– डॉ. अजय खेमरिया
संवैधानिक संस्थाएं और लोकतंत्र 2014 से पहले खतरे में क्यों नहीं थे? अचानक ऐसा क्या हुआ है कि देशभर में एक वर्ग ऐसा वातावरण बनाने में जुटा है मानो भारत में तानाशाही आ गयी। दुहाई लोकतंत्र की दी जा रही है लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया या संवैधानिक प्रावधानों पर खुद इस तबके को भरोसा नहीं। असल में यह भारत के नए समावेशी लोकतंत्र को अस्वीकार करने का सामंती प्रलाप है। देश की संसदीय राजनीति और संस्थाओं को एकपक्षीय विचार से संचालित करने वाला कतिपय उदारवादी बौद्धिक जगत, नए भारत की व्यवस्थाओं से बेदखल होता जा रहा है। यह बेदखली भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के धरातल पर हो रही है। अल्पसंख्यकवाद और तुष्टीकरण पर खड़ी की गई भारतीय शासन और राजनीतिक व्यवस्थाओं के कमजोर होने से यह बौद्धिक गिरोह अब उन्हीं संस्थाओं को निशाने पर ले रहा है जो कभी इनके एजेंडे को आगे बढ़ाने में सहायक थी।
वकील प्रशांत भूषण के ताजा अवमानना प्रकरण को व्यापक संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। यह प्रकरण महज अवमानना भर का नहीं बल्कि वामपंथ एवं कांग्रेस विचारधारा का विषैला और भारत विरोधी चेहरा भी उजागर करता है। सुप्रीम कोर्ट से सजा सुनाए जाने के बाद “स्वराज अभियान” के योगेंद्र यादव ने “कैम्पेन फ़ॉर ज्यूडिशियल अकाउंटबिलिटी एंड रिफॉर्म” शुरू करने का एलान किया। इस अभियान में अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए देशभर से एक-एक रुपया एकत्रित करने का आह्वान है। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की राजनीतिक प्रतिबद्धता किसी से छिपी नहीं है। सवाल यह उठाया जा सकता है कि देश में करोड़ों मुकदमे वर्षों से लंबित हैं लेकिन अकाउंटबिलिटी का सवाल इस अर्थ में पहले नहीं उठाया गया।
भूषण एन्ड कम्पनी खुद देश की सर्वोच्च अदालत को अपने दबाव में लेती रही है। किसी भी मामले में जब इन्हें मनमाफिक निर्णय की उम्मीद नहीं होती तो सुनियोजित तरीके से बाहर आकर कोर्ट और जज के विरुद्ध चिल्लाने लगते हैं और जब फैक्ट के आधार पर निर्णय आ जाते हैं तब यही भूषण खुद को गांधी बनाने में जुट जाते हैं। समस्या इस बार जस्टिस अरुण मिश्रा को लेकर इसलिए खड़ी की गई क्योंकि वे भूषण के दबाव में नहीं आये। जस्टिस मिश्र की कोर्ट में भूषण के अधिकतर मामले लिस्टेड होने पर देश का सुप्रीम कोर्ट खराब हो जाता है लेकिन तथ्य यह है कि प्रशांत भूषण जब गुजरात दंगों या अमित शाह से जुड़े मामले जस्टिस आफताब आलम के यहां लिस्टेड कराते रहे तब सुप्रीम कोर्ट निष्पक्ष और स्वतंत्र था?
