– गिरीश्वर मिश्र
इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो स्पष्ट हो जाता है कि यह देश अतीत में सदियों तक मजहबी साम्राज्यवाद के चपेट में रहने के बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद, जो मुख्यत: आर्थिक शोषण में विश्वास करता था, के अधीन रहा। राजनैतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद एक तरह के औपनिवेशिक चिंतन से ग्रस्त अब वैश्वीकरण के युग में पहुँच रहा है। इस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन के क्षेत्र में महात्मा गांधी का ‘ हिन्द स्वराज’ सर्वाधिक सृजनात्मक उपलब्धि के रूप में उपस्थित हुआ। यह स्वयं में एक आश्चर्यकारी घटना है क्योंकि इस बीच पश्चिम से परिचय के बाद उसे अपनाते हुए हमारे मानसिक संस्कार तद्रूप होते गए। वह भाषा, व्यवहार, पहरावा तथा शिक्षा आदि सबमें परिलक्षित होता है।
स्मरणीय है कि अमेरिकी चिंतन ने यूरोप से अलग दृष्टि स्वीकार की और रूस ने भी स्वायत्त चिंतन की दृष्टि विकसित की। औपनिवेशिक भारत के लिए आत्मान्वेषण की राह बड़ी विकट थी। भारत असंदिग्ध रूप से एक अलग तरह की स्वयंपुष्ट एक लम्बी सभ्यता-यात्रा के दौरान भिन्न जीवन दृष्टि और (रिलीजन से अलग ) धर्मकेन्द्रित जीवन-चर्या वाली संस्कृति का विकास करने वाला देश था। परन्तु यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे ऐतिहासिक विपर्यास और स्मृति-दोष से ग्रस्त हुआ कि अपने स्वाभाविक सांस्कृतिक मूलों और प्रकृति-परिवेश के साथ रचनात्मक संवाद नहीं विकसित कर सका। न यही हो सका कि विदेशी विचारों को अपने अनुकूल पचा कर कोई रास्ता ढूँढा जाता और अपने स्वायत्त विकास की राह चुनी जाती। स्वामी विवेकानंद , महर्षि अरविंद और महात्मा गांधी जैसे नायकों के होने पर भी धर्मकेन्द्रित अवधारणा की उपस्थिति और पहचान के साथ अपने को न जोड़ पाना मूल्यों के भयावह संकट का कारण बना। अपने आत्मबोध को पुनर्नवा करने के लिए जिस मूल्यपरक वैचारिक क्रान्ति की जरूरत थी उससे किनारा कर लिया गया और धर्म (रिलीजन) से मुक्ति में ही कल्याण दिखने लगा। अपने आत्मबोध को वाया यूरोप समझने और आत्मसात करने की परिणति स्वायत्तता वाली सोच के विकसित होने में बाधक बनी।
गौरतलब है कि धर्मकेन्द्रित दृष्टि राष्ट्र और विश्व के बीच कोई वैमनस्य नहीं देखती। तभी गांधी जी भारत के स्वराज्य को विश्वहित के पक्ष में देखते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के अधिकाँश नायक पश्चिम की शिक्षा के अंतर्गत ही विकसित हुए थे तिस पर भी वे विरोध में खड़े हुए और उन्होंने अंग्रेजी शासन का जम कर प्रतिरोध किया। इस शिक्षा ने उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी और प्रसुप्त आत्मबोध जग पड़ा था। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी ने देश की भाषा हिन्दी द्वारा पूरे देश की आम जनता को प्रबोधित किया था। यह विलक्षण सत्य है कि गांधी जी पश्चिमी विचार, ज्ञान और धार्मिक परम्परा से प्रभावित होने और पश्चिम का मित्र होने पर भी आजीवन अपने विचारों और कार्यों में यूरोपीय सोच को जबरदस्त चुनौती देते रहे और उपनिवेशवाद को ललकारते रहे। उन्होंने सीमित उपयोगितावादी दृष्टि की जगह ‘सर्वोदय’, पश्चिमी उद्योग प्रधान सभ्यता के स्थान पर ‘स्वदेशी’ और उपनिवेशवादी अर्थ व्यवस्था के बदले ‘स्वावलम्बी’ अर्थतंत्र जिसमें ट्रस्टीशिप अधिक महत्त्व की थी, को प्रस्तुत किया।
