलते परिवेश के अनुरूप विद्यार्थियों को अधिकाधिक अवसर देने की प्रभावी व्यवस्था निश्चित तौर पर भिन्न-भिन्न रुचियों वाले विद्यार्थियों को पसंद आएगी। शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा की संस्थाओं के स्वरूप और गठन को लेकर कई महत्वाकांक्षी प्रस्ताव सम्मिलित हैं, जिनके लिये संसाधन जुटाकर अंजाम दिया जा सकेगा।
शिक्षा की इस महत्वाकांक्षी पहल का देश को बहुत समय से इंतजार था। पिछले सात दशकों में एक तरह की उदासीन या एकांगी दृष्टिकोण के चलते ठहराव आता गया था और मौलिकता, सृजनशीलता और कुशलता की जगह नकल, पुनरुत्पादन और कामचलाऊ अनुष्ठान (रिचुअल) से काम चलाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता रहा। प्राय: जो आवश्यक प्रश्न, जरूरी आंकड़े, समाधान की युक्तियां और सैद्धांतिक दृष्टि थी उसका बौद्धिक नियंत्रण यूरो-अमेरिकी ज्ञान परम्परा में टिका रहा। उन्हीं का विस्तार, परीक्षण और पुष्टि का प्रयास चलता रहा और ज्ञान-निर्माण का भ्रम निष्ठा और श्रद्धा के साथ पाला जाता रहा। इस पूरी प्रक्रिया में दुहराव ही अधिक हुआ पर ज्ञान-विज्ञान की कवायद (ड्रिल) से मन में भरोसा आता रहा।
शोध के नाम पर प्रचुर कूड़ा कचरा न केवल एकत्र हुआ है बल्कि शिक्षा की रक्त वाहिनियों में प्रवेश कर चुका है। उसके घुन से उपजे विष और प्रदूषण से आज निजात पाना मुश्किल हो रहा है। इसका समवेत परिणाम यह हुआ कि पूरा शैक्षिक परिवेश संकुचित प्रवृत्तियों का शिकार होता गया और गैर शैक्षणिक समर्थन जुटाकर शिक्षा संस्थान की जगह सीमित हितों की रक्षा का उद्योग खड़ा होता गया। संस्कृति, समाज, संदर्भ और मूल्य जैसे प्रश्न दकियानूसी करार दिये जाते रहे। मेधावी विद्यार्थी क्षुब्ध होकर विदेशी संस्थानों की ओर रुख करने लगे और आज लाखों की संख्या में ये विद्यार्थी यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्ययन कर रहे हैं और अच्छा कार्य कर रहे हैं।
नई शिक्षानीति का बीज शब्द ‘गुणवत्ता’ है और सच कहें तो उसकी स्थापना के अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। हम तभी प्रामाणिक और उपयोगी ज्ञानार्जन कर सकेंगे जब हमारे अध्ययन में गुणवत्ता होगी। कुल मिलाकर शिक्षा नीति-2020 शिक्षा जगत के लिए एक मधुर स्वप्न की तरह है। इसके संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक सुधार में केंद्रीकरण का भय दिखता है परंतु आज इतनी अधिक विविधता और स्थानीयता है कि उसकी आड़ में बहुत-सा अनर्गल काम होता है। वस्तुत: शैक्षिक जगत के लिए स्वायत्तता, पारदर्शिता और दायित्व बोध का संतुलन आवश्यक है। यह सब तभी हो सकेगा जब जीडीपी का प्रस्तावित छह प्रतिशत शिक्षा को उपलब्ध कराया जाय। यह निवेश करना देशहित में होगा।
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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