– सियाराम पांडेय ‘शांत’
देश के विधान मंडलों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन का शताब्दी वर्ष चल रहा है। पीठासीन अधिकारियों को संसदीय संस्थाओं में स्वस्थ परंपराओं को विकसित करने और संरक्षित करने में मदद करने के लिए अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन की शुरुआत वर्ष 1921 में हुई थी। 14-15 सितंबर 2020 से 14-15 सितंबर 2021 को शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। किसी सम्मेलन के सौ साल मायने रखते हैं। हालांकि विधानमंडलों के पीठाधिकारियों के अखिल भारतीय सम्मेलन क्रमिक रूप से राज्यों में होते रहे और इसमें विधानसभा और विधान परिषद के संचालन और उसमें आने वाली दिक्कतों के समाधान का प्रयास होता रहा है। गत वर्ष देश के विधान मंडलों के पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में हुआ था जबकि इसबार संविधान दिवस के मौके पर नर्मदा के तट पर गुजरात के केवडिया में 25 और 26 नवंबर को 80 वां सम्मेलन आयोजित है। इस सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद करेंगे।
नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध के निकट दुनिया की सबसे ऊंची लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के पास इस सम्मेलन के आयोजन की अपने आप में बहुत खास अहमियत है। इस वर्ष ‘सशक्त लोकतंत्र हेतु विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का आदर्श समन्वय’ विषय पर तो चर्चा होनी ही है, इसके अतिरिक्त विधानमंडलों के पीठासीन अधिकारी लोकतंत्र के तीन स्तंभों के बीच बेहतर सहयोग और समन्वय की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालेंगे। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के मुताबिक, सम्मेलन में 26 नवम्बर को संविधान दिवस के अवसर पर सभी प्रतिनिधि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत के संविधान में दी गई प्रस्तावना को पढ़ेंगे। संकल्प पारित करने के साथ ही संविधान दिवस पर प्रदर्शनी भी आयोजित करेंगे। गत वर्ष देहरादून में आयोजित सम्मेलन में शून्यकाल और अन्य संसदीय साधनों के माध्यम से संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने, क्षमता निर्माण और संविधान की दसवीं अनुसूची तथा पीठासीन अधिकारियों की भूमिका से संबंधित मुद्दों पर चर्चा हुई थी। इस बावत तीन समितियों का गठन किया गया था। केवडिया में उन तीनों समितियों की रिपोर्टों पर भी विचार-मंथन होना है। वर्ष 2018 में जब गुजरात के गांधीनगर में यह सम्मेलन हुआ था तब लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन हुआ करती थीं और इसबार ओम बिरला उनकी जगह होंगे।
एक बात और, 26 नवंबर 1949 को भारत के संविधान को अंगीकृत किया गया था। इस लिहाज से देखा जाए तो इसबार यह देश संविधान को अंगीकृत किए जाने का 72 वां वर्ष मना रहा है। यही वजह है कि देश 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाता आ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि इस सम्मेलन के जरिए सभी पीठासीन अधिकारियों को अपने विचार और और सुझाव को देश के समक्ष रखने का उचित मंच मिलता है, वहीं इससे विधानमंडलों में अपेक्षित और जरूरी बदलाव सहजता से कर पाना मुमकिन हो पाता है। वर्ष 2019 में देहरादून के उद्घाटन समारोह में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने सदनों के सुचारू संचालन पर जोर देते हुए कहा कि सभा में वाद-विवाद, सहमति-असहमति और चर्चा हो, लेकिन इसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए। विरोध में भी गतिरोध न हो, यही विधायिका की मर्यादा है और यही लोकतंत्र की खूबसूरती भी। उन्होंने यह भी कहा था कि विधायी निकाय लोगों की आकांक्षाओं व आस्था के मंदिर हैं। ऐसे में जरूरी है कि इन संस्थाओं में जनता के विश्वास को सुदृढ़ कर इसे मजबूत बनाया जाए। लिहाजा, लोकतंत्र के इन मंदिरों को राजनीति का अखाड़ा न बनने दें। देश में मतदान का बढ़ता प्रतिशत ये बयां करता है कि लोकतंत्र के मंदिरों के प्रति जनता का विश्वास दृढ़ हुआ है। हमें इस भरोसे और लोकतंत्र की गरिमा को मजबूत बनाना होगा।
