– योगेश कुमार गोयल
मावनता को शर्मसार कर देने वाली मानव तस्करी सभ्य समाज के माथे पर बदनुमा दाग है। भारत में मानव तस्करी को लेकर पिछले दिनों अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट ‘ट्रैफिकिंग इन पर्संस रिपोर्ट-2020’ में भारत को गत वर्ष की भांति टियर-2 श्रेणी में रखा गया। रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने 2019 में मानव तस्करी जैसी बुराई को मिटाने के लिए प्रयास तो किए लेकिन इसे रोकने से जुड़े न्यूनतम मानक हासिल नहीं किए जा सके। रिपोर्ट के अनुसार भारत आज भी वर्ल्ड ह्यूमन ट्रैफिकिंग के मानचित्र पर अहम ठिकाना बना हुआ है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि माओवादी समूहों ने हथियार और आईईडी को संभालने के लिए छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि में 12 वर्ष तक के कम उम्र बच्चों को जबरन भर्ती किया और मानव ढाल के तौर पर भी उनका इस्तेमाल किया गया। यही नहीं, माओवादी समूहों से जुड़ी रही महिलाओं और लड़कियों के साथ माओवादी शिविरों में यौन हिंसा भी की जाती थी। सरकार विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए जम्मू-कश्मीर में भी सशस्त्र समूह 14 वर्ष तक के कम उम्र के किशोरों की लगातार भर्ती और उनका इस्तेमाल करते रहे हैं।
कुछ स्वयंसेवी संगठनों के मुताबिक देश में मानव तस्करी के पीड़ितों की संख्या 80 लाख से ज्यादा हो सकती है, जिसका बड़ा हिस्सा बंधुआ मजदूरों का है। कोरोना संक्रमण काल में तो मानव तस्करी को लेकर स्थिति और बदतर हुई है। सीमा पार से भी मानव तस्करी की घटनाएं इन दिनों बढ़ी हैं, जिसे देखते हुए हाल ही में बीएसएफ द्वारा ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अलर्ट जारी किया गया है। बीएसएफ अधिकारियों का कहना है कि कोलकाता, गुवाहाटी, पूर्वोत्तर भारत के कुछ शहरों और दिल्ली तथा मुंबई जैसे शहरों में नौकरी दिलाने का लालच देकर गरीबों और जरूरतमंद लोगों को सीमा पार से लाने के लिए तस्करों ने कुछ नए तरीकों पर ध्यान केन्द्रित किया है। दरअसल कोरोना संक्रमण काल में रोजगार छिन जाने के चलते लोगों को लालच देकर सीमा पार से तस्करी के माध्यम से लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। असम, बिहार इत्यादि बाढ़ प्रभावित इलाकों में भी मानव तस्कर सक्रिय हो रहे हैं।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) समस्त भारत में मानव तस्करी पर शोध करा रहा है, जिसके तहत पिछले दिनों झारखण्ड में भी प्रभावित जिलों और गांवों में भी मानव तस्करी के खिलाफ कार्य कर रही संस्था ‘दीया सेवा संस्थान’ द्वारा अध्ययन किया गया। एनएचआरसी की पहल पर किए गए अध्ययन में कुछ मानव तस्करों की केस स्टडी करने पर देखा गया कि वे किन परिस्थितियों और सबूतों के आधार पर निचली अदालतों से बच निकलते हैं। संस्था का कहना है कि मानव तस्करी का कोई मामला दर्ज होने के बाद पीड़ित परिवार दबाव में रहता है, उनपर बार-बार केस वापस लेने का दबाव बनाया जाता है। यहां तक कि उन्हें गांव में रहना तक मुश्किल हो जाता है।