इसी तरह उन्होंने विकेन्द्रित शासन व्यवस्था, शरीर, बुद्धि और ह्रदय को साथ लेकर समग्र विकास वाली शिक्षा व्यवस्था के माडल विकसित किए। उनका जीवन यानी मोहन से महात्मा बनने की यात्रा भारत की संस्कृति के खोये हुए आत्मविम्ब की खोज की ही यात्रा है। हमारा आत्मबिम्ब हारी अपनी निर्मिति होनी चाहिए। अपने मूल और केंद्र की तलाश तो अनिवार्य है, उसी से उद्धार हो सकेगा पर अन्य प्रभावों से मुक्त होना न संभव है न उपयुक्त। इसलिए यूरोप से संपर्क के पहले की स्थिति तो अकल्पनीय दुराशा है। आज के समकालीन ज्ञान से शून्य रह कर जीवन दुष्कर होगा। हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों के अनुकूल हल निकालना होगा। बिगाड़ करने वाली और यूरोपीय मनोवृत्ति के अनुचित आधिपत्य की बात गांधी जी ने बीसवीं सदी के शुरू में की थी। आज जिस आर्थिक साम्राज्यवाद, उपभोक्तावाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की बात प्रबुद्ध लोग कर रहे हैं वे गांधी जी के हिन्द स्वराज की मूल संकल्पना में आते हैं। गांधी जी कहते थे कि मैं बहुत सी नई चीजें लिखना चाहता हूँ लेकिन कोरी हिन्दुस्तानी स्लेट पर ही। पश्चिम से मैं उधार ले सकता हूँ पर तभी, यदि बाद में सूद समेत वह उधार पश्चिम को लौटा सकूँ।
संस्कृति की चेतना का आशय यह भी होता है कि जो परम्परा से मिला है उसे भी जांचे और पड़ताल करें। जिज्ञासा हो पर बदलाव को दिशा देने की सामर्थ्य भी होनी चाहिए। आज की समस्या यह भी है कि हममें से बहुतों को मूल्यों की अव्यवस्था और खालीपन दीखता भी नहीं है। उन्हें सांस्कृतिक गतिरोध, आत्म-बिम्ब की विकृति की संवेदना भी नहीं है। गांधी जैसे वैश्विक मानवीय चेतना वाले व्यक्तित्व के आसपास पहुँचने या जानने की बचैनी भी नहीं है। आत्मालोचन की जगह आत्म-विमुग्ध हैं और आत्म-प्रशस्ति में ही भूले हुए हैं। सांस्कृतिक आत्मविश्वास वाले आत्म-बिम्ब की उपलब्धि सांस्कृतिक और शैक्षिक कुहासे के बीच कठिनतर हो गया। आज की वैश्विक मानवीय त्रासदियाँ यह याद दिलाती हैं कि आत्महीनता और परोपजीवी वृत्ति की जड़ता से उबरना होगा और सांस्कृतिक आत्मविश्वास वापस लाना होगा।
महात्मा गांधी ने सोचा था कि स्वतंत्र भारत स्वाधीन और स्वायत्त होगा। शान्ति, अहिंसा, सत्य और सद्भाव के मूल्यों की परिधि में शासन होगा। गांधी जी मानते थे कि भारत के पास सारी दुनिया के लिए एक सन्देश है। उसे यूरोप का अन्धानुकरण नहीं करना है। भारत धर्म के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ा हो सकता है। गांधी जी कहते हैं ‘ भारत मेरे लिए दुनिया का सबसे प्यारा देश है, इसलिए नहीं कि वह मेरा देश है, लेकिन इसलिए कि मैंने इसमें उत्कृष्ट अच्छाई का दर्शन किया है। भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएं रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उसे भारत में मिल सकता है। भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।‘ वह भारत का उत्थान इसलिए चाहते थे कि सारी दुनिया उससे लाभ उठा सके। वे कहते थे कि ‘मैं यह नहीं चाहता कि भारत का उत्थान दूसरे देशों की नींव पर हो। वे भारत में रामराज्य चाहते थे- स्त्रियों को आदर और सम्मान मिलेगा और अस्पृश्यता नहीं होगी। आर्थिक दृष्टि से गांधी जी तात्कालिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त अन्य संपत्ति का उपयोग समाज के हित में करना चाहते थे।
देश में गांधी जी को स्मरण करने के बहुतेरे उपक्रम किए गए हैं। सड़क, संस्थान तथा पुरस्कार-योजना के नामों में, रूपये के नोट पर, कार्यालय में चित्र रूप में, चौराहों पर पुतले के रूप स्थापित कर हमने परिवेश को गांधीमय बनाने की कोशिश की है। बड़े अनुष्ठान के साथ हम प्रतिवर्ष जयन्ती मनाते हैं। पर सच्चाई यह भी है कि विचार की जगह गांधी जी पार्थिव बनते जा रहे हैं। आचरण और जीवन में नैतिक और दायित्वपूर्ण भागीदारी के पर्याय बन चुके गांधी को स्मरण करने का अर्थ है कि सहिष्णुता, सद्भाव, सहानुभूति, अंतिम जन की चिंता, प्रकृति से निकटता, कर्मनिष्ठा, धर्म और ईश्वर प्रियता, अनुभव की प्रामाणिकता का आदर किया जाय। ये सभी गांधी जी की अखंड सत्य की साधना को व्यावहारिक जीवन में उतारने के उपाय थे। गांधी जी ने अनुभव किया कि झूठ के लिए आवरण की जरूरत पड़ती है ताकि वह सत्य लगे। एक झूठ बोलने पर झूठ की झड़ी लग जाती है। सत्य में वाणी और व्यवहार में संगति होती है इसलिए मिथ्या का कल्पित वितान तानने का और बनाए रखने का अनावश्यक तनाव नहीं रहता है। पर सच को आंच नहीं लगती और उसे किसी तरह के आडम्बर की जरूरत नहीं पड़ती।
गांधी जी के शब्दों में ‘सत्य ही नैतिकता का मूल है और यही धर्म का आधार है। सत्य ही सर्वोच्च मूल्य है, सर्वोच्च आदर्श है और सर्वोच्च नैतिकता है।’ गांधी जी की धारणा थी कि ईश्वर सत्य है पर बाद में उन्होंने दृढ़ता से यह मत स्थिर किया कि सत्य ही ईश्वर है। वे अहिंसा को साधन कहते हैं और सत्य को साध्य। दोनों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध है। गांधी जी के शब्दों में ‘जब मैं अहिंसा को ढूँढ़ता हूँ तो सत्य कहता है मेरे द्वारा उसको खोजो, जब मैं सत्य की तलाश करता हूँ तो अहिंसा कहती है मेरे जरिये उसे खोजो।’ वस्तुत: अहिंसा, सत्य, समता, समानता, प्रेम, सादगी, सहिष्णुता, सौहार्द, अस्तेय, पवित्रता, प्रार्थना आदि गांधी जी के जिए और आजमाए ऐसे सूत्र हैं जो सार्वभौमिक महत्त्व के हैं। वे मानव स्वभाव की ऐसी नैसर्गिक जरूरतें हैं जिनके बीच से गुजर कर ही संतोषदायी सामाजिक जीवन की राह बनती है और सामुदायिक जीवन की आधारशिला स्थापित होती है।
लोक मंगल ही व्यक्ति और समुदाय के जीवन की अकेली कसौटी हो सकती है। सामाजिकता को मनुष्यता का अभिन्न अंग मानते हुए गांधी जी व्यक्तिगत स्वातंत्र्य और और सामाजिक संयम के बीच चलने पर जोर देते थे। उनकी दृष्टि में समाज की भलाई के लिए सामाजिक संयम को खुशी से मानना व्यक्ति और समाज जिसका वह सदस्य है, दोनों को समृद्ध करता है। उनका तर्क आज भी उतना ही प्रासंगिक है कि ” यदि समाज का हर एक सदस्य अपनी शक्तियों का उपयोग वैयक्तिक स्वार्थ साधनों के लिए नहीं बल्कि सबके कल्याण के लिए करें तो क्या इससे समाज की सुख-समृद्धि में वृद्धि नहीं होगी? ” आज की तीव्र वैयक्तिकता के दौर में हमारे आत्म-बोध की संभावना इसी दिशा में है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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