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    अपनी कहानी के खुद किरदार बन पाते तो अल्लू अर्जुन के पीछे दौड़ नहीं लगाते

  • December 15, 2024

    ऐसी भी क्या दीवानगी… एक कहानी और उस पर अदाकारी… वो भी हकीकत से कोसों दूर… एक अकेला इंसान जिसे हीरो कहा जाता है.. हीरो समझा जाता है… वो सैकड़ों को मार गिराता है… उसका बाल भी बांका नहीं हो पाता है… वो असंभव को संभव ही नहीं, बल्कि वक्त को अपने हाथ का खिलौना बनाकर नचाता है… और लोग उसके दीवाने होकर थियेटरों में दौड़ लगाते हैं… जान गंवाने पर आमादा हो जाते हैं… उसकी एक झलक पाने के लिए सब कुछ दांव पर लगाते हैं… यही हुआ अल्लू अर्जुन के साथ… वो पर्दे का हीरो तो था, लेकिन हकीकत का ऐसा कमजोर इंसान जो एक रात जेल में गुजार कर आता है… पर्दे पर पुलिस को खिलौना बनाकर नचाता है… लेकिन हकीकत में सिर झुकाकर थाने और थाने से जेल तक पहुंच जाता है… जमानत का आदेश मिलने के बाद भी जेल के नियमों में बंधा हीरो सुबह ही बाहर निकल पाता है… और बाहर निकलकर तोते की तरह कानून के सम्मान का राग अलापता है… क्योंकि वो भी हममें से एक है… इस देश का आम आदमी… पर्दे से बाहर निकलकर वो भी नियम कानून और संविधान से बंधा हुआ है… फर्क सिर्फ इतना है कि वो कहानी पर अदाकारी करता है और हम अपने किरदार से कहानी बनाते हैं… वो शिद्दत के साथ… लगन के साथ पूरी मेहनत के साथ अपने काम को करता है… तीन घंटे की फिल्म के लिए दो-दो साल… सात-सात सौ दिन लगा रहता है… अपना सब कुछ दांव पर लगाकर अपनी चाहत हम लोगों में ढूंढता रहता है… हम पसंद करें तो वह सफल कहलाता है… नापसंद करें तो उसका वक्त… पैसा… सम्मान… भविष्य सब कुछ दांव पर लग जाता है… जमाना उसे फ्लाप के नाम से पुकारता है… सही मायनों में देखा जाए तो उस अदाकार की सफलता फिल्म में नहीं उसके काम में होती है… यदि ऐसी ही मेहनत हम करें… उतनी तल्लीनता से अपने जीवन में एक-एक सफलता के लिए सब कुछ दांव पर लगाए तो हकीकत के हीरो कहलाएं… वो सैकड़ों दुश्मनों को मार गिराता है… हम तो केवल अपनी चाहतों को मारकर… वक्त को सम्हालकर… सही निर्णयों को साधकर… हर दिन सफलता के परिणामों का आकलन कर सकते हैं… एक दिन गलती करें तो दूसरे दिन सुधार सकते हैं… दो साल में तीन घंटे की फिल्म नहीं, बल्कि मिनटों में हर दिन की हकीकत बना सकते हैं… फिर उन पर दीवानगी लुटाने और उनकी नकली कहानी पर मोहित होकर भीड़ में जान गंवाना कौन सी समझदारी है… सही में देखा जाए तो इस अपराध का अपराधी अल्लू अर्जुन नहीं, बल्कि हम सब हैं… वो अपनी जिंदगी जी रहा था… अपनी फिल्म और कामयाबी को देखने के लिए वहां पहुंचा था… फिर उस पर लटूम जाना उसकी निजता में दखल डालना… उसकी चाहत को छीनने की कोशिश में जुट जाना और दीवानगी की हद पार कर मौत को गले लगाने में उसका क्या कसूर… हकीकत में देखा जाए तो लोगों की दीवानगी ने उसे भी अपराधी बना डाला और राजनीति के षड्यंत्रकारियों ने अपना हाथ धो डाला… थियेटर वालों ने तो पुलिस को सूचित किया था… लेकिन मुख्यमंत्री रमन्ना ने अल्लू के बढ़ते प्रभाव को घटाने और जनता की नजरों में नीचे गिराने के लिए उसे आरोपी और अपराधी बना डाला… पर जिस जनता की चाहत के चलते उस पर आरोप लगा… उसी चाहत के चलते उसे इंसाफ भी मिला… जिस परिवार ने महिला को गंवाया… उसी परिवार ने अल्लू अर्जुन को बेगुनाह बताया… अदालत के साथ ही जनता का इंसाफ भी सामने आया…

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