– डॉ. अजय खेमरिया
मप्र में प्रमुख सचिव स्वास्थ्य के पद से हटाए गए अफसर बीए पास कर आईएएस बने। इसी तरह न्यूक्लियर साइंस से एम टेक एक आईएएस पहले चिकित्सा शिक्षा, खाद्य और अब संस्कृति के प्रमुख सचिव हैं। एमबीबीएस एमडी पृष्ठभूमि से आये अफसर बिजली कम्पनी के सीएमडी और जनसंपर्क के कमिश्नर होते हैं। इसे भारतीय प्रशासन तन्त्र की विसंगति के रूप में विश्लेषित किये जाने की आवश्यकता है। भारत को आज भी सक्षम एवं उत्कृष्ट नागर प्रशासनिक सेवा की जरूरत है।
सुशासन, नवोन्मेष, लोक कल्याण और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में सिविल सेवा के सामाजिक अंकेक्षण का यह सबसे उपयुक्त समय है। कोविड संकट के बाद जब पूरी दुनिया में जीवन से जुड़े प्रतिमान ध्वस्त हुए और नए विकल्प तेजी से विश्व व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं तब भारतीय नौकरशाही को लेकर चर्चा स्वाभाविक है। बुनियादी रूप से कुछ पहलुओं पर हमें सोचना होगा। मसलन जिस संघ लोकसेवा आयोग की विश्वसनीयता पर कभी सवाल नहीं उठा, उसके द्वारा चयनित लोकसेवक कार्य संस्कृति के मामले में वैसी ही साख क्यों नहीं बना पाए? दूसरा, इस जटिल परीक्षा को पास करने वाले अभ्यर्थी विशेषज्ञ के रूप में स्वतः अधिमान्यता प्राप्त कर लेने के स्वाभाविक हकदार कैसे हैं? कलेक्टर यानी जिलाधिकारी के रूप में हम जिस आईएएस को सिविल सेवक के रूप में देखते हैं वह उसी सीमित भूमिका में 60 साल की आयु तक काम नहीं करता है। सेवावधि बढ़ने के साथ उसे मौजूदा प्रशासनिक ढांचे में नीति निर्माता के रूप में भी काम करना होता है।
सवाल यह है कि क्या नीतियों का निर्माण केवल पब्लिक पॉलिसी में विदेशी डिग्री हासिल करने से समावेशी हो सकता है? जैसा अधिकतर आईएएस अफसर सेवा में आने के बाद इस डिग्री को हासिल करते रहते हैं। साथ ही जो विशेषज्ञ अफसर इस सेवा में मौजूद है उनकी एकेडमिक पृष्ठभूमि का उपयोग मौजूदा ढांचे में कहां तक हो पाता है।
कोविड संकट के दौरान करीब साढ़े तीन हजार आदेश, सर्कुलर, एडवाइजरी, केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा जारी किए गए है। यह प्रशासन के “लेवियाथन” स्वरूप को प्रमाणित करने वाला पक्ष है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी “मिनिमम गवर्मेंट मैक्सिमम गवर्नेंस”के दर्शन में भरोसा करते हैं। कोविड संकट में कभी आगरा तो कभी भीलवाड़ा मॉडल की चर्चाएं हमने सुनीं लेकिन नतीजे अंततः सिफर रहे। देश में एक भी जिला कलेक्टर अपनी निर्णय क्षमता के आधार पर कोविड मामले में नवोन्मेषी और अनुकरणीय साबित नहीं हुआ। जबकि यह एक ऐसा अवसर था जब भारत के सर्वाधिक प्रज्ञावान अफसर अपने सुपर एलीट और एक्सपर्टीज वैशिष्ट्य को प्रमाणित कर सकते थे। मैदानी स्तर पर सभी कलेक्टर अपने राज्यों की राजधानियों या दिल्ली के सरक्युलर का इंतजार कर तत्संबंधी आदेश अपनी पदमुद्राएँ लगाकर जारी करते रहे। धारा 144 और कर्फ़्यू के लिए पाबन्द करती मैदानी पदस्थापना ऐसी कोई मिसाल प्रस्तुत नहीं कर पाईं जो तत्कालीन संकट में अनुकरणीय हो।
जिस अंग्रेजी मनोविज्ञान और नफासत के लिए भारत की सिविल सेवा बदनाम है, उसका उच्चतम स्वरूप हमें कोविड में भी नजर आया। कल्पना कीजिये अगर हर जिले का डीएम अपने जिले के व्यापारियों, धार्मिक ट्रस्टों, एनजीओ के प्रतिनिधियों से व्यक्तिगत संपर्क, संवाद कर वंचितों और प्रवासी श्रमिकों के लिए मदद के हाथ फैलाता तो क्या बदली हुई तस्वीरें सामने नहीं आई होती? हर जिले में कलेक्टर एक टीम लीडर की तरह नजर आ सकते थे, वे जनभागीदारी की वैश्विक मिसाल कायम कर सकते थे लेकिन अधिकतर जगह बिल्कुल उलट हुआ। जिला और पुलिस प्रशासन का पूरा जोर डंडे के बल पर लॉकडाउन सफल करने में रहा। जबकि यह लॉकडाउन कानून व्यवस्था या सुरक्षा से सीधा जुड़ा न होकर जनचेतना से संबद्ध था। लेकिन हमारी सिविल सर्विस बिल्कुल अंग्रेज़ी हुकूमत की तरह काम करती दिखी जबकि आवश्यकता एक भरोसे को कायम करने की थी।
कानूनी सख्ती में भी न समरूपता नजर आई न निष्पक्षता। विवेकाधिकार के रूप में डीएम उन कामों से भी किनारा करते रहे जो इस दौरान प्रशासन और गरीब वर्ग के बीच नया रिश्ता कायम कर सकते थे। मसलन हजारों गरीब राशन के लिए दफ्तरों में चक्कर लगाते रहे लेकिन किसी डीएम ने ऐसे वास्तविक जरूरतमंद लोगों के हक में सरकारों से अनुमति की प्रत्याशा में उपलब्ध अनाज का वितरण तक नहीं किया। क्या एक कलेक्टर अपने स्तर पर अपने हजारों कर्मचारियों के प्रमाणीकरण के आधार पर ऐसा नहीं कर सकता था? संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाइए कि लगभग 40 फीसदी पीडीएस कोटा इस दौरान वितरित ही नहीं हुआ। खुद खाद्य मंत्री रामविलास पासवान इसपर अफसोस जाहिर कर चुके हैं। क्या जिलों में इस स्थिति को आईएएस अफसर बदल नहीं सकते थे?