जाहिर है, अभिव्यक्ति की आजादी या न्यायिक जवाबदेही के बहाने उठाये गए सवाल देशहित से जुड़े न होकर घोषित एजेंडे का क्रियान्वयन भर है। इसलिए सवाल यह है कि क्या वाकई देश में संवैधानिक संस्थाएं और लोकतंत्र संकट में है? क्या प्रशांत भूषण, राजीव धवन या राहुल गांधी और उनके समवेत एकेडेमिक्स ही सुप्रीम कोर्ट के रखवाले हैं? इन सवालों को हमें इतिहास और वर्तमान के बदले हुए वातावरण में देखना चाहिये। तथ्य यह है कि 2014 के बाद यानी केंद्र में नरेन्द्र मोदी को जनता द्वारा सत्ता सौंपने के साथ ही बौद्धिक राजनीतिक जगत में इस जनादेश को खारिज करने के सतत प्रयास चल रहे है। देश में जनता पार्टी, संयुक्त मोर्चा और यूपीए की सरकारें भी रही लेकिन सवाल केवल मोदी सरकार के वोट परसेंट पर उठाया जाता है। तब भी जब 2019 में जनता ने 2014 से बड़ा बहुमत मोदी को सौंपा। मोदी सरकार के नीतिगत निर्णयों पर अराजकता पैदा करना ही भूषण एन्ड कम्पनी का असली मंतव्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के दौरान मोदी सरकार के विरुद्ध याचिकाएं लेकर आये प्रशांत भूषण को चेतावनी जारी कर कहा था कि आप पीआईएल लेकर आये हैं या पब्लिसिटी याचिका। कोर्ट ने यहां तक कहा कि यह नहीं चल सकता है कि हम आपके मुताबिक निर्णय दें तो ठीक, नहीं तो कोर्ट पक्षपाती। सच्चाई यह है कि राममंदिर, राफेल, तीन तलाक, पीएम केयर फ़ंड, सीएए, अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम अदालत के निर्णय मोदी विरोधियों के मुताबिक नहीं हुए। सामाजिक कार्यकर्ता के वेष में सक्रिय लोगों का बड़ा तबका इस स्थिति से परेशान है। एक धारणा गढ़ी जा रही है कि “जज” डरे हुए हैं। लोकतंत्र खतरे में है और यह देश में पहली बार हो रहा है।
हकीकत यह है कि 2014 के बाद से देश में अभिव्यक्ति की आजादी और संवैधानिक संस्थाओं की अक्षुण्णता प्रखरता से बढ़ी है। अतीत में भारत की न्यायिक आजादी खंगालने की कोशिश करें तो पता चलता है कांग्रेस और प्रशांत भूषण जैसे गिरोहों ने कोर्ट्स को सदैव सत्ता की पटरानी बनाने के प्रयास किया है। जिन जजों ने अतीत में कांग्रेस सरकारों की बादशाहत को चुनौती दी उन्हें अपमानित कर ठिकाने लगा दिया गया। जबकि सुप्रीम कोर्ट में पदस्थ रहते हुए प्रेस कांफ्रेंस करने वाले जस्टिस रंजन गोगोई मोदी दौर में ही चीफ जस्टिस बने। इंदिरा गांधी ने तो खुलेआम बहुमत के बल पर प्रतिबद्ध न्यायपालिका और ब्यूरोक्रेसी को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता घोषित किया था। केशवानंद भारती मामला भारत में लोकतंत्र की हत्या कर इंदिरा गांधी द्वारा न्यायाधीश को भयादोहित, नियंत्रित और कब्जाने की नजीर है।
आपातकाल का दंश देने वालों को इसके अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में नजर आती है तो इसके निहितार्थ हमें समझने होंगे। शाहीन बाग से लेकर जेएनयू, एमएमयू, जामिया में देश को तोड़ने तक की तकरीरें खुलेआम दी जाती हैं फिर भी भारत में एक वर्ग को डर लगता है। सच तो यह है कि संवैधानिक संस्थाओं और लोकतंत्र को जेबी बनाने के उपक्रम मोदी दौर से पहले बड़ी ठसक के साथ होते रहे हैं। 1975 का आपातकाल हो या 356 के जरिये संघीय ढांचे को खत्म करना, कांग्रेस और वामपंथ ने देश की जनभावनाओं का कभी ख्याल नहीं रखा। आज अभिव्यक्ति की आजादी के माहौल में लिबरल्स ने अपने सुगठित एवं विस्तृत सूचना एवं प्रचार तन्त्र से ऐसा माहौल बनाने की कोशिशें की है जो मिथ्या, मनगढ़ंत और फर्जी है। सुखद पक्ष यह है कि देश की अधिसंख्य जनता भूषण सरीखे उदारवादियों के वास्तविक एजेंडे को समझ चुकी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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