वर्ष 2022 में यह देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ भी मनाएगा लेकिन क्या विधानमंडलों की कार्यवाहियां निरापद संपन्न हो पाती हैं। पीठासीन अधिकारियों की अपेक्षाओं पर सदन खरा उतर पाते हैं, संभव है, इन सवालों के जवाब एकबार फिर तलाशे जाएं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा था कि सत्ता पक्ष और विपक्ष राम व लक्ष्मण की तरह हैं। राम नरम हैं तो लक्ष्मण आक्रामक। ऐसे में पीठ की भूमिका अभिभावक की होती है। कई अवसरों पर स्थिति कष्टप्रद होती है, जिससे असहजता पैदा होती है। विचारणीय तो यह हे कि ऐसा क्यों होता है? लोकसभा अध्यक्ष की अपेक्षाओं के अनुरूप हम संसद और विधानमंडलों की कार्यवाही को आज तक पेपरलेस क्यों नहीं बना पाए? संसदीय समितियों की मजबूती व पारदर्शिता पर अगर आज भी सवाल उठते हैं तो इसका मतलब कुछ तो व्यवस्थागत खामियां हैं ही। अपेक्षा की जानी चाहिए कि सरदार पटेल की प्रतिमा के नजदीक इस समस्या का संभवत: हल जरूर मिल जाएगा।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पहली बार राष्ट्रमंडल संसदीय संघ भारत क्षेत्र का 7वां सम्मेलन वर्ष 2019 में हुआ था। 2018 में आयोजित राष्ट्रमंडल संसदीय संघ, भारत क्षेत्र का छठां सम्मेलन पटना में हुआ था। पटना में ‘सतत विकास कार्यों की प्राप्ति में संसद और सांसदों की भूमिका’ इस विषय पर सार्थक चर्चा हुई थी। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने बहुत बेहतर ढंग से बजट के सभी प्रावधानों को रखा था। इस सम्मेलन में उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, असम, नागालैंड, मणिपुर, सिक्किम, मेघालय और गोवा के प्रतिनिधियों ने शिरकत की थी।
वर्ष 2016 में गांधीनगर में भारत के विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों और सचिवों के महाकुंभ में सहमति बनी कि बड़े राज्य विधानमंडलों में साल में कम से कम 60 दिन और छोटे राज्यों में 30 दिन का कामकाज होना ही चाहिए। इसका कुछ राज्यों में असर दिखा भी लेकिन कुछ राज्य आज भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं। गिरती साख और छवि की बहाली के लिए सम्मेलन में चिंतन जरूरी है। पीठासीन अधिकारियों के स्तर पर भी पूर्व के सम्मेलनों में यह बात स्वीकार की जाती रही है कि जनमानस में विधायिका की छवि धूमिल हो रही है। विश्वास बहाली के लिए विधायिका को कुछ ठोस पहल करनी होगी। अनुशासन स्थापित करना होगा।
लोकतंत्र के प्रति जिस तरह देश में नैराश्य भाव पनप रहा है। सदनों में आरोप प्रत्यारोप, शोरशराबा, नारेबाजी, अध्यक्ष के आदेशों की अवहेलना, बात-बात पर अवरोध के हालात बनते हैं, उसे देखते हुए प्रभावी कदम उठाये जाने की नितांत आवश्यकता है। सदस्यों का अध्यक्ष के आसन तक पहुंच जाना, बार-बार सदन की कार्रवाई स्थगित होना और कई अशोभनीय घटनाएं साल-दर-साल अखबारों की सुर्खियां बनती रही हैं। सदन बाद में आरंभ होता है, उसे चलने न देने की रणनीति पहले ही बन जाती है। यह किस तरह का लोकतांत्रिक विरोध है, इस बावत सोचने-समझने की जहमत कोई भी राजनीतिक दल उठाता नहीं है। वह विरोध करते वक्त उसके प्रभाव नहीं, केवल अपनी सुविधा का संतुलन देखते है। सदन संचालन की अपनी चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों से निपटे बगैर लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उसी में देश का कल्याण है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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