भोपाल। मप्र विधानसभा का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हो गया है। यह सत्र मात्र 5 दिन का होगा। अगर विधानसभा के अब तक के सत्रों का आकलन किया जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि चार साल में कोई भी सत्र पूरी अवधि तक नहीं चला। इसको लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं पर जनहित से जुड़े मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। सितंबर में आयोजित मप्र विधानसभा का मॉनसून सत्र ढाई दिन में ही खत्म हो गया। सत्र सिर्फ 5 दिन का था लेकिन वो भी पूरा नहीं चल पाया। छोटा सत्र बुलाने के कारण कांग्रेस पहले ही इसका विरोध कर रही थी। वो भी पूरा नहीं चल पाया। अब शीत सत्र भी 5 दिन का है। यह पूरा चल पाएगा कि नहीं इस पर भी असमंजश है। इसी साल लोकसभा वर्ष में 100 दिन, बड़ी विधानसभा 90 से 75 दिन और छोटी विधानसभा में सदन की कार्यवाही 60 दिन चलाने की बात कही गई थी। संसद हो या विधानसभा, जनता के मुद्दों पर चर्चा, सवाल-जवाब और फिर निर्णय पर पहुंचना ही आदर्श संसदीय व्यवस्था है, लेकिन अब स्थितियां बदलती जा रही हैं। विधानसभा सत्रों में चर्चा के नाम पर हंगामा, विरोध और फिर कार्यवाही का स्थगन। बीते कई वर्षों में यही चिंताजनक ट्रेंड मध्य प्रदेश विधानसभा में दिखाई दिया।
1460 दिन में 60 दिन भी नहीं चली विधानसभा
मप्र में 15वीं विधानसभा के चार साल पूरे हो चुके हैं। लेकिन विडंबना यह देखिए की इन 1460 दिनों में विधानसभा का सत्र 60 दिन भी नहीं चला। 19 दिसंबर से पांच दिन का शीतकालीन सत्र बुलाया गया है। यह कितने दिन चलेगा, यह तो आने वाले समय में पता लगेगा पर पिछले चार साल में कुछ सत्रों को छोड़ दिया जाएगा तो अधिकतर निर्धारित अवधि से पहले ही समाप्त हो गए। चार साल में 102 दिन बैठकें तय की गई थीं, लेकिन 59 दिन ही हुईं। यह आंकड़ा बता रहा है कि चर्चा का समय लगातार घट रहा है। लोकतंत्र के लिए इसे कतई अच्छा नहीं माना जा सकता। पंद्रहवीं विधानसभा में तीन सत्रों को छोड़कर चार साल में अन्य कोई भी सत्र (बजट, मानसून और शीतकालीन) अपनी निर्धारित अवधि पूरी नहीं कर सका। यहां तक की बजट सत्र की बैठकें भी समय से पहले ही समाप्त हो गईं। जबकि यह सबसे लंबा होने की परंपरा रही है।
सत्र चलाने में किसी की रूचि नहीं
दरअसल, पक्ष हो या विपक्ष किसी की भी रुचि अब अधिक अवधि तक सत्र चलाने में नहीं रह गई है। सरकार का जोर इस बात पर रहता है कि विधायी कार्य पूरे हो जाएं। वहीं, विपक्ष शुरुआत से ही हंगामा करना प्रारंभ कर देता है। स्थिति अब तो यह बनने लगी है कि प्रश्नकाल तक पूरा नहीं हो पाता और अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है। पिछले मानसून सत्र में यही स्थिति बनी। इससे अध्यक्ष व्यथित भी नजर आए पर सदन के सुचारू संचालन में पक्ष और विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जाहिर है दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को ही जिम्मेदार बताते हैं। नेता प्रतिपक्ष डा.गोविंद सिंह का आरोप है कि सरकार सदन में चर्चा कराने से भागती है। विपक्ष लोक महत्व के विषयों पर चर्चा करना चाहता है पर सत्ता पक्ष हंगामा करने लगता है। संसदीय कार्य मंत्री डा.नरोत्तम मिश्रा कांग्रेस कभी जनहित के मुद्दों पर चर्चा नहीं करती। हंगामा करना ही इनका मकसद रहता है। जबकि, सदन का मंच हमें जनहित पर चर्चा करने के लिए दिया है और सबकी प्रक्रिया निर्धारित है। बड़ी तैयारी के साथ विधायक विधानसभा सत्र के लिए प्रश्न लगाते हैं। एक घंटे के प्रश्नकाल में 25 प्रश्नों का चयन लाटरी के माध्यम से होता है। जिन सदस्यों के प्रश्न इसमें शामिल होते हैं वे सदन में सरकार का उत्तर चाहते हैं और पूरक प्रश्न भी करते हैं पर हंगामे के कारण प्रश्नकाल ही पूूरा नहीं हो पा रहा है। इससे विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार का हनन भी हो रहा है। अपनी बात रखने का उन्हें मौका भी कम मिल रहा है। इसे लेकर विधायक आपत्ति भी दर्ज करा चुके हैं। विधेयकों को लेकर भी स्थिति अलग नहीं है। इस दौरान अधिकतर विधेेयक हंगामे के बीच ध्वनिमत से चंद मिनटों में पारित हो जाते हैं।
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