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    अस्सी की दहाई में प्रेस कॉम्प्लेक्स में चाय पान की गुमटियों पे रहती थी रौनक़

  • July 30, 2022

    मेरा खय़ाल हे भायान के भोपाल का एमपी नगर जोन वन वाला पिरेस काम्पलेक्स मुल्क का वाहिद ऐसा काम्पलेक्स हेगा जहां सारे छोटे बड़े रोजऩामचों (अख़बारों) के दफ्तर हैं। बमुश्किल आधा पोन किलोमीटर के दायरे में झां पे अखबारों के दफ़्तर बिखरे पड़े हैं। इस बेशकीमती इलाके में पिरेस काम्पलेक्स बनाने का आइडिया अस्सी की दहाई में सीएम रहे और मुल्क की सियासत के चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुन सिंह साब का था। लिहाज़ा कोई चालीस बरस से ज़्यादा हो गए होंगे तब यहां अखबारों को कौडिय़ों के मोल ज़मीने लीज़ पे दे दीं गईं। यहां आने स पेले दैनिक भास्कर कोतवाली से, नवभारत और क्रोनिकल जहांगीराबाद से, दैनिक जागरण चौकी इमामबाड़ा से, नदीम इब्राहिमपुरा से, स्वदेश लालवानी प्रेस रोड स शाया हुआ करते थे। देशबंधु भी पुराने शहर से निकलता था। इनके अलावा यहां कई साप्ताहिक अखबारों को भी प्लाट मिल गए। सन 1986 तलक ये सारे अखबार यहां शिफ्ट हो गए थे या शिफ्ट होने की तैयारी में थे। तब ज़्यादातर अखबार ब्लैक एंड वाइट या भोत हुआ तो थ्री कलर ऑफसेट मशीन पे छपते थे। अखबार का साइज भी आज की तरा स्मार्ट न होके 8 कालम का जपाट हुआ करता था। बाकी अब तो अखबारों के कने प्रिंटिंग का पूरा का पूरा पिलांट ही मौजूद हे। बाक़ी यहां अख़बार आये तो ज़ोन वन सहाफियों (पत्रकारों) का मरकज़ ही बन गया। उस वखत भास्कर की इमारत बी दो मंजि़ला थी। इसके शुमाली दरवाज़े से अख़बार मालिक से लेके पत्रकारों की इक्का दुक्का दो पहिया गाडिय़ां और सायकिलें दाखिल होतीं। आजकल भास्कर ने बड़े वालों के लिए अलग तो बाकी स्टाफ के लिए अलग एंट्री कर दी है। तब न जागरण के पास वाला पुरज़ोर हाउस बना था और न भास्कर के सामने वाली बिल्डिंग ही बनी थी।



    हालात ये थे के चार पहिया गाड़ी से शायद ही कोई पत्रकार दफ्तर आता हो। अलबत्ता भास्कर के संपादक महेश श्रीवास्तव साब और दैनिक नईदुनिया के संपादक मदन मोहन जोशी साब ज़रूर अपनी फिएट से आते थे। आज तो ज़्यादातर अखबारों में केंटीन हैं या वहां आफिस की तरफ से चाय पत्रकारों की डेस्क पेई पोंचा दी जाती है। 1986 से 98 तलक पिरेस काम्प्लेक्स में एक पठान साब और दूसरे साधू की चाय पान, नाश्ते की गुमटियां थीं। तब विशाल मेगामार्ट की इत्ती बड़ी इमारत की जगा नवजीवन का छोटा सा दफ्तर था। यहां साधू की चाय नाश्ते और सिगरेट की गुमटी हुआ करती थी। यहीं नज़दीक ही एक अम्मां और उनके लिप्पाख (बहुत दुबले) शौहर पान की गुमटी लगाते थे। साधू के लड़के आज भी चाय नाश्ते का ठेला लगाते हैं। बाकी वो अम्मा और उनके शौहर कहां गए किसी को खबर नहीं। उस दौर में भास्कर के सामने पठान साब पहले सिर्फ पान, सिगरेट बेचते थे। बाद में उन्ने चाय नाश्ता भी कुछ अरसे के लिए शुरू किया था। पठान का कुछ बरस पेले इंतकाल हो गया। पठान बड़ा दिलचस्प आदमी था। उसके कने पूरे काम्पलेक्स की रमूज रेती। 1988 में शास्त्रीजी पत्रकार की बिल्डिंग में एक कायदे का रेस्टोरेंट खुला था, जो बाद में बंद हो गया। शायद इसी बिल्डिंग के सामने शास्त्रीजी की हत्या के बाद वो रेस्टोरेंट बंद हो गया था। इन चाय पान की गुमटियों के पीछे पटीएनुमा पत्थरों पे पत्रकार बैठ जाते। देर रात तक यहां रौनक बनी रहती। तब पचास पैसे की चालू चाय और कागज़ में एक रुपये में उम्दा पोहे मिल जाते थे। सर्द रातों में पठान की गुमटी के पीछे गत्तों और कार्टन के फट्टों के अलावा जलाए जाते। माहौल में सिगरेट का धुआं और पान मसालों और किमाम की खुश्बू घुली रहती। सर्दियों में उबले अंडों के एक दो ठेले लग जाते। उस दौर के सहाफियों में यहां चंद्रभान चौरसिया, सर्वदमन पाठक, सोमदत्त शास्त्री, जगत पाठक, दिनेश जोशी, विश्वकर्मा मास्सासब,एए खान, भूपेंद्र निगम, अलीम बज़मी, भारत सक्सेना, राजेश चंचल, राघवेंद्र सिंह, राजेश चतुर्वेदी, ऋषि पांडे, राजेन्द्र धनोतिया, प्रदीप गुप्ता पल्ली, संजीव गुप्ता, आरसी साहू, राममोहन चौकसे, प्रकाश भटनागर, रविन्द्र जैन, प्रशांत कुमार, आरिफ मिजऱ्ा, चंदा बारगल, केडी शर्मा, विवेक सावरिकर सहित भोत सारे डेस्क वाले सहाफी आया करते थे। अलग अलग अखबारों के इन बंदों के आपसी राब्ते भोत उम्दा हुआ करते। बाकी वो दौर अब कहां। अब तो सब रॉकेट हुए जा रय हेंगें। हर कोई भगता फिर रिया हें साब। हाल ये हेगा के गाडिय़ों में बैठे बैठे ही दुआ सलामी हो जाती हेगी। इनमे से भोत सारे सहाफी (पत्रकार) तो अल्ला को प्यारे हो चुके हें। उस दौर की बेलौस मुहब्बत की अब यादें ही बची हैं।

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