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भारत-चीन: सीमा विवाद और आपसी व्यापार साथ-साथ

October 27, 2021

– आर.के. सिन्हा

अब कभी-कभी लगता है कि भारत-चीन ने यह तय कर लिया है इनका जटिल सीमा विवाद का कोई हल निकले या न निकले, पर ये अपने आपसी कारोबारी संबंधों को प्रभावित नहीं होने देंगे। अब जरा देखिए कि कुछ दिन पहले पूर्वी लद्दाख के निकट एलएसी पर तनाव खत्म करने के लिए भारत और चीन के बीच 13वें दौर की कोर कमांडर स्तर की सैन्य वार्ता हुई। बैठक में कोई प्रगति नहीं हुई। भारतीय पक्ष ने विवादित क्षेत्रों के मुद्दों को हल करने के लिए रचनात्मक सुझाव भी दिए। बातचीत आगे भी जारी रहेगी, ऐसा कहा गया।

अब इससे बिलकुल हटकर यह भी खबर आई कि भारत-चीन का इस साल के पहले नौ महीनों के दौरान ही आपसी व्यापार 90 अरब रुपए तक पहुंच गया। यह पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 49 फीसदी बढ़ा है। यह जानकारी आधिकारिक रूप से भारत के विदेश सचिव श्री हर्षवर्धन श्रृंगला ने दी। तो बहुत साफ है कि भारत-चीन आपसी व्यापार बढ़ता रहेगा, भले ही सीमा विवाद का कोई स्थायी हल न निकले। यह तो साफ है कि चीनी उत्पादों का बहिष्कार करने के नारों का कोई बहुत असर नहीं हुआ। याद करें कि लद्दाख सीमा पर चीन की ओर से हिंसक झड़प करने और अतिक्रमण के बाद अखिल भारतीय स्तर पर चीनी सामान के बहिष्कार की मांग ने जोर पकड़ा था।

कड़वी हकीकत यह है कि भारत चीन से इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों तथा मोबाइल फोन कंपोनेंट्स का बहुत बड़े स्तर पर आयात करता है। हमारी फार्मा कंपनियों की चीन पर निर्भरता तो खासी अधिक है। इस निर्भरता को हम कुछ महीनों में या नारेबाजी से खत्म नहीं कर सकते। जब तक हम खुद आत्मनिर्भर नहीं हो जाते तब तक तो हमें चीन से विभिन्न उत्पादों का आयात करना ही होगा। एक बात साफ है कि कोरोना संक्रमण ने भारत के फार्मा सेक्टर को एक अनुपम अवसर दिया है कि वह अपने को आत्मनिर्भर बना ले। भारत का फार्मा सेक्टर हर साल भले ही देश-विदेश में अपनी दवाएं बेचकर अरबों रुपए कमाता है, पर हमारी फार्मा कंपनियां अपनी जेनेरिक दवाओं को बनाने के लिए क़रीब 85 फ़ीसदी एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (एपीआई) चीन से ही आयात करती है। एपीआई यानी दवाओं को बनाने के काम में आने वाला कच्चा माल। भारत में एपीआई का उत्पादन बेहद कम है और जो एपीआई भारत में बनाया जाता है उसके फ़ाइनल प्रोड्क्ट बनने के लिए भी कुछ चीज़ें चीन से मंगानी ही पड़ती है।

तो जान लें कि भारत की फार्मा कंपनियां एपीआई के उत्पादन के लिए भी चीन की तरफ ही देखती हैं। किसी भी फार्मा कंपनी की पहचान इस आधार पर की जाती है कि वह कितनी नई जीवनरक्षक दवाओं को ईजाद कर रही हैं ? अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारी फार्मा कंपनियों ने अपने को विश्वस्तरीय बनाने की कभी इच्छा ही नहीं दिखाई। उनका एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना ही रहा है। वे आमतौर पर नई औषधियां विकसित करने में यकीन नहीं रखती। हां, इन कंपनियों ने कोरोना के टीके विकसित करके अपनी छवि को उजला किया। इस लिहाज से भारत सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, भारत बायोटेक, डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज, जाइडस कैडिला, बॉयोलॉजिकल ई, जेन्नोवा बायोफार्मा और पैनेसिया बायोटेक जैसी कंपनियों का कृतज्ञ रहेगा। एपीआई विकसित करने के लिए ही भारत सरकार ने सत्तर के दशक में आईडीपीएल (इंडियन ड्रग्स एंड फर्मास्यूटिकल लिमिटेड) की स्थापना की थी लेकिन, कुशासन और भ्रष्टाचार से ग्रस्त होकर इसकी ऋषिकेश, मुजफ्फरपुर आदि सारी फैक्ट्रियां बंद पड़ी हैं।

