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    कितनी कामयाब होगी कोरोना वैक्सीन

  • December 02, 2020

    – रंजना मिश्रा

    किसी भी बड़ी बीमारी की वैक्सीन के रिसर्च, ट्रायल और लोगों तक उसे पहुंचने में 10 वर्ष या उससे अधिक समय लग सकता है। पोलियो की वैक्सीन बनाने में 47 वर्ष, चिकन पॉक्स की वैक्सीन बनाने में 42 वर्ष, इबोला की वैक्सीन में 43 वर्ष, हेपेटाइटिस बी की वैक्सीन बनाने में 13 वर्ष लगे और एचआईवी एड्स का इलाज ढूंढने में 61 वर्ष लग गए किंतु इसका इलाज अभीतक संभव नहीं हुआ। पिछले 200 वर्षों में केवल स्मालपॉक्स को ही जड़ से मिटाया जा सका है। इसके अलावा इंसानों को होने वाली किसी संक्रामक बीमारी को अभीतक जड़ से समाप्त नहीं किया जा सका। अब दुनियाभर के वैज्ञानिक कोरोना वायरस को जड़ से समाप्त करने की कोशिश में जुटे हुए हैं। कोरोना वायरस की वैक्सीन को मात्र 10 महीने में तैयार कर लिया गया है। दुनिया भर में अब कोरोना वायरस की कई वैक्सीन तैयार हो चुकी है। इन वैक्सीनों को बनाने वाली कंपनियां अपनी-अपनी वैक्सीन की सफलता के अलग-अलग दावे कर रही हैं।

    फाइज़र कंपनी अपनी वैक्सीन के 95% तक प्रभावशाली होने का दावा कर रही है। वहीं मॉडर्ना 94.5%, रूस की स्पुतनिक वी 95%, ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन 90% और भारत में बन रही कोवैक्सीन के 60% तक सफल होने का अनुमान लगाया गया है। ये सभी नतीजे एक नियंत्रित वातावरण में किए गए तीसरे चरण के ट्रायल से प्राप्त हुए हैं। लेकिन जब ये सामान्य जन तक पहुंचेंगी तो इनकी सफलता दर काफी नीचे गिर सकती है। क्योंकि ट्रायल के दौरान लोगों को दो ग्रुपों में बांटा जाता है, इनमें से आधे लोगों को वैक्सीन दी जाती है और आधे लोगों को नहीं दी जाती। फाइज़र के ट्रायल में 43 हजार लोग शामिल हुए, इनमें से 170 लोगों को कोरोना का संक्रमण हुआ लेकिन इनमें से 162 लोगों को कोई वैक्सीन नहीं दी गई जबकि 8 लोगों को वैक्सीन दी गई। इसी आधार पर इस वैक्सीन के 95% तक सफल होने का दावा किया गया है किंतु ये इस वैक्सीन की एफीकेसी है इफेक्टिवनेस नहीं।

    एफीकेसी का अर्थ है कि ट्रायल के दौरान इस वैक्सीन में लोगों को 95% तक ठीक करने की क्षमता पाई गई। आमतौर पर ट्रायल में शामिल लोग स्वस्थ होते हैं, उन्हें पहले से कोई गंभीर बीमारी नहीं होती। जब यही वैक्सीन दुनिया के करोड़ों लोगों को दी जाएगी तभी इसके असली असर के बारे में पता चल पाएगा। क्योंकि द लैंसेट मेडिकल जर्नल के मुताबिक दुनिया के 95% लोगों को पहले से ही कोई न कोई बीमारी होती है। इसलिए जब यह वैक्सीन लोगों को दी जाएगी तभी सही रूप से अलग-अलग लोगों और अलग-अलग परिस्थितियों पर इनकी सफलता का प्रतिशत पता चल पाएगा।

    दुनियाभर के देशों ने इन अलग-अलग वैक्सीनों को खरीदने की तैयारी शुरू कर दी है। किंतु सभी देश अगले एक वर्ष में सिर्फ 20 से 25% लोगों को ही वैक्सीन उपलब्ध करा पाएंगे। पहले चरण में ये वैक्सीन स्वास्थ्यकर्मियों को मिलेंगी, दूसरे चरण में सोशल केयर वर्कर्स को मिलेगी, तीसरे चरण में 65 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों को मिलेगी और चौथे चरण में आम जनता को दी जाएगी। आमतौर पर वैक्सीन को 2 से 8 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर स्टोर करने की आवश्यकता होती है। अमीर देशों में इनके रखरखाव में कोई मुश्किल नहीं होगी किंतु गरीब और विकासशील देशों में जहां संसाधनों की कमी है और बिजली की समस्या है, वहां इन्हें स्टोर करके रखना मुश्किल काम हो सकता है।

    वैक्सीन संक्रमण के बाद नहीं बल्कि संक्रमण से बचाव के लिए लगाई जाती हैं, ज्यादातर वैक्सीन के निर्माण में इसी के कमजोर हो चुके वायरस का इस्तेमाल किया जाता है या फिर मरे हुए वायरस से वैक्सीन बनाई जाती है। इसलिए इस वैक्सीन के लगने के बाद लोगों में कोविड-19 के लक्षण दिखाई दे सकते हैं। जैसे-तेज बुखार आना, मांसपेशियों में दर्द होना, ध्यान एकाग्र करने में कमी आना और सिरदर्द की शिकायत। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इस वायरस को पहचान कर उससे लड़ने लगती है और यहीं से वायरस के खिलाफ इम्यूनिटी तैयार होती है। इसके बाद वैक्सीन की दूसरी डोज़ दी जाती है। इसके दुष्प्रभाव पहले से कम होते हैं।

    संक्रमण के खिलाफ अक्सर चार प्रकार की वैक्सीन काम करती है। पहली होती है जेनेटिक वैक्सीन, इसमें वायरस के जींस शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को सक्रिय करते हैं। दूसरी है वायरल वेक्टर वैक्सीन, ये वैक्सीन शरीर की कोशिकाओं यानी सेल्स में प्रवेश करती है और कोशिकाएं वायरस से लड़ने वाले प्रोटीन का निर्माण करने लगती हैं। तीसरी है प्रोटीन आधारित वैक्सीन, इनमें कोरोना वायरस के प्रोटीन होते हैं। चौथी है निष्क्रिय वैक्सीन, जो कमजोर या निष्क्रिय हो चुके वायरस से तैयार की जाती है।

    (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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