– गिरीश्वर मिश्र
स्वाधीन भारत को राजनैतिक स्वतंत्रता मिले अब तिहत्तर साल हो रहे हैं। राष्ट्रीय जीवन में इस युगान्तरकारी परिवर्तन को सम्भव बनाने में जिन सामाजिक-राजनैतिक नायकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें महात्मा गांधी का नेतृत्व असंदिग्ध रूप से सर्वप्रमुख है। एक आदर्श व्यवहारवादी चिंतक के रूप में वे देश-विदेश में अध्ययन, अनुभव और चिंतन के दौरान मनुष्य होने के आशय और राष्ट्र के स्वरूप को लेकर गहन मंथन करते रहे। वे धर्म, राज्य, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद और लोकतंत्र जैसी व्यवस्थाओं के विभिन्न आयामों की आलोचनात्मक व्याख्या करते रहे और पचाते रहे। उनकी खूबी यह भी रही कि वे अपने विचारों और अनुभवों को निरंतर लिखते भी रहे जो आमतौर पर सार्वजनिक जीवन के लोगों के लिए व्यस्तताओं के कारण सम्भव नहीं होता है। उनका लेखन अब सौ खंडों में प्रकाशित है और वे जब कहते हैं कि ‘मेरा जीवन एक खुली किताब है’ तो वह उसे उपलब्ध भी कराते हैं। दक्षिण अफ्रीका में इक्कीस वर्ष बिताने के दौरान गांधी जी में सामाजिक और राजनैतिक कौशल खराद पर चढ़े। वहां नेतृत्व, सामाजिक नेटवर्किंग और अखबार का सम्पादन किया। उनके विचारों में दृढ़ता भी आई। 1909 में उन्होने समुद्र में पानी की जहाज पर ‘हिंद स्वराज’ नामक एक छोटी-सी संवादों में गुंथी एक लघु पुस्तक गुजराती में लिखी थी, जिसमें भारत के भविष्य का खाका खींचा और तत्कालीन पश्चिमी सभ्यता की उत्तेजक समीक्षा भी की थी। जब वे 1914 में भारत लौटे तो अंग्रेजों के औपनिवेशिक भारत की क्रूर विसंगतियों से परिचित थे, भारत के स्वराज को लेकर उनकी अपनी सोच भी थी और भारत भी उनसे परिचित हो चुका था। यहां पहुंचकर उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया और यहां के सामाजिक यथार्थ का निकट से पता लगाया। साथ ही उन्होंने खुद को भारत के साथ जोड़ा। वेशभूषा , खान-पान, चलना, हंसना, उनकी लाठी, उनकी गोल ऐनक और आगे चलकर चरखा, खादी और गांधी टोपी सबकुछ भारत के प्रतीक बनते गए। भारत की अपनी संस्कृति की छाप इनमें थी। खुद गांधी भारत के प्रतीक बन गए। उनके प्रयास और गहरी संलग्नता का परिणाम था उनकी अथाह लोकप्रियता जो उन्होंने अपने ईमानदार प्रयास से कमाई थी।
महात्मा गांधी के पहले ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग बाल गंगाधर तिलक ने किया था पर उसका तर्कपूर्ण सैद्धांतिक विस्तार और राजनैतिक जीवन में बखूबी उपयोग गांधी जी ने किया और वह उनके विमर्श और कार्य-नीति का केंद्र बिंदु बन गया। इसके लिए उन्होंने सत्य और हिंसा के अस्त्र से गुलामी से मुक्ति यानी स्वतंत्रता की लड़ाई का अद्भुत प्रयोग किया परंतु इस पूरे आयोजन में गांधी जी स्वतंत्रता को लक्ष्य नहीं साधन मानते थे। अंग्रेजों से स्वाधीनता स्वराज के स्वप्न के लिए उपाय थी। गांधी जी के लिए भारत कर्मभूमि न कि भोगभूमि थी। वे आत्मिक बल (सोल फोर्स) से लड़ाई लड़ने के पक्षधर थे और हर तरह से हिंसा का विरोध कर रहे थे। उनका भरोसा था कि भारत की स्वतंत्रता का इतिहास युद्ध और शांति का अर्थ बदल देगा। वे भारत को भौतिक सुख की खोज को समर्पित यूरोप की सभ्यता की प्रतिलिपि बनाने के सख्त खिलाफ थे। इसके विपरीत ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ उनको बड़ा प्रिय था। उन्हें ऐसे भारत की रचना करनी थी जिसमें देश के गरीब को भी लगे कि यह देश उसी का है। ऊंच-नीच के भेद से परे सौहार्द के साथ रहना ही स्वराज का अभीष्ट था। इसमें दी जाने वाली शिक्षा शरीर, बुद्धि, हृदय और आत्मा सबके विकास का अवसर देगी। भारत अस्पृश्यता, शोषण और शराबखोरी जैसे सामाजिक दोषों से मुक्त हो सकेगा। यहां स्त्रियों का शोषण नहीं होगा। मशीन का सीमित प्रयोग होना चाहिए अन्यथा मानव श्रम के विस्थापन की समस्या खड़ी होगी। हाथ से काम न लेने से श्रम की बचत तो होती है पर व्यापक औद्योगिकीकरण से शोषण बढ़ता है। गांधी जी की सोच में सभ्यता का अर्थ जरूरतों का बढ़ाना न होकर उनको सोच विचार कर नियंत्रित करने या कम करने में है। उसी से असली सुख और संतुष्टि मिल सकती है। गांव समर्थ और स्वावलम्बी होंगे। यह सब विचार कर गांधी जी ने स्वयंसमर्थ गावों की संकल्पना की और सेवा के जीवन को श्रेष्ठ माना। आर्थिक दृष्टि से सामुदायिक नेतृत्व और न्याय की व्यवस्था भी स्थानीय होनी चाहिए। यह कम खर्च वाली और आसान होगी।