देखिए भारत-चीन के बीच आपसी व्यापार तो कुलांचे भर रहा है, पर इससे भारत को फायदा नहीं हो रहा है। नुकसान इस लिहाज से होता है कि हम उससे जितना माल खरीदते हैं, उस तुलना में बेहद कम उसे बेचते हैं। हमारा चीन के साथ कुछ साल पहले तक व्यापार घाटा 29 अरब रुपए तक का हो गया था। विदेश सचिव श्री हर्षवर्धन श्रृंगला भी मानते हैं कि इस व्यापार घाटे को संतुलित करने की जरूरत है। भारत जिस भी चीज का निर्यात कर सकता है, उसको उसे अपने लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद जगह पर अच्छी से अच्छी कीमत लेकर ही बेचना चाहिए। भारत को अपनी जरूरत की चीजें भी ऐसे ही देशों से ही आयात करनी चाहिए, जहां वे कम से कम कीमत पर उपलब्ध हों। भारत को कतई बिजली के सजावटी सामानों से लेकर कपड़ों और मूर्तियों वगैरह का कभी भी चीन से आयात नहीं करना चाहिए । क्योंकि, यह सब तो हमारे कुटीर उद्योग बना सकते हैं। अब दीपोत्सव आ रहा है। आपको याद होगा कि कुछ साल पहले तक दिवाली के मौके पर हमारे बाजार चीनी पटाखों से अट जाया करते थे। लेकिन भारत सरकार ने विदेशी पटाखों की बाजार में बिक्री को अवैध करार कर दिया है। विदेशी पटाखों से मतलब चीनी पटाखों से ही है। इससे शिवाकाशी (तमिलनाडु) के परम्परागत पटाखा उद्योग में नई जान आ जायेगी।

भारत से चीन से वह बनी-बनाई चीजें, खासकर तरह-तरह की मशीनरी, टेलिकॉम उपकरण और बिजली के सामान और खिलौने, इलेक्ट्रिकल मशीनरी व उपकरण, मैकेनिकल मशीनरी व उपकरण, प्रोजेक्ट गुड्स, आर्गेनिक केमिकल और लौह व इस्पात आदि प्रमुख चीजें मंगाता है। उधर, भारत मुख्य रूप से चीन को लौह अयस्क और कुछ अन्य खनिजों का निर्यात करता है।

तो बात ये है कि भारत- चीन व्यापार तो तबतक बढ़ता रहेगा जब तक हम अपने को आत्मनिर्भर नहीं कर लेते। इसके साथ ही दोनों देश सीमा विवाद को हल करने की भी कोशिश करते रहेंगे। सबसे सुकून देने वाली बात यही है कि दोनों देश कम से कम आपस में बात तो कर रहे हैं। बात से बात निकलेगी और वह दूर तक जाएगी।

पर हमें एक बात का ध्यान तो रखना होगा कि भारत-चीन के बीच चल रही ताजा तनातनी के बीच हमें किसी भी हालत में यह सुनिश्चित करना है कि भारत में बसे चीनी मूल के नागरिकों के साथ किसी भी तरह की कोई नाइंसाफी या अत्याचार न हो। वे भारत में लगभग सौ सालों से ज्यादा से बसे हुए हैं। भारत में हजारों चीनी नागरिक देश के सभी शहरों में सक्रिय हैं। ये डेंटिस्ट हैं, कारोबारी है और नौकरी भी करते हैं। इनमें से कुछ बेहद विख्यात हैं। उदाहरण के रूप में दिल्ली यूनिवर्सिटी और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी बिरादरी प्रो.तान चुंग के नाम से परिचित है। उन्होंने ही पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी और फिर जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के चीनी विभाग स्थापित किए थे।

वे कहते रहे हैं कि भारत-चीन को अपने सीमा विवाद को हल करने को लेकर बहुत विलंब नहीं करना चाहिए। बिना सीमा विवाद हल किए संबंधों में तनाव बना रहेगा। साल 2011 में पदम विभूषण से सम्मानित डॉ. तान चुंग की राय रही है कि सीमा मसले को हल करने की दिशा में दोनों देशों को प्रो-एक्टिव रुख अपनाना होगा। प्रो. तान चुंग की पत्नी भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थीं। उनके पिता गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगौर के निमंत्रण पर भारत में आकर बस गए थे। लगता तो यही है कि फिलहाल दोनों देश वार्ता और व्यापार साथ-साथ करते रहेंगे।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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