– आर.के. सिन्हा
बाबा साहेब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर किसी गंभीर और संवेदनशील मसले पर भी अपनी राय बेबाकी से ही रखते थे। उनकी मुस्लिम समाज की औरतों के हिजाब और बुर्का पहनने पर प्रगट किये गए सार्वजनिक विचार 75 साल बाद भी समीचीन और स्पष्ट हैं। इसलिए कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य के स्कूलों में हिजाब पहनने या ना पहनने को लेकर चल रही बहस पर अपना फैसला सुनाते हुए बाबा साहेब के विचारों का भी विस्तार से हवाला दिया।
बाबा साहब ने अपनी मशहूर किताब “पाकिस्तान ओर द पार्टिशन ऑफ इंडिया (1945)” में लिखा था, ‘एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटे, भाई, पिता, चाचा, ताऊ और शौहर को देख सकती है या फिर अपने वैसे रिश्तेदारों को जिन पर विश्वास किया जा सकता है। वो मस्जिद में नमाज अदा करने तक नहीं जा सकतीं। मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह और कई जगह तो उनसे भी ज्यादा सामाजिक बुराइयां हैं।” उन्होंने एक तरह से पर्दा प्रथा का खुलकर विरोध किया था।
हैरानी इसलिए हो रही है कि जो मुस्लिम नेता देश में मुसलमान और दलितों के बीच सियासी तालमेल बनाने की हर वक्त वकालत करते हैं, वे हिजाब के मसले पर बाबा साहेब के विचारों को या तो जानते नहीं या फिर जानकर भी अनजान बने हुए हैं। अब एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी को ही लें। आप गूगल करके देख सकते हैं कि वे बार-बार दलित-मुस्लिम एकता का आह्वान करते हैं। वहीं, ओवैसी हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले का पुरजोर तरीके से विरोध भी कर रहे हैं। वे इससे पहले भी तीन तलाक और अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर चुके हैं। इसके बावजूद वे संविधान और दलित-मुसलमान गठबंधन पर प्रवचन देते रहते हैं। क्या उन्हें मालूम नहीं है कि भारत के संविधान को तैयार करने में बाबा साहेब की क्या भूमिका थी? क्या उन्हें पता है कि हिजाब जैसी कुप्रथा पर बाबा साहेब की राय किस तरह की थी?
कहने का अर्थ यह है कि ओवैसी जैसे नेता जो मुसलमानों की राजनीति करते हैं, वे अपनी कौम के साथ-साथ दलितों को भी छलने का काम करते हैं। ये किसी के भी सगे नहीं हैं। ये जान लें कि आज का दलित समाज जाग चुका है। वे बाबा साहेब जैसे रोशन ख्याल नेता को अपना आदर्श मानते हैं। ओवैसी और उनके जैसे मुसलमान नेता यह भी जान लें कि हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में दलित उसी भाजपा के साथ खड़े थे जिसने उनके बारे में सही ढंग से सोचा और किया भी। आगरा को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की दलित सियासत का किला समझा जाता था। वहां की सभी सात विधानसभा सीटों पर भाजपा को विजय मिली है। इस चुनाव ने उस गलतफहमी को ध्वस्त कर दिया है कि प्रदेश में बसपा की सरकार बने या नहीं बने, लेकिन उसका वोटबैंक तो बना रहेगा।