इस तरह के स्वराज के लिए गांधी जी आत्मानुशासन को बेहद जरूरी मानते थे। स्वराज का अर्थ ही है अपने ऊपर अपना नियंत्रण (ठीक इसके विपरीत स्वतंत्रता का अर्थ अक्सर नियंत्रण से मुक्ति या छूट के अर्थ में किया जाता है)। आत्म-प्रबंधन आंतरिक शक्ति से आता है जिसकी उपलब्धि व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर अभीष्ट है। स्वराज में बिना किसी भेदभाव के गरीब और अमीर सब किसी का होता है और सबकी जीवन की आवश्यक जरूरतों की पूर्ति होती है। तभी निजी लाभ और अन्य सरोकारों से ऊपर राष्ट्रहित को महत्व देना संभव होगा। यही न्यायसंगत भी होगा। इसमें स्वस्थ और सम्मानजनक स्वाधीनता मिलती है। गांधी जी स्वराज के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक पक्षों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं जिनको सत्य और अहिंसा की सहायता से प्राप्त किया जा सकता है। गांधी जी के विचार में अधिकार को व्यक्ति कर्तव्य कर के अर्जित करता है और उसका उपयोग सेवा के लिए किया जाता है। इस तरह नागरिक कर्तव्यों के वहन करने के द्वारा व्यक्ति को अधिकार मिलते हैं। स्वतंत्र भारत शांति और सद्भाव को स्थापित करेगा और इस देश का उत्कर्ष समस्त मानवता के कल्याण के लिए होगा। गांधी जी देशभक्ति को व्यापक अर्थ देते हुए मानव-भक्ति और उससे भी आगे बढ़कर पूरे जीव जगत के लिए मानते हैं। स्वराज अंतत: पूरे विश्व की सेवा के लिए है।
गांधी जी इस बात से अवगत थे कि मानवीय संस्थाओं के संचालन में जोखिम होते हैं जो उनके आकार के साथ बढ़ते जाते हैं। संस्था जितनी बड़ी होती है उसके दुरुपयोग के अवसर भी उतने ही अधिक होते हैं। प्रजातंत्र के साथ भी यह बात लागू होती है। अत: उसके दुरुपयोग की संभावना को कम करना जरूरी है। गाधी जी भारत के लिए हिंसा की पश्चिमी दुनिया की युक्ति के बदले शांति के मार्ग को अपनाने को कहते हैं। वे अहिंसक स्वराज की तजबीज करते हैं जिसमें किसी के अधिकार का हनन नहीं होगा। गांधी जी यह भी कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय होने के पहले देश को राष्ट्रीय होना होगा। वे राष्ट्रवाद को दोष नहीं देते पर संकुचित और स्वार्थी दृष्टि के विरुद्ध थे जो दूसरे के विनाश द्वारा अपना सुख ढूंढती। भारत की आत्माभिव्यक्ति व्यापक मानवतावादी सेवा के लिए है। यहां के लोगों की सेवा से ही विश्वसेवा होगी।
गांधी जी की मानें तो अनुशासित और प्रबुद्ध प्रजातंत्र ही श्रेष्ठ प्रणाली है जिसमें हिंसा, पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों को स्थान नहीं होता है और दूसरों के विचारों को आदर मिलता है। उसमें अहिंसक श्रम शक्ति को सम्मान मिलता है। व्यक्तिस्वातंत्र्य मूल्यवान है परंतु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अत: निजता को भी सामाजिक विकास के साथ समायोजित करना पड़ेगा, सामाजिक प्रतिबंध की व्यवस्था समाज के कल्याण के लिए होती है और व्यक्ति समाज की इच्छा से परिसीमित होता है। हमने स्वतंत्र भारत की लम्बी यात्रा पूरी की है। तरह-तरह के उतार-चढ़ाव के साथ हमारी अनेक उपलब्धियां हैं पर स्वराज के आईने में झांकने पर हमें बहुत कुछ ऐसा भी दिखता है जो हमें असहज कर देता है। आज हम सब राष्ट्र निर्माण के लिए तत्पर हो रहे हैं। इस बेला में हमें देखना होगा कि हम उन गलतियों से कैसे बचें जो घुन की तरह देश की सामर्थ्य को दुर्बल कर रही हैं। महात्मा गांधी के लिए नैतिकता ही सबसे बड़ी कसौटी थी और वह आज भी बहुमूल्य है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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