नई दिल्ली । आजादी के 75 साल का सफर हमने तय कर लिया है। इन 75 सालों में हमने जमीं से लेकर आसमां तक, बहुत कुछ हासिल किया है। आज हम देश की आजादी का 75वीं अमृत महोत्सव मना रहे हैं।
आपको बता दें कि भारत की आजादी की लड़ाई में लाखों लोगों ने भाग लिया था, किन्तु कुछ ऐसे भी लोग थे जो एक नई प्रतीक या प्रतिमा के साथ उभरे ये कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने जीवन का त्याग किया और इन्हीं लोगों के कारण हम आज स्वतंत्र देश में रहने का आनंद ले रहे हैं। यहां तक कि इन 75 सालों के दौरान भारत एक बड़ी आर्थिक ताकत बनकर उभरा है। भारत की बढ़ती आर्थिक हैसियत का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि जिस ‘ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company)’ ने भारत को गुलाम बनाया था, आज उसी कंपनी का भारतीय बिजनेसमैन (Indian Businessman) ही मालिक बन बैठा है।
ईस्ट इंडिया कंपनी
कंपनी ने भारत में व्यापार की सम्भावनाओं को तलाश करने के लिए पहला जहाज़ी अभियान विलियम हॉकिंस के नेतृत्व में भेजा जो 1608 में सूरत पहुँचा। हॉकिंस बादशाह जहांगीर से कारख़ाने के अनुमति के लिए आगरा दरबार में मिला लेकिन कामयाब नहीं हुआ। उसके बाद कंपनी ने किंग जेम्स से आग्रह किया कि संसद सदस्य और अनुभवी राजनयिक टामस रो को भारत भेजा जाए रो 1616 में आगरा पहुँचा और अगले तीन साल वहाँ रहा। जहांगीर ने अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाई, लेकिन कुछ व्यापारिक अनुमतियाँ कंपनी को मिल गयी और इस तरह नींव पड़ी भारत की ग़ुलामी की, पहले कंपनी राज और बाद में ब्रिटिश राज की।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत समेत कई देशों में व्यापार के मार्फ़त ब्रिटिश उपनिवेश बनाने में बड़ी भूमिका निभाई खुद कंपनी के पास ढाई लाख सैनिकों की फौज भी थी, लेकिन कारोबार करने आई एक कंपनी देश की सरकार कैसे बन बैठी यह गुत्थी यहीं से खुलती है. जहां व्यापार या व्यापार से लाभ की संभावना न होती, वहां फौज उसे संभव बना देती।
जहांगीर से जो अनुमतियाँ मिलीं उनके तहत कंपनी भारत से सूत, नील, चाय इत्यादि ख़रीदती और विदेशों में उन्हें महंगे दामों में बेच ख़ूब मुनाफ़ा कमाती. व्यापार चल निकला, कंपनी बड़ी होती गई और उसके इरादे भी. अगले लगभग सौ साल में कंपनी का खूब विस्तार हुआ उसने मछलीपटनम, सूरत और कलकत्ता में कारख़ाने लगाए।
1668 में जब पुर्तगालियों ने बॉम्बे आइलैंड ब्रिटिश राजपरिवार को दहेज में दे दिया तो राजा के आदेश से वह ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज़ पर मिल गया। भारत और कंपनी के इतिहास में बड़ा मोड़ आया 1756 में जब सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने. बंगाल एक समृद्ध राज्य था. पूरे विश्व में कपड़ा और जहाज़ निर्माण का एक प्रमुख केंद्र।
बता दें कि उस वक़्त का बंगाल अभी के बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, असम, ढाका इत्यादि जगहों को मिलाकर भारत का पूर्वी प्रोविंस था. कंपनी ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में अपना विस्तार करना शुरू किया।
नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफ़र को ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने साथ मिला लिया. खुद गद्दी पर बैठने की चाहत में सेनापति ने नवाब को धोखा दिया. मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर गंगा नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान में 23 जून 1757 को कंपनी और नवाब में युद्ध हुआ. कंपनी ने सिराजुद्दौला की सेना को हरा दिया था। मीर जाफर नवाब बने. 1765 में मीर जाफर मौत के बाद कंपनी ने रियासत अपने हाथ में ली। यहीं से शुरू हुआ हुआ था भारत पर अगले सौ बरस शासन करने वाला ‘कंपनी राज.’ लेकिन दक्षिण को फतह करना अभी बाकी था।
मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने कंपनी का विरोध करते हुए कंपनी को दो युद्धों में हराया, लेकिन 1799 में श्रीरंगपट्टनम की जंग में वे मारे गए. हैदराबाद के निजाम को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया. फिर मराठाओं की हार और 1839 में रणजीत सिंह के मारे जाने के बाद हालात और बदतर हुए। फिर आयी लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति. 1848 में लागू इस नीति के अनुसार जिस शासक का कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होता था, उस रियासत को कंपनी अपने कब्जे में ले लेती. इस नीति के आधार पर सतारा, संबलपुर, उदयपुर, नागपुर और झांसी पर अंग्रेजों ने कब्जा जमाया। और देखते ही देखते ईस्ट इंडिया कंपनी का क़ब्ज़ा देश पर फैल गया जिसे 1857 के ग़दर ने ख़त्म किया।
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