नई दिल्ली। महाराष्ट्र(Maharashtra) की राजनीति में उद्धव ठाकरे का राज समाप्त हो गया है. 28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद (chief minister post) की शपद लेने वाले उद्धव ठाकरे ने 29 जून, 2022 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. इस तरह वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सिर्फ 943 ही टिक पाए. उनसे पहले सिर्फ दो ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्होंने पूरे पांच साल तक सीएम की कुर्सी संभालकर रखी.
एक रहे बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस (Devendra Fadnavis) तो दूसरे कांग्रेस नेता व पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक. 1960 में जब से महाराष्ट्र एक अलग राज्य बना, सिर्फ ये दो मुख्यमंत्री (Chief Minister) ही पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सके. इसमें वसंतराव नाइक 1963 से 1967 तक सीएम रहे. 1967 में दोबारा मुख्यमंत्री बने और अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा किया. वहीं दूसरी तरफ देवेंद्र फणडवीस की बात करें तो वे 2014 से 2019 तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे.
उद्धव सरकार गिरने की पटकथा
सीएम उद्धव ठाकरे की ही बात कर लें तो वे ठाकरे परिवार की तरफ से पहले मुख्यमंत्री थे. जैसा आगाज उन्होंने किया था, कहा जा रहा था कि वे अपना पूरा कार्यकाल समाप्त करेंगे. लेकिन सरकार बनाने के बाद से ही समय-समय पर उनकी सरकार के सामने तमाम चुनौतियां आईं. विचारधारा से समझौता करने की वजह से हिंदुत्व के मैदान में टिके रहना तो शिवसेना के लिए पहले ही मुश्किल साबित हो रहा था. इस सब के ऊपर जब महा विकास अघाडी सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे, जमीन पर स्थिति और जटिल बनती गई. पहले उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के बार विस्फोटक मिलने वाला विवाद, फिर एनसीपी नेता अनिल देशमुख पर 100 करोड़ की वसूली का आरोप. उसके बाद बड़े नेता नवाब मलिक पर मनी लॉन्ड्रिंग का केस.
विधायक बागी क्यों हुए?
इन तमाम विवादों ने धीरे-धीरे महाराष्ट्र में महा विकास अघाडी की नींव को कमजोर करने का काम किया. लेकिन ये प्रक्रिया इतनी धीमी रही कि सीएम उद्धव ठाकरे को लंबे समय तक पता नहीं चला कि उनकी सरकार पर भी खतरा मंडरा सकता है. अब इन भ्रष्टाचार के विवादों से वे आगे बढ़ते तो उनकी खुद की पार्टी ने भी उनके सामने चुनौतियों का अंबार खड़ा कर दिया. पश्चिमी महाराष्ट्र से खबर आने लगी कि शिवसेना विधायक नाराज चल रहे हैं. आरोप लगाए गए कि उन विधायकों को अपने क्षेत्रों में विकास कार्य करने के लिए फंड नहीं दिए जा रहे. विवाद इस बात पर भी रहा कि उन क्षेत्रों में गार्जियन मंत्री एनसीपी नेताओं को बनाया गया, जब की वहां से सबसे ज्यादा शिवसेना के विधायक जीते थे. इस मुद्दे ने भी शिवसेना के अंदर ही आक्रोश को हवा दी थी और बाद में कई विधायक बागी हो गए.
वैसे बागी विधायकों की नाराजगी की एक वजह ये भी मानी जा रहा है कि सरकार में एनसीपी को ज्यादा बड़े मंत्रालय दे दिए गए. फिर चाहे वो वित्त मंत्रालय रहा हो या फिर सिचाई मंत्रालय. ऐसे में टकराव की स्थिति लगातार और कई बार पैदा होती रही. इसके अलावा कुछ मौकों पर बागियों को ऐसा भी प्रतीत हुआ कि एनसीपी, शिवसेना पर हावी होने की कोशिश कर रही है. अब अगर एनसीपी जमीन पर ज्यादा सक्रिय दिख रही थी, तो इसके भी अपने कारण माने जा रहे हैं. सरकार बनने से पहले एनसीपी को उस समय बड़ा झटका लगा था जब अजित पवार ने बीजेपी से हाथ मिला लिया और अगले दिन डिप्टी सीएम के रूप में शपथ भी ले ली. वो सरकार तो नहीं चल पाई, लेकिन एनसीपी को एक संदेश स्पष्ट मिल गया था. उन्हें अपने तमाम विधायकों, कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की जरूरत थी. इसी वजह से जमीन पर संगठन को मजबूत करने पर पूरा जोर दिया गया.
