– ललित गर्ग
ऑनलाइन शिक्षा वरदान नहीं, अभिशाप बनकर सामने आयी है। कोरोना महामारी के चलते बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन शिक्षा तक सिमट गई है, जिसने शिक्षा के वास्तवित उद्देश्यों को बहुत पिछे धकेल दिया। विडम्बना तो यह है कि जिस ऑनलाइन शिक्षा को एक बेहतर विकल्प के तौर पर पेश किया गया, अब उसका डरावना सच सामने आ चुका है। छोटे-छोटे बच्चों को आक्रामक तरीके से ऑनलाइन शिक्षा परोसी गयी, जिससे शिक्षा की जीवंतता एवं प्रभावकता को भारी नुकसान पहुंचा है। प्रत्यक्ष शिक्षा एक किला हुआ करता था, ऑनलाइन शिक्षा के इन प्रयासों ने इस सुदृढ़ किले को ध्वस्त कर दिया है। ऑनलाइन शिक्षा वह खूंटा साबित हुई है जिससे बंधकर छात्र कोल्हू के बैल की तरह बिना मुकाम पर पहुंचे दिन-रात चलते रहे। यह एक नशीला अहसास बना, जिसमें नफा-नुकसान का बोध नहीं रहा।
हाल ही में स्कूल ऑफ बिजनेस में सैंटर फॉर इनोवेशन एटरप्रेन्योरशिप की मदद से एक सर्वे ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति का आकलन करने के लिये किया गया था। इस सर्वे में समभागी बने लोगों में से 93 फीसदी लोगों ने यही माना है कि ऑनलाइन शिक्षा से बच्चों के सीखने और प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ा है। इससे बच्चों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ा, जिससे उनकी सुप्त शक्तियों का जागरण एवं जागृत शक्तियों का संरक्षण एवं संवर्धन अवरूद्ध हुआ है। बच्चों के समग्र विकास की संभावनाओं का प्रकटीकरण रूका है। शिक्षक एवं विद्यार्थी के बीच का प्रत्यक्ष संबंध टूटने से शिक्षा में गतिशीलता, प्रभावकता, तेजस्विता एवं उपयोगिता एवं ऊंचे उठने की प्रतियोगिता प्रभावित हुई है। लाखों छात्रों के लिए स्कूलों का बंद होना उनकी शिक्षा में अस्थाई व्यवधान बना है जिसके दूरगामी प्रभाव का आकलन धीरे-धीरे सामने आने लगा है। बच्चों का शिक्षा से मोहभंग हो गया। ये स्थितियां गंभीर एवं घातक होने के साथ चुनौतीपूर्ण बनी है। सत्य को ढका जाता है या नंगा किया जाता है पर स्वीकारा नहीं जाता। और जो सत्य के दीपक को पीछे रखते हैं वे मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं। ऑनलाइन शिक्षा के संबंध में ऐसा ही देखने को मिला है।
ऑनलाइन शिक्षा पर हुए सर्वे के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 8 फीसदी छात्र ही नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ते रहे हैं जबकि 37 फीसदी ने पढ़ाई छोड़ ही दी है। कक्षा एक से आठवीं तक के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे के मुताबिक, शहरी क्षेत्र के आंकडे़ भी कोई बहुत राहत नहीं देते। यहां भी सिर्फ 24 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर सके। 19 फीसदी छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी है। ये आंकडे चौंकाने वाले नहीं हैं, अलबत्ता तकलीफदेह एवं चिन्ताजनक हैं। 17 महीने के लम्बे लॉकडाउन के दौरान वित्तीय दबाव के चलते कई छात्रों ने प्राइवेट स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूलों का रुख कर लिया है। जो अभिभावक बेरोगार हुए हैं वे भी काफी हताश हैं क्योंकि ऑनलाइन शिक्षा उनके बच्चों के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हुई। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, रीतिका खेड़ा और अनुसंधानकर्ता विपुल पैकरा द्वारा कक्षा एक से लेकर आठवीं तक के छात्रों का 15 राज्यों में सर्वे किया। ऑनलाइन कक्षाएं तो लगी, लेकिन उन कक्षाओं से विद्यार्थी ने कितना सीखा, इसका आकलन नहीं हो पा रहा। हम उड़ान के लिए चिड़िया के पंख सोने के मण्डे हैं, पर सोचा ही नहीं हैं कि यह पर काटने के समान है।