उड़ीसा हाईकोर्ट ने तो गत दिनों मानव तस्करी के आरोप में गिरफ्तार एक व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान अपने आदेश में बेहद सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि वेश्यावृति के लिए मानव तस्करी नशीले पदार्थों की तस्करी से भी अधिक जघन्य अपराध है। न्यायमूर्ति एस के पाणिगृही ने अपने आदेश में कहा कि सरकार की एक सर्वव्यापी, आचारी, नैतिक और वेश्यावृत्ति विरोधी मुद्रा है लेकिन व्यवहार में कानून और उनके अमल के बीच एक व्यापक अंतर है, जिस कारण मानव तस्करी के मामलों में सजा की दर बेहद कम होती है। अदालत ने यह टिप्पणी कोलकाता से देह व्यापार के लिए लड़कियों की तस्करी के आरोप में पकड़े गए पंचानन पाधी नामक व्यक्ति की जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान की। अदालत का कहना था कि संयुक्त राष्ट्र के पलेरमो प्रोटोकोल के मुताबिक राज्य का दायित्व है कि वह ऐसा पर्याप्त तंत्र बनाए ताकि अपराधियों पर मुकदमा चलाने के अलावा पीड़ितों को बचाया जा सके और ट्रैफिकिंग को रोका जा सके।
बहरहाल, भारत में मानव तस्करी की समस्या नासूर का रूप लेती जा रही है। करीब दो साल पहले पुणे के मदरसे रूपी यतीमखाने का एक मामला सामने आया था, जहां से 36 ऐसे बच्चों को छुड़ाया गया था, जिन्हें बिहार-झारखंड से अच्छी तालीम देने के नाम पर लाया गया था। मदरसे में न केवल उनका यौन शोषण होता बल्कि मदरसा मानव तस्करी का अड्डा भी बना था। देशभर के विभिन्न हिस्सों से मानव तस्करी के ऐसे मामले लगातार सामने आते रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक विश्वभर में दो करोड़ से भी ज्यादा लोग मानव तस्करी से पीड़ित हैं, जिनमें से करीब 68 फीसदी को जबरन मजदूरी के काम में लगाया जाता है। करीब 26 फीसदी बच्चे और 55 फीसदी महिलाएं व लड़कियां तस्करी की शिकार होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार विगत एक दशक में भारत में हुई मानव तस्करी में 76 फीसदी लड़कियां और महिलाएं हैं।
एनसीआरबी के अनुसार तस्करी के मामलों में भारत में मानव तस्करी दूसरा सबसे बड़ा अपराध है। कुछ आंकड़ों के मुताबिक पिछले करीब एक दशक में ही यह कई गुना बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। लगभग हर राज्य में मानव तस्करों का नेटवर्क फैला है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ तो मानव तस्करी के मुख्य स्रोत और गढ़ माने जाते हैं। मानव तस्करी के दर्ज होने वाले 70 फीसदी से अधिक मामले इन्हीं राज्यों के होते हैं, जहां लड़कियों को रेड लाइट एरिया के लिए भी खरीदा-बेचा जाता है।
मानव तस्करी रोकने और पीडि़तों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार एक ऐसा ठोस विधेयक लाना चाहती है, जिससे इस जाल को तोड़ा जा सके। विधेयक में पीड़ितों और उनके परिजनों को सुरक्षा देने के अलावा जानकारी होने पर भी ऐसे मामलों को छिपाने वालों पर अपराध को बढ़ावा देने के लिए कार्रवाई करने के प्रावधान हैं। हालांकि ऐसे प्रावधानों को लागू करते समय यह ध्यान रखा जाना अत्यंत आवश्यक है कि चूंकि देश में कानून बनाने और उन्हें सख्ती से लागू कराने के मामले में बड़ा अंतर देखा जाता रहा है। इसीलिए बहुत से मामलों में कड़े कानूनों के बावजूद असामाजिक तत्व बेखौफ अपना खेल खेलते हैं। अतः मानव तस्करी के मामले में कड़े कानूनी प्रावधानों की सतत निगरानी व्यवस्था के साथ-साथ ऐसा निगरानी तंत्र विकसित करने की भी दरकार है ताकि अपने रसूख के बल पर आरोपी छूट न सकें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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