यह तो होना ही था… अपराध का विकास… सभ्यता का विनाश… दहशत का अभिशाप और नेताओं की नाजायज पैदाइश बना उत्तरप्रदेश को कंपकंपाने वाला दरिंदा विकास यदि कानपुर पहुंच जाता… अदालतों के सामने आता तो पता नहीं कितने राजों का पर्दाफाश हो जाता… लिहाजा सडक़ पर इंसाफ जरूरी था… यह वह भी जानता था… अपनी मौत तय मानता था… इसलिए मध्यप्रदेश आकर उसने सरेंडर किया, ताकि वो मीडिया की नजरों में आ जाए… उसकी जान की हिफाजत के लिए चैनल वाले उसके पीछे गाडिय़ां दौड़ाएं… उसे हिफाजत से अदालत पहुंचाएं, जहां कानूनी दांव-पेंच उसका सहारा बन जाएं… वो अखबारों की सुर्खियों में आकर मनचाहे आरोप सत्ता और पुलिस लगाए… सांठ-गांठ के राज सबको बताए और अपनी पैदाइश का इल्जाम सरकार चलाने वालों से लेकर कानून की हिफाजत करने वाले उन लोगों पर लगाए, जिन्हें उसने घेरकर गोलियों से भूना… वो उनकी हत्या को जायज बताने में जी-जान लगाता और सत्ता से लेकर पुलिस तक का महकमा अपने आपको बचाने में समय गंवाता… एक बार फिर अपराध का दरिंदा शैतान बनकर इठलाता… इसीलिए सडक़ पर इंंसाफ तय था… उज्जैन से लेकर पुलिस का वाहन पलटना और दरिंदे का मरना एक ऐसा क्लाइमैक्स था, जिसकी फिल्म देखने वाला दर्शक अंत में तालियां बजाता है और अपने खर्च किए पैसे वसूल समझकर घर आता है… आठ दिन तक पुलिस से खेली अठखेलियों का अंत अब तक आधा दर्जन अपराधियों के खात्मे पर ठिठका हुआ है… आने वाले दिन खून की और इबारत लिखेंगे… लेकिन एक सवाल सबके जेहन का हिस्सा बनकर रहेंगे कि जब आम आदमी जान गंवाता है… इंसाफ के लिए दर-दर ठोंकरे खाता है, तब कानून इतनी सजगता क्यों नहीं दिखाता है… एक अपराधी पहले पुलिस की हिफाजत में रुतबा बढ़ाता है… फिर अदालतों की चौखट पर गवाहों और सबूतों को मिटाकर छूट जाता है…पुलिस और अदालतों की कमजोरियां उसकी ताकत बन जाती हैं…उसका खौफ बढ़ाती हैं…उसकी दहशत इस कदर बढ़ती जाती है कि आम आदमी अपनी हिफाजत के लिए पुलिस के पास नहीं, गुंडों की शरण में जाता है…उसका बढ़ता वजूद सत्ता को ललचाता है…फिर तो उसकी दाढ़ में खून लग जाता है…वो खूंखार बनकर कहर ढाता है… खाकी वर्दी को गुलाम बनाता है और नतीजा विकास दुबे के रूप में सामने आता है…वो आठ जवानों की हत्या करने से भी नहीं घबराता है, क्योंकि वह थाने में घुसकर पुलिसवाले से लेकर मंत्री की हत्या तक करने का अंजाम जानता है…दोनों हत्याओं के बाद बढ़े उसके रुतबे को वो ताकत की सीढ़ी मानता है…इसीलिए आठ जवानों की हत्या के बाद उनके शव जलाने जैसी बात जेहन में लाता है…यदि पहली हत्या के बाद उसे गोली से उड़ाया जाता…पहले पुलिसवाले की हत्या पर इतना आक्रोश जताया होता तो आठ जवानों ने जान को नहीं गंवाया होता और सभ्य समाज पर वहशी दरिंदा खौफ बनकर न छाया होता…
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