सर्वे से यह स्पष्ट हो गया कि ऑनलाइन शिक्षा का काफी सीमित प्रभाव रहा, शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं छात्रों का विकास इससे आहत हुआ है। ऑनलाइन शिक्षा की सबसे बड़ी जरूरत स्मार्टफोन का ग्रामीण बच्चों के पास उपलब्ध न होना भी इसकी एक बड़ी बाधा रही है। बात बच्चों की ही नहीं, स्कूलों के पास भी समुचित ऑनलाइन शिक्षा के साधनों का अभाव होने की भी है। स्मार्टफोनों का इस्तेमाल ज्यादातर नौकरीपेशा एवं साधन-सम्पन्न लोग करते हैं, स्कूली बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल ऑनलाइन स्टडी मैटेरियल भेजते ही नहीं या फिर अभिभावकों को इस संबंध में पता ही नहीं। अधिकतर अभिभावक प्राइवेट स्कूलों की फीस भी देने में सक्षम नहीं हैं। स्कूल वाले ट्रांसफर सर्टिफिकेट देने से पहले बकाया धनराशि चुकाने का दबाव डाल रहे हैं। ऑनलाइन शिक्षा ने अनेक विसंगतियां एवं विषमताएं खड़ी कर दी है, शिक्षा से छात्रों की दूरियां बढ़ी हैं, असमानता हावी हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘शिक्षक पर्व’ का उद्घाटन करते हुए कहा कि शिक्षा न सिर्फ समावेशी होनी चाहिए, बल्कि समान होनी चाहिए। पर ताजा सर्वे इस लक्ष्य के विपरीत हालात दिखा रहा है, जहां गरीब-अमीर, गांव-शहर की शिक्षा में काफी असमानताएं हैं।
करीब डेढ़ साल तक देश भर में स्कूल बंद रहे। इस दौरान ऑनलाइन पढ़ाई की वैकल्पिक व्यवस्था को ढ़ोना पड़ा है, मगर इसकी जटिलताओं व सीमाओं को देखते हुए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत थी। सरकार और शिक्षा तंत्र, दोनों इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि जो बच्चे दोपहर के भोजन के आकर्षण में स्कूल आते हैं या जिनके मां-बाप बमुश्किल उनकी फीस जोड़ पाते हैं, उनके पास स्मार्टफोन, इंटरनेट, बिजली जैसी सुविधाएं कहां होंगी? ऐसे में, ऑनलाइन शिक्षा की व्यवस्था को लागू करने से पहले सरकार एवं शिक्षातंत्र को समग्र चिन्तन करना चाहिए था। जो कार्य पहले प्रारम्भ कर देते हैं और योजना पीछे बनाते या योजना की उपयोगिता एवं प्रभाव पर चिन्तन नहीं करते हैं, वे परत-दर-परत समस्याओं व कठिनाइयों से घिरे रहते हैं। उनकी मेहनत सार्थक नहीं होती। उनके संसाधन नाकाफी रहते हैं। कमजोर शरीर में जैसे बीमारियां घुस जाती हैं, वैसे ही कमजोर नियोजन और कमजोर व्यवस्था से कई-कई असाध्य रोग लग जाते हैं। इंटरनेट की पहुंच, क्नेक्टिवटी सुलभता, भौतिक तैयारी, साधनों की उपलब्धता, शिक्षकों का प्रशिक्षण और घर की परिस्थितियों समेत कई मुद्दों ने ऑनलाइन शिक्षा को प्रभावहीन बनाया है।
शिक्षा का यह प्रयोग अनेक प्रश्नों से घिरा रहा है, इसकी सफलता और गुणवत्ता असरकारी नहीं बन पायी है। अब धीरे-धीरे छात्र अपनी कक्षाओं में लौट रहे हैं या लौट आएंगे वे भी कोरोना महामारी के दौरान पढ़ाई में हुए नुकसान के प्रभाव को महसूस करेंगे। जहां तक ऑनलाइन उच्च शिक्षा का सवाल है शिक्षाविदों का मानना है कि इस तरह की शिक्षा से कालेज छात्रों को डिग्री तो मिल जाएगी लेकिन यह उन्हें नौकरी नहीं दिलवा सकती। छात्र केवल कोर्स की थ्योरी पढ़ रहे हैं, उन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं मिलता। हमारी भारतीय शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी पूरी तरह शिक्षकों पर निर्भर रहते हैं। इस समय शिक्षक और छात्रों में ऑफलाइन संवाद नहीं है, न ही शिक्षक अपने सामने विद्यार्थी को उसकी कमियों पर काम करने और उनमें सुधार करने के लिए समझा सकता है। इसलिये अभिभावक और शिक्षाविद् यह स्वीकार करते हैं कि पढ़ाई का पारम्परिक तरीका ही सही है, जिसमें बच्चों को स्कूल में जाकर पढ़ना-लिखना ही सबसे श्रेष्ठ तरीका है।
ऑनलाइन शिक्षा से संचार कौशल, आत्मविश्वास, अवलोकन कौशल, अनुशासन टीम भावना आदि कौशल विकसित नहीं हुए हैं। ऑनलाइन शिक्षा की एक विडम्बना यह भी है कि बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में लॉकडाउन के दौरान पढ़ाई के लिए कुछ किया ही नहीं जबकि पंजाब, कर्नाटक, महाराष्ट्र में कुछ प्रयास किए गए। अब जबकि स्कूलें एवं कॉलेज खोल दिए गए हैं। महज स्कूल खोल देने से नुकसान की भरपाई नहीं होगी। हमारे पूरे शिक्षा तंत्र की काबिलियत इसी से आंकी जाएगी कि सभी बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा से हुए नुकसान की भरपाई कैसे की जाये? इसके लिए शिक्षण संस्थानों के साथ सरकारों को कमर कसनी होगी। राज्य सरकारों को चाहिए कि सार्वजनिक शिक्षा के आर्थिक संसाधन उपलब्ध करावें। शिक्षण संस्थानों को भी यह दायित्व सौंपना चाहिए कि इस अवधि में जिन बच्चों ने स्कूल से अपना नाता तोड़ लिया है, उन्हें वापस जोड़ा जाए। आज देश में बेरोजगारी का जो आलम है, शिक्षित जनता का अनुपात भी संतोषजनक नहीं है, ऐसी स्थिति में अल्प-शिक्षित पीढ़ियां भविष्य में बड़ा बोझ साबित होंगी।
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved