नई दिल्ली। कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव (congress president election) में मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) का पलड़ा भारी है। खड़गे चुनाव जीतते हैं, तो पूरे 51 साल बाद कोई दलित नेता (any dalit leader) पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालेगा। ऐसे में खड़गे की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी, क्योंकि गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक चुनाव में दलित मतदाता अहम भूमिका निभाते हैं। कर्नाटक में अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव (assembly elections) हैं।
गुजरात में अनुसूचित जाति और जनजाति के मतदाताओं की तादाद करीब 18 फीसदी है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में ज्यादातर दलित और आदिवासी मतदाताओं ने भाजपा पर भरोसा जताया था। ऐसे में पार्टी को उम्मीद है कि खड़गे के अध्यक्ष बनने के बाद दलित मतदाताओं का रुझान कांग्रेस की तरफ होगा। पार्टी को विधानसभा चुनाव में इसका लाभ मिलेगा।
हिमाचल में भी 27 फीसदी दलित मतदाता
हिमाचल प्रदेश में भी दलित मतदाताओं की संख्या 27 फीसदी है। किसी भी पार्टी के लिए सत्ता तक पहुंचने के लिए दलित मतदाताओं का समर्थन हासिल करना जरूरी है। शिमला और सिरमौर क्षेत्र की करीब डेढ़ दर्जन सीट पर दलित मतदाताओं की तादाद अधिक है। पिछले चुनाव में भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा सीट मिली थी। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर खड़गे प्रचार में उतरते हैं, तो दलित मतदाताओं का रुझान पार्टी की तरफ झुक सकता है।
कर्नाटक में दलित मतदाताओं की तादाद 23 फीसदी
कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर खड़गे का अहम इम्तिहान कर्नाटक में होगा। कर्नाटक में दलित मतदाताओं की तादाद 23 फीसदी है। वर्ष 2018 के चुनाव में करीब 40 प्रतिशत दलित मतदाताओं ने भाजपा का साथ दिया था। जबकि 35 फीसदी दलित कांग्रेस के समर्थन में थे। प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि अध्यक्ष बनने के बाद कर्नाटक में खड़गे का कद बढ़ जाएगा।
वर्ष 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि कांग्रेस ने खड़गे को इसलिए मुख्यमंत्री नहीं बनाया, क्योंकि वे दलित हैं। तब खड़गे ने अपनी पहचान सिर्फ दलित नेता तक सीमित किए जाने पर नाराजगी जताई थी। पर वर्ष 2023 के चुनाव में पार्टी उन्हें दलित अध्यक्ष के तौर पर पेश कर चुनावी लाभ उठाने की कोशिश करेगी।
पार्टी के कई नेता मानते हैं कि खड़गे के अध्यक्ष बनने दलित मतदाताओं पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। उनकी दलील है कि यूपीए सरकार के दौरान जब मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया था, तब यह उम्मीद लगाई थी कि दलित मतदाताओं में सकारात्मक संदेश जाएगा। दलित पार्टी के पक्ष में आएंगे। पर, ऐसा नहीं हुआ। दलित मतदाताओं के वोट करने के रुझान पर कोई असर नहीं पड़ा।
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