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    जिंदा लोगों के शहर में जुबां के यह कैसे कातिल… जिन्हेें अपना समझा वही हो गए कत्ल में शामिल

  • July 08, 2020

    एक सवाल, जिसने कई सवाल पैदा कर दिए… किसी ने उसे कांग्रेसी कह डाला तो किसी ने उसके चरित्र को लांछित कर डाला… प्रश्न पूछते ही कोई कपड़े उतार बैठा तो कोई शब्दों की नंगाई पर उतारू हो गया… वो कौन है पता नहीं… पर यह सच है कि जेहन में घुटती सच्चाई अब यदि जुबां पर आएगी तो राजनीतिक रंजिश इसी तरह बवाल मचाएगी… सवाल पूछने वाले की जुबां काट दी जाएगी… प्रताडऩा की बर्बरता ऐसा तांडव मचाएगी कि कोई और जुबां कहने-बोलने की हिमाकत नहीं कर पाएगी… सत्ता की शक्ति अभिव्यक्ति के हर साहस को रौंदकर अपनी ताकत दिखाएगी… पहली आवाज ही जब लांछन और घुटन के अहसास से खामोश कर दी जाएगी तो दूसरी आवाज भी वजूद नहीं पाएगी… जिंदा लोगों के शहर में अभिव्यक्ति के कत्ल का कैसा दुस्साहस है यह… अपने सम्मान और स्वाभिमान की लुटी हुई लाज लेकर युवती कानून के दरवाजे खटखटाती रही… इंसाफ के लिए पुलिस और थानों के चक्कर लगाती रही… कानून के दरवाजे भी उन उद्दंडों की जमात में शामिल हो गए और युवती कोसवालों के कठघरे में खड़ा कर उसका मखौल उड़ाते रहे… मर्यादा की मौत का यह कैसा तांडव है… यदि सवाल पूर्वागृह से पीडि़त था… किसी प्रतिद्वंद्वी की ड्योढ़ी से आया था… किसी ने रंजिश की भावना से ग्रस्त होकर आरोप लगाया था तो उसके जवाब का यह जाहिल तरीका इस शहर में बर्दाश्त कैसे किया जा सकता है… यह भाजपा का न तो चरित्र रहा है और न ही संस्कार…विचारधाराओं और चैतन्यता की संस्कृति में पली-बढ़ी जिस पार्टी में मान-मर्यादा और मौलिकता रही हो…भाषा की शालीनता और विचारों की समग्रता रही हो वहां सत्ता का अहंकार…शब्दों का विकार और मानवता का तिरस्कार कहां से आ गया…जिस दल में हर सवाल का जवाब देने का चातुर्य हो… भाषा की मर्यादा और शैली हो, वहां खामोश करने के लिए लांछित माध्यमों का प्रयोग बताता है कि अब शक्ति के अहंकार ने भाजपा में भी आसुरी शक्तियों का प्रवेश करा दिया है…जो दल दलबदल का विरोधी रहा… जिस दल के मर्यादा पुरुष अटलविहारी वाजपेयी ने केवल एक वोट के कारण सत्ता का त्याग कर दिया, लेकिन गैरमर्यादित तरीका नहीं अपनाया…वही दल अब सत्ता के उन विरोधियों को गले लगाता है… भगवा पहनाता है… अपना बनाता है… जिन्होंने पानी पी-पीकर सावरकर को कोसा…भाजपा के उसूलों को रौंदा…भले ही यह उनकी राजनीतिक मजबूरी कही जाए…बदलती परम्परा समझी जाए…समरथ को नहीं दोष गोसाई कहकर उठती आवाजें खामोश कर दी जाएं… लेकिन कम से कम इससे नीचे तो न गिरा जाए…गूंजते सवालों का जवाब न दे सको तो कम से कम जुबान काटने का दुस्साहस तो न करो…इस देश की आजादी के अभिमान को तो न छीनो… अभिव्यक्ति को तो मत रौंदो… वरना आजादी के लिए शहीद हुए हजारों देशभक्त आंसू बहाएंगे और उनकी शहादत से आहत हुआ यह देश तुम्हें थमाकर हम भी सो नहीं पाएंगे…

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