– डा. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
जयपुर में कर्ज से परेशान एक सर्राफा व्यापारी द्वारा पत्नी और दो बच्चों के साथ आत्महत्या का समाचार अंदर तक झकझोरने वाला, मानवता के लिए शर्मनाक और गंभीर चिंता का विषय है। गौर किया जाए तो पिछले दिनों इस तरह के समाचार देशभर में देखने को मिल जाएंगे। दरअसल, कोरोना ने सबकुछ बदल कर रख दिया है। कोरोना के कारण जिस तरह आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुई हैं और उद्योग-धंधों व रोजगार पर असर पड़ा है, उसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। एक बात समझ से परे है कि जब सारी दुनिया में ही नवंबर-दिसंबर, 2019 से कोरोना ने प्रभाव दिखाना आरंभ किया और हमारे देश में जिस तरह से कोरोना के कारण मार्च माह से लाॅकडाउन का दौर चला, उससे व्यक्ति घर पर बंद होकर रह गया तो ऐसी स्थिति में जीडीपी की गिरावट की बात आज किस आधार पर की जा रही है। जब सबकुछ ठप हो गय तो फिर कल-कारखाने कहां से चलेंगे, कहां से उत्पादन और विपणन होगा। दरअसल आर्थिक गतिविधियों के ठप होने से उसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं।
आजादी के 75 साल बाद भी देश में सूदखोरी की अंतिम परिणति मौत को गले लगाना ही हो तो इससे अधिक दुर्भाग्यजनक और शर्मनाक क्या हो सकता है। कर्ज का बोझ नहीं सह पाने के कारण अब सामूहिक आत्महत्या का दौर चल पड़ा है। यह अपने आपमे चिंता का कारण है। देश में इस तरह की घटनाएं आम हैं। बैंकिंग क्षेत्र के इतने विकास और आसान शर्तों पर कर्ज की सरकारी घोषणाओं के बावजूद सूदखोरों को जाल फैला हुआ है तो यह सरकार और समाज दोनों के लिए शर्मनाक स्थिति है।
कर्ज के जाल में फंसकर आत्महत्या करनेवालों में मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग के रहे हैं लेकिन देश-दुनिया में सूदखोरों के चंगुल से बचाकर गरीब और साधनहीन लोगों की रुपए पैसे की जरूरतों को पूरा करने के लिए सारी दुनिया चिंतित रही है। सरकार ने आर्थिक पैकेज के तहत बैंकों की किस्तें तो आगे बढ़ा दी पर लोगों द्वारा सूदखोरों द्वारा या व्यापारिक लेन-देन में फंसा रुपया लेने या वापस देने में असुविधा के कारण जो तनाव हो रहा है, उसे सहन नहीं कर पाने के कारण आत्महत्या का दौर चल निकला है।
प्रश्न यह है कि देश में गरीब और साधनहीन लोगों के साथ ही कारोबारियों को आसानी से ऋण उपलब्ध कराने की सरकारी- गैर सरकारी बैंकों की योजनाओं के बावजूद सूदखोरों का रैकेट देश के सभी इलाकों में कैसे जारी है। हालांकि वर्तमान परिस्थितियां कोरोना के कारण उत्पन्न हुई है। हालात यह है कि जिसने किसी को सामान दिया है वह उसका पैसा लेने का तकादा कर रहा है तो दूसरा जिसने किसी से सामान या पैसा किसी भी रूप में ले रखा है उसके सामने वापस लौटाने का संकट है। जयपुर में परिवार के साथ सामूहिक आत्महत्या का हालिया प्रकरण लगभग इसी तरह का है। एक तरफ एक करोड़ की लेनदारी थी तो दूसरी और डेढ़ करोड़ की देनदारी। देनेवाले दे नहीं रहे थे तो लेने वाले दबाव बना रहे थे। कमोबेश यह स्थिति आज पूरे देश की है।
सवाल यह नहीं है कि कितनी लेनदारी है या कितनी देनदारी। सवाल यह भी नहीं है कि लेनदारों का तकादा मौत का कारण बना। हो सकता है लेनदार भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहा हो। प्रश्न यह है कि आत्महत्या जिसे किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता, ऐसी मानसिकता क्यों बनती जा रही है। दरअसल कोरोना के कारण जिस तरह से समाज, परिवार और एक-दूसरे से कटाव हुआ है उसके कारण व्यक्ति अपनी समस्याओं को दूसरे से साझा नहीं कर पा रहा। ऐसे में अति संवेदनशील लोग तनाव व संत्रास के कारण आत्महत्या जैसा कदम उठाने लगे हैं। उसकी मानसिकता दबाव सहन नहीं कर पाती और कुंठा व निराशा में ऐसे कदम उठा लेते हैं जो विचारणीय है। यह समाज और समाज विज्ञानियों के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
कोरोना ने सोशल डिस्टेंस की जो हालात बना दी है उसमें हमारे सामने एक विकल्प अवश्य है कि अन्य साधनों मोबाइल फोन, सोशल मीडिया आदि से एक-दूसरे से संवाद कायम रखा जाए। आपसी बातचीत से दिल का बोझ हल्का हो जाता है और सांत्वना या अन्य तरीके से बातचीत से व्यक्ति का हौसला बढ़ता है। ऐसे में बुरे वक्त को वह निकाल लेता है और आत्महत्या जैसा निर्णय पर रोक लग जाती है। कोरोना के इस माहौल में संवाद के अन्य साधनों को अपनाना होगा ताकि एक-दूसरे की भावनाओं को साझा कर सके। सरकार, मीडिया, समाज विज्ञानियों, गैर सरकारी संगठनों को इसके लिए मुहिम चलानी होगी ताकि इस तरह की घटनाएं न हो।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved