तेल अवीव। मध्य पूर्व (Middle East) के दो कट्टर दुश्मनों (two arch enemies) इजरायल (Israel) और ईरान (Iran) के बीच अगर जंग शुरू होती है तो मध्यस्थता के लिए दोनों पक्ष जिस पर भरोसा करेंगे वो चीन, रूस या अमेरिका नहीं बल्कि भारत (India) होगा। इजरायली थिंक टैंक (Israeli think tank) का ऐसा मानना है और इसके पीछे मजबूत वजह है। ऐतिहासिक रूप से ईरान के साथ भारत के अच्छे संबंध रहे हैं। 1947 से पहले भारत की सीमाएं ईरान के साथ जुड़ती थीं। आज भी दोनों के बीच मजबूत व्यापारिक संबंध हैं, खासतौर पर ऊर्जा और ढांचा निर्माण के क्षेत्र में। भारत ने हाल ही में ईरान में स्थित रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह का 10 साल के लिए संचालन अधिकार हासिल किया है। इसके साथ ही भारतीय कंपनियां ईरान से सस्ता तेल खरीदती हैं।
हाल के वर्षों में भारत ने इजरायल के साथ संबंधों को भी मजबूत किया है। दोनों के बीच मजबूत रक्षा सहयोग स्थापित है। यरुशलम स्ट्रैटेजिक ट्रिब्यून में एक लेख के अनुसार, हाल ही में इज़राइल के विदेश मंत्री इज़राइल काट्ज ने अपने भारतीय समकक्ष एस जयशंकर से बात की थी। काट्ज ने रिवोल्यूशनरी गार्ड्स को आतंकवादी संगठन के रूप में घोषित करने और ईरान के मिसाइल कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की। उन्होंने भारत से ईरानी आक्रमण को विफल करने के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ जुड़ने का आग्रह किया।
फिलिस्तीन पर भारत का तटस्थ रुख
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 अक्टूबर को इजरायल में हुए नरसंहार की कठोरता से निंदा की थी। भारतीय नेता ने इसे आतंकवादी हमला बताया था। इसके साथ ही नई दिल्ली ने इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को लेकर अपनी द्विराष्ट्र समाधान को लेकर अपनी पुरानी प्रतिबद्धता भी दोहराई। भारत ने ईरान के साथ अपने संबंधों में गर्माहट बनाए रखी है। इसमें भारतीय अधिकारियों की तेहरान की यात्राएं और प्रशासन के सार्वजनिक बयान शामिल हैं।
भारत को होगा फायदा
इसी साल जनवरी में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ईरान की दो दिवसीय यात्रा की थी। उन्होंने तत्कालीन ईरानी विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्लुल्लाहियान से मुलाकात की थी। आज इजरायल और ईरान दोनों के लिए नई दिल्ली तटस्थता का प्रतीक है। भारत ने यह विश्वास विभिन्न चरणों में हासिल किया है, जिसमें उसकी स्वतंत्र विदेश नीति की अहम भूमिका है। जैसे-जैसे इजरायल और ईरान के बीच तनाव बढ़ता जा रही है, भारत संभावित संघर्ष में पुल का काम कर सकता है। यह नई दिल्ली के लिए फायदेमंद होगा। यह भूमिका संयुक्त राष्ट्र में उसकी स्थायी सीट की मांग को मजबूत कर सकता है।
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