जो उद्धव के साथ हुआ, दूसरों ने भी झेला
अब इन कारणों ने एक तरफ शिवसेना के अंदर ही एक नफरत की दीवार खड़ी कर दी तो वहीं दूसरी तरफ ठाकरे परिवार के प्रति भी उदासीनता का माहौल बना दिया. इसी वजह से जब ये विधायक एकनाथ शिंदे के साथ चल दिए, उद्धव ठाकरे के तमाम प्रयासों के बावजूद भी किसी का दिल नहीं पसीजा और सभी ने एक सुर में वर्तमान सरकार को गिराने पर जोर दिया.
वैसे जिस अंदाज में उद्धव ठाकरे ने अपनी सीएम कुर्सी गंवाई है, पिछले कुछ सालों में ऐसा कई राज्यों में देखा गया है जहां पर स्थिति को समझते हुए कई मुख्यमंत्रियों ने फ्लोर टेस्ट का सामना करने से पहले ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में दो साल पहले बड़ा सियासी ड्रामा देखने को मिला था जब कमलनाथ की सरकार गिरी थी और एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान सीएम कुर्सी पर विराजमान हो गए. अब तब कमलनाथ की सरकार गिराने की पटकथा ज्योतिरादित्य सिंधिया ने लिखी थी जो अपने साथ कुल 22 विधायकों का समर्थन ले गए, जिस वजह से सरकार अल्पमत में आ गई और पर्याप्त नंबर नहीं होने की वजह से फ्लोर टेस्ट से पहले ही कमलनाथ ने इस्तीफा दे दिया. यहां ये जानना जरूरी हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही मध्य प्रदेश में फ्लोर टेस्ट करवाने की बात कही थी.
कर्नाटक
साल 2018 में कर्नाटक में भी राजनीतिक हलचल देखने को मिली थी. तब विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी और उनके खाते में कुल 104 विधायक थे. लेकिन क्योंकि पार्टी बहुमत से दूर रह गई, ऐसे में सरकार बनाना मुश्किल रहा. लेकिन फिर बी एस येदियुरप्पा ने 17 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. अब शपथ ली थी, तो बहुमत सिद्ध करना भी जरूरी था. ऐसे में 19 मई को फ्लोर टेस्ट रखा गया. अब क्योंकि बीजेपी के पास नंबर नहीं थे, ऐसे में येदियुरप्पा ने एक भावुक भाषण देकर फ्लोर टेस्ट से पहले ही अपना इस्तीफा दे दिया और राज्य में कांग्रेस-जेडीएस के गठबंधन की सरकार बनी.
आंध्र प्रदेश
साल 2016 में आंध्र प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद राज्य में कांग्रेस की सरकार को बचा लिया गया था. तब Nabam Tuki को मुख्यमंत्री बनाया गया था. लेकिन उस एक फैसले के बाद जब राज्यपाल ने उन्हें फ्लोर पर बहुमत साबित करने के लिए कहा, तब कुछ घंटे पहले ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
महाराष्ट्र
साल 2019 में देवेंद्र फडणवीस के साथ भी कुछ ऐसा ही देखने को मिल गया था. वे तो सिर्फ कुछ ही घंटे मुख्यमंत्री रह पाए थे और उन्हें अपना इस्तीफा देना पड़ गया था. दरअसल तब महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में बीजेपी-शिवसेना के गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था. लेकिन चुनाव के बाद सीएम कुर्सी को लेकर तकरार बढ़ी और शिवसेना ने एनसीपी-कांग्रेस से हाथ मिला लिया. उस समय ऐन वक्त पर सियासी समीकरण को बदलते हुए बीजेपी ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने फडणवीस से हाथ मिला लिए और देखते ही देखते सुबह उन्होंने मिलकर सरकार बना ली. लेकिन बाद में अजित पवार ने निजी कारण बताते हुए अपना समर्थन वापस ले लिया और महाराष्ट्र में फडणवीस की सरकार गिर गई.
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