शाहिद मिर्जा का नाम तसुव्वुर में आते ही ज़ेहन में जैसे उनकी मस्तमौला हस्ती और फकीराना तबियत की तस्वीर बनने लगती है। आज उनकी सालगिरह है और कल यानी 28 मई को उनकी 16 वीं बरसी है। सत्तर की दहाई के आखिर में इंदौर से नईदुनिया में अपनी सहाफत (पत्रकारिता) का आगाज़ करने वाले इस शख्स ने बाद के सालों में दिल्ली में नवभारत टाइम्स और राजस्थान पत्रिका में अलवर, जोधपुर और जयपुर में अपनी क़लम के ऐसे झंडे गाड़े के आज भी उनका तोड़ नजऱ नहीं आता। इंदौर में खान नदी जो अब नाला भर रह गई है के किनारे आज़ाद नगर से नवलखा जाने वाली सड़क किनारे बसा है संवादनगर। बयालीस-तिरयालीस बरस पहले हाउसिंग बोर्ड की इस कालोनी में इंदौर के बहुतरे नामवर सहाफी यहां रहते थे। शाहिद मिजऱ्ा का घर भी यहीं था। गुजिश्ता दिनों मैं इंदौर गया तो इस सड़क से गुजऱ हुआ। गाड़ी संवादनगर के उस पहले गेट से अंदर डाल दी जिसके आखिर में मरहूम शाहिद मिजऱ्ा का घर हुआ करता था। किसी ज़माने में पत्रकारों की आमद-ओ-रफ्त से आबाद रहने वाले संवादनगर में अजीब सा सन्नाटा नजऱ आता है। मैं भोपाल से जब भी इंदौर जाता तो संवादनगर के उस घर मे किसी न किसी सहाफी, मुसन्निफ़, थिएटर आर्टिस्ट, कवि या शायर से शाहिद भाई को तबादलाये खय़ाल करते हुए पाता। उसी त्सुव्वुर-ए-खय़ाल में मुझे शाहिद भाई अपनी साइकिल पे अखबार के दफ़्तर जाते हुए नजऱ आते हैं। कालोनी के गेट पे उन्हें विष्णु चिंचालकर उर्फ गुरुजी (अब मरहूम) रोक लेते हैं। ये लीजिए वो थोड़ा आगे बढ़ते हैं कि तब नईदुनिया के फोटोग्राफर रहे मरहूम शरद पंडित से गुफ्तगू शुरु हो जाती है। संवादनगर में अब शायद कोई उतना जीवंत संवाद नहीं करता।
इन चालीस बयालीस बरसों में यहां के बहुत सारे बाशिंदे अल्ला को प्यारे हो गए। गुरुजी के बेटे और शाहिद जी के खास दोस्त दिलीप चिंचालकर भी अब नहीं हैं। ममता की मूरत उनकी वालदा जिन्हें हम सब माई कहते थे बरसों पहले चल बसीं। मशहूर कवि चंद्रकांत देवताले,विनय लाखे, प्रभु जोशी, श्रीराम ताम्रकार, शशिन्द्र जलधारी, प्रताप चांद भी अब इस दुनिया मे नहीं है। शाहिद भाई के घर के पीछे नईदुनिया वाले गुलाब जैन और उनके भाई सर्वोदय प्रेस वाले महेंद्र जैन भी रहा करते थे। ये दोनों भी अब नहीं रहे। पत्रकार सतीश जोशी साहब कहीं और रहने चले गए। अलबत्ता अशोक कुमठ साब यहीं रहते हैं। इन सब के घरों में शाहिद भाई की डायरेक्ट एंट्री थी। ताल्लुकात ऐसे थे जैसे वो उनके घर के मेंबर हों। खानपान के शौकीन शाहिद भाई यहां से कुछ न कुछ खा कर ही निकलते। ईदुल फितर के मौके पर संवादनगर वाले घर पे गज़़ब की रौनक रहती। वालिदा साहेब के हाथों से बनी सिवइँया और शीर खुरमा खाने तमाम लोग आते। मुझे याद है। ईद वाले दिन इन सब लोगों के अलावा मरहूम रामविलास शर्मा, सामने रहने वाले कोटिया दंपति (अब मरहूम) नईदुनिया के मरहूम महेश जोशी,मरहूम वसंत पोतदार, मरहूम अतुल लागू, मरहूम आदिल कुरेशी, मरहूम दीपा तनवीर, भी आते। इनके अलावा पत्रकार ओम प्रकाश मेहता, प्रकाश पुरोहित, प्रकाश हिंदुस्तानी, भारत सक्सेना, अजय बोकिल, प्रतीक श्रीवास्तव, अवनींद्र जोशी, अशोक कुमठ साब सुरेश ताम्रकार,बापू परमार, राजेश ज्वेल, रंगकर्मी राजेश दुबे, सुशील जौहरी,केके अष्ठाना पृथ्वी सांखला, निर्मल शर्मा, चित्रकार ईश्वरी रावल, रफीक विसाल, तनवीर फारूकी, प्रांजल श्रोत्रिय भी आते और देर रात तक महफि़ल सजी रहती। शाहिद जी की वालिदा भी अब नहीं रहीं। उस घर को भी किसी ने खरीद लिया है। संवादनगर में वो राब्ते, वो राग बतोले, वो हंसी ठहाके गुजऱे ज़माने की बात हो गए हैं। मैं चंद मिनट संवादनगर में रुकता हूं। अपनी कार से उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। मेरे कानों में उस दौर के लोगों के गप्प-सड़ाके, हंसी ठिठोली की आवाज़ें गूंजने लगती हैं। इसी बीच महसूस होता है जैसे मेरे भाई शाहिद मिजऱ्ा सामने से तेज़ क़दमो से चलते हुए आ गए हैं…कार के गेट पे दस्तक देते हुए पूछते हैं …और कॉमरेड (मुझे वो इसी नाम से पुकारते थे) कब आये…चलो छावनी से दूध पीके आते हैं। मैं उस फ़्लैश बैक से बाहर आता हूं और खामोश संवादनगर से बाहर निकल लेता हूं। सहाफत की उस अज़ीमुश्शान हस्ती को खिराजे अक़ीदत।