हांगकांग की प्रतिष्ठित कंसल्टेंट फर्म “पॉलिटिकल एन्ड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड” की वैश्विक ब्यूरोक्रेसी रैंकिंग पर नजर डालें तो भारतीय ब्यूरोक्रेसी को 10 में से 9.21वें स्थान पर रखा गया है। यानी सबसे बदतर। वियतनाम 8.54, इंडोनेशिया 8.37,फिलीपींस 7.57 चीन 7.11, सिंगापुर 2.25, हांगकांग 3.53, थाईलैंड 5.25, जापान 5.77, दक्षिण कोरिया 5.87, मलेशिया 5.84 रैंक पर रखे गए हैं। इस रपट में भारत की अफसरशाही को सबसे खराब रैंकिंग दी गई है। यह किसी एक राज्य या केंद्र सरकार नहीं बल्कि समग्र प्रशासनिक ढांचे की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह है।
जाहिर है एक ऐसी सिविल सेवा की आवश्यकता है जो इस औपनिवेशिक मनोविज्ञान की जगह बदलती जनाकांक्षाओं के अनुरूप हो। लैटरल इंट्री के जरिये जो प्रयोग मोदी सरकार ने किया है उसे आगे विस्तार देने की आवश्यकता है। भर्ती प्रक्रिया में विशेषज्ञता के प्रावधान जोड़ने से फ्लैगशिप स्कीमों का क्रियान्वयन त्वरित होगा। मसलन स्वास्थ्य, शिक्षा, तकनीकी, कला, विज्ञान और खेल जैसे क्षेत्रों के लिए स्थाई सिविल सेवा कोटा बनाया जाए। विशेषज्ञ उपाधि धारक रिटायरमेंट तक अपने ही विशिष्ट क्षेत्र में काम करें। इससे सबंधित क्षेत्रों में नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक में बेहतर नतीजे आएंगे।
सिविल सेवा भर्ती का दायरा भी सीमित किया जाना चाहिये यानी नागरिक प्रशासन के लिए यूपीएससी की संयुक्त भर्ती को खत्म किया जाए ताकि वित्त, विदेश, सूचना, पुलिस के लिए अलग से विशेषज्ञ प्रशासक मिल सकें। आईएएस के स्थान पर भारतीय नागरिक सेवा का विशिष्ट संवर्ग मैदानी प्रशासन के लिए कारगर साबित हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि भर्ती की न्यूनतम और अधिकतम आयु सीमा को 1970 के नियमों पर लाया जाए ताकि युवा और ऊर्जावान जिलाधिकारी देश को मिल सकें। बेहतर होगा कि यूएसए की तर्ज पर निश्चित समयावधि के लिए भी इन अफसरों की भर्ती का प्रावधान हो ताकि मिशन मोड वाले कार्यक्रम अपने उद्देश्यों में सफल हों।
फिलहाल विसंगतियों का आलम यह है कि बीए पास आईएएस हेल्थ मिशन चलाते हैं। अगले कुछ समय बाद वही अफसर जलग्रहण मिशन, शिक्षा मिशन के डायरेक्टर हो जाते हैं। इस संरचणात्मक ढांचे में न कोई विशिष्टता है न कार्यक्रमों को लागू करने की प्रतिबद्धता। आईएएस परीक्षा पास करने वाले प्रज्ञावान अफसर एक वक्त के बाद बड़े बाबू बनकर रह जाते हैं। यह भारत जैसे देश के लिए बेहद गंभीर स्थिति है। बेहतर होगा सरकार लेटरल इंट्री पर आगे बढ़े। नागर प्रशासन, नीति निर्माण और क्रियान्वयन के लिए विशिष्टता वाली भर्ती शर्तें बनाई जाएं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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