एकबार मूल विषय पर लौटूंगा। कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले के बाद एक और गंभीर बात सुनने में आ रही है कि कुछ मुसलमान नेता अंदर ही अंदर अपनी कौम के बीच में यह आह्वान कर रहे हैं कि वे अपनी बेटियों को सरकारी स्कूलों-कॉलेजों से निकाल कर उन शिक्षण संस्थानों में दाखिला दिलवा दें, जिनका प्रबंधन मुसलमानों के हाथों में है। यह एक बेहद गंभीर और खतरनाक पहल है। इस खुराफात के पीछे जिन शातिर लोगों का दिमाग चल रहा है, जाहिर है कि उन्हें मुसलमान जल्दी ही पहचान लेंगे। इस तरह के देश विरोधी तत्वों को तुरंत बेनकाब करना होगा। क्या इन्हें मालूम नहीं कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अंतर्गत चलने वाले स्कूलों-कॉलेजों की फीस और जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी की फीस में कितना अंतर है? जामिया मिल्लिया इस्लामिया सरकारी यूनिवर्सिटी है और जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी प्राइवेट। स्पष्ट कर दें कि जामिया हमदर्द को भी सरकार की तरफ से खासी मदद मिलती है। फिर भी उसकी फीस कई गुना ज्यादा है। यह तो बस एक उदाहरण था।
खैर, कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि इस्लाम में हिजाब पहनना कतई अनिवार्य नहीं है। स्कूलों-कॉलेजों में छात्र यूनिफॉर्म पहनने से मना नहीं कर सकते हैं। देखिए भारत में कोई यह नहीं कह रहा है कि आप हिजाब मत पहनिए। लेकिन, हरेक शिक्षण संस्थान की अपनी एक मर्यादा है। उसकी एक वेशभूषा है। क्या आप उसे भी नहीं मानेंगे?
पड़ोसी देश श्रीलंका में कुछ साल पहले हुए दिल-दहलाने वाले बम धमाकों के बाद सरकार ने बुर्का पहनने पर रोक लगा दी थी। इस्लामिक देश मोरक्को बुर्का पर प्रतिबंध लगा चुका है। जाहिर है कि यदि वहां की सरकार ने बुर्के पर रोक लगाई है तो उसकी तरफ से यह कदम बहुत सोच-विचार के बाद ही लिया गया होगा। इस्लाम को बुर्का प्रथा से जोड़ना कतई सही नहीं है। फ्रांस भी बुर्का और हिजाब पर पहले ही रोक लगा चुका है।
फ्रांस में मुसलमानों की आबादी का हिस्सा 9 फीसदी है। ये अधिकतर उत्तरी अफ्रीकी मूल के हैं, जहां अल्जीरिया, मोरक्को या ट्यूनीशिया में पहले फ्रांसीसी उपनिवेश हुआ करते थे। फ्रांस में धार्मिक आधार पर कतई भेदभाव नहीं होता, यह बात आप फ्रांस की फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों के नामों को पढ़कर समझ सकते हैं। लेकिन वहां अंधकार युग के चिह्नों को स्वीकार नहीं किया जाता।
मुसलमानों को यह समझना होगा कि उन्हें अकारण दलदल में रखने की चेष्टा उन्हीं के ओवैसी जैसे कथित रहनुमा करते रहते हैं। उन्हें धार्मिक मसलों में फंसाए रखने की कोशिशें भी निरंतर चलती रहती हैं। वे जब तक अपने इन बदबूदार नेताओं से दूरी नहीं बनाएंगे इनका कल्याण नहीं होगा।
याद कीजिए कि यही मुसलमानों में ट्रिपल तलाक और हलाला की परम्परा को बनाए और बचाए रखने के लिए लड़ते रहे हैं। इनकी घनघोर महिला विरोधी सोच को जहां से भी चुनौती मिलती है, वे अनाप-शनाप बकने लगते हैं। इस सारी बहस का बेहद कड़वा सच यह भी है कि मुसलमानों का शिक्षित मध्यवर्ग भी हिजाब, बुर्का, ट्रिपल तलाक को खत्म करने को लेकर दिल से चाहते हुए भी खुलकर सामने नहीं आता। अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताने वाली तीस्ता सीतलवाड़ भी सामने नहीं आतीं हैं। वे तमाम लेखक और कैंडल मार्च निकालने वाले बुद्धिजीवी दीन-हीन मुसलमान औरतें का साथ देने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन भारत तो उस संविधान के अनुसार ही चलेगा, जिस पर उदारवादी बाबा साहेब की अमिट छाप है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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