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पारसी धर्म में आसमान को सौंपा जाता है शव, अब बदली परंपरा; कैसे होगी रतन टाटा की अंत्येष्टि

October 10, 2024

नई दिल्ली। टाटा सन्स के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा (Ratan Tata) का बुधवार की देर रात मुंबई में निधन हो गया। उनके अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही है। रतन टाटा पारसी धर्म (Zoroastrianism) से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन उनका अंतिम संस्कार (Funeral) पारसी परंपरा के अनुसार नहीं होगा। उनका अंतिम संस्कार पारसी की जगह हिंदू रीति-रिवाज (Hindu Customs) से किया जाएगा। उनका अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह गृह में किया जाएगा। इससे पहले करीब 45 मिनट तक उनके लिए प्रार्थना की जाएगी।

हालांकि, पारसी रीति-रिवाज में अंतिम संस्कार की परंपरा अलग और काफी काफी कठिन होती है। हिंदू धर्म में शव को अग्नि या जल को सौंपा जाता है, मुस्लिम और ईसाई समुदाय में शव को दफन कर दिया जाता है, लेकिन पारसी समुदाय में ऐसा नहीं होता है। पारसी लोग शव को आसमान को सौंप देते हैं, जिसे गिद्ध, चील, कौए खा जाते हैं। आखिर पारसी संप्रदाय में अंतिम संस्कार कैसे किया जाता है? मौजूदा दौर में इस संप्रदाय को अंतिम संस्कार से जुड़ी कौन सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है? रतन टाटा का अंतिम संस्कार अलग तरीके से क्यों होगा?


हिंदू धर्म में शव को अग्नि या जल को सौंपते हैं। मतलब शव को जलाया या जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कुछ जगहों पर शव को दफन करने की परंपरा भी है। वहीं, मुस्लिम व ईसाई धर्म में शव को धरती को सौंप दिया जाता है। मतलब दफन कर दिया जाता है। लेकिन, पारसी संप्रदाय में अंतिम संस्कार बिल्कुल अलग होता है। पारसी लोग अग्नि को देवता मानते हैं। इसी तरह जल और धरती को भी पवित्र मानते हैं। जबकि शव को अपवित्र माना जाता है। पारसी समुदाय का मानना है कि शव को जलाने, प्रवाहित करने या दफन करने से अग्नि, जल या धरती अपवित्र हो जाती है। ऐसा करने से ईश्वर की संरचना प्रदूषित होती है। इसलिए पारसी समुदाय में शव को आसमान को सौंप दिया जाता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर पारसी लोग कैसे शव को आसमान को सौंपते हैं? दरअसल इसके लिए टावर ऑफ साइलेंस बनाया गया है। इसे दखमा भी कहा जाता है। ये एक बड़ा सा गोलाकार कढ़ाईनुमा कूप होता है। इसमें शव को सूरज की रोशनी में पारसी लोग ले जाकर छोड़ देते हैं। जिसे बाद में गिद्ध, चील, कौए खा जाते हैं। दुनियाभर में पारसी समुदाय से जुड़े लोगों की आबादी करीब डेढ़ लाख है। इनमें से ज्यादातर मुंबई में रहते हैं। यही कारण है कि मुंबई के बाहरी इलाके में टावर ऑफ साइलेंस बनाया गया है।

दरअसल दखमा में रखे शव को ज्यादातर गिद्ध ही खाते हैं। पिछले कुछ सालों में गिद्धों की संख्या तेजी से घट गई है। अब ज्यादा गिद्ध नहीं दिखते हैं। पारसी समुदाय के लिए यही चिंता का सबब है। अब पारसी लोगों को इस पद्धति से अंतिम संस्कार करने में दिक्कत आ रही है। क्योंकि, शव को खाने के लिए गिद्ध नहीं पहुंचते तो यह सड़ जाता है। इसके चलते दूर-दूर तक बदबू फैल जाती है और बीमारी फैलने का भी डर होता है।

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