– सोनम लववंशी
इस बार 15 अगस्त को हम देश की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहें हैं। बेशक यह हम सभी भारतीयों के लिए गर्व की बात है। इस आजाद भारत में महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती नजर आ रही है। हमारे देश की महिलाओं ने धरती से लेकर आसमान तक अपने नाम का लोहा मनवाया है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे बुलंद ना किए हो लेकिन इन सबके बावजूद एक दर्दनाक पहलू यह भी है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की अनदेखी की जा रही है। यह एक ऐसा अभिशाप है, जिसे महिलाओं के जन्म के साथ ही उनके मुकद्दर में लिख दिया जाता है।
एक अध्ययन से इस बात की जानकारी मिलती है कि आने वाले 10 सालो में लिंग परीक्षण के कारण दुनिया में 50 लाख लड़कियों की कमी हो जाएगी तो वही इस सदी के अंत तक बेटों की चाहत में 2.2 करोड़ बेटियां कम पैदा होने का अनुमान लगाया जा रहा है। मेडिकल जनरल ग्लोबल हेल्थ (बीएमजे) के अध्ययन में यह दावा किया गया है कि लिंग चयन के दुष्परिणाम के कारण 10 वर्षों में 4.7 मिलियन लड़कियां कम पैदा होगी। अब सवाल यह उठता है कि 21 वीं सदी में भारत में जहां हम समता और समानता की बात करते है। फ़िर जन्म से पहले ही लड़का-लड़की का भेद क्यों?
हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के बीच कुछ ऐसे प्रावधान हैं कि वे महिलाओं को पुरुषों के समान समानता का अधिकार प्रदान करने की वकालत करते हैं। फ़िर इन सबके बावजूद महिलाओं की स्वतंत्रता महज कोरी कल्पना ही क्यों प्रतीत होकर रह जाती है। एक दुखद पहलू यह भी है कि आज भी महिलाओं के प्रति समाज की सोच नहीं बदल पा रही है। जिसका कारण भी कहीं न कहीं समाज पर पितृसत्तात्मक सोच का हावी होना है।
गौरतलब हो कि समाज के सृजन में महिला और पुरुषों का समान योगदान है फिर ऐसी क्या वजह है कि महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका जाता रहा है। जीवन के रंगमंच पर महिला और पुरुष एक ही धुरी के समान चलते हैं। किसी एक के बिना दूसरे के जीवन की कल्पना आधारहीन है। फिर क्यों महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं मिल पाता है? यह सवाल आज भी विचारणीय है। आज महिलाएं घर-गृहस्ती संभालने के साथ-साथ अंतरिक्ष तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। घर परिवार की जिम्मेदारी हो या फिर बात व्यापार क्षेत्र की ही क्यों न हो महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वह हर क्षेत्र में परिपूर्ण है। लेकिन नारी सशक्तिकरण की वकालत करते हुए इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि आज जिन क्षेत्रों में पुरुषों का वर्चस्व है उसकी महत्ता को चुनौती देने का कार्य कहीं न कहीं पूर्णरूप से आज़ादी न होने पर भी महिलाएं कर रही हैं। यही वजह है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को अधिकार देने के पक्ष में कमतर ही नजर आते हैं। महिलाओं के लिए बनाई जा रही तमाम योजनाएं इस बात की गवाह है कि उनके साथ कहीं ना कहीं समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। बात चाहे घरेलू हिंसा की हो या फिर बाल विवाह या स्त्री शिक्षा की ही क्यों ना हो यह हमारे समाज की एक कड़वी हकीकत को बयान करने के लिए काफी है।
कोरोना काल के परिपेक्ष्य में ही बात करें तो बेशक दुनिया का हर वर्ग इससे प्रभावित हुआ हो पर महिलाओं के लिए यह एक अभिशाप बनकर सामने आया है। इस दौरान विश्व भर में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक रोजगार गंवाना पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2012 से 2019 के बीच में महिला श्रमिक बल की भागीदारी बढ़ी है। लेकिन भारत एकमात्र अपवाद देश रहा है। जहां महिला श्रम शक्ति में गिरावट दर्ज की गई है। ऐसी क्या वजह रही जो भारत की महिलाओं के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार किया गया? सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामिक (सीएमआईई) की साल 2019 की रिपोर्ट भी इस बात की ओर इशारा कर रही है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 13.9 प्रतिशत नौकरी का नुकसान उठाना पड़ा। अचरज की बात तो यह है कि अधिकतर पुरुषों ने कोरोना काल में अपनी नौकरियां वापस प्राप्त कर ली तो वहीं महिलाओं की किस्मत इस मामले में भी ठीक नहीं रही। अधिकतर महिलाओं को कोरोना काल में अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
बता दें कि विश्व आर्थिक संघ ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 में भी कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं के वेतन संबंधी समानता में 257 वर्षों का समय लग सकता है। यह रिपोर्ट कहीं ना कहीं पुरुषवादी वर्चस्व की ओर इशारा करती है। हाल ही में विश्व बैंक ने भी महिला कारोबार और कानून 2021 को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में यह साफ कहा गया है कि संपूर्ण दुनिया में केवल 10 देश ही ऐसे हैं। जहां महिलाओं को पूर्ण अधिकार देने की बात कही जा रही या वे देश इसमें सक्षम हैं। भारत इस रिपोर्ट में 190 देशों की सूची में 129 वें स्थान पर है। हमारे देश में आज भी महिलाओं को समान वेतन, मातृत्व, उधमिता और संपत्ति जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। देश में एक तरफ तो महिला स्वतंत्रता और सम्मान की बात की जाती है तो दूसरी ओर महिलाओं पर हिंसा और रेप के ग्राफ में कहीं कोई कमी नजर नहीं आती है। जिस देश में महिलाओं को देवी के समान दर्जा दिया गया है वहां इस तरह का दुर्व्यवहार होना कई सवाल खड़े करता है। सवाल यह भी उठता है कि महिलाओं से घरेलू सामान खरीदने में तो राय ली जाती है लेकिन जब प्रॉपर्टी में निवेश की बात आती है तो उन्हें बोलने का अधिकार तक नहीं दिया जाता है। यह कैसी विडंबना है जहां परिवार की इज्जत महिलाओं के हाथ में होती है तो वही प्रॉपर्टी के कागजात पुरुषों को दिए जाते हैं?
स्वामी विवेकानंद जी ने एक बात कही थी कि हमें संगठित होकर जागना होगा तभी महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोका जा सकता है। महिलाएं आज खेल के मैदान से लेकर देश की राजनीति में अपना योगदान दे रही है। लेकिन यह कड़वा सच ही है कि आज भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में प्रतिनिधित्व करने का मौका कम ही मिल पाता है। देखा जाए तो हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। आधी आबादी पर भी यही बात लागू होती है। देश की नारियों ने भले ही है नित नए कीर्तिमान हासिल कर लिए हो लेकिन अब भी उनके लिए चुनौतियां कम नहीं है। मेरिट लिस्ट में भले ही हमारे देश की बेटियां नाम रोशन कर रही हैं। बेटों को पीछे छोड़ रहीं हैं, लेकिन जब महिला और पुरुषों के अनुपात की बात आती है तो फर्क साफ नजर आ जाता है। ऐसे में सवाल यही कि ऐसे ही अगर बच्चियों को पैदा होने ही नही दिया जाएगा, फ़िर कैसे यह समाज आगे बढ़ पाएगा? इस विषय पर मंथन इस बार जरूर होना चाहिए।
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