– गिरीश्वर मिश्र
इसबार ठंड और ठिठुरन का मौसम कुछ लंबा ही खिंच गया। पहाड़ों पर होती अच्छी बर्फवारी के चलते मैदानी इलाके की हवा रह-रहकर गलाने वाली होने लगी थी। बीच में कई दिन ऐसे भी आए जब सूर्यदेव भी कम दिखे और सिहरन कुछ ज्यादा बढ़ गई। पर ठिठुरन बाहर से अधिक अन्दर की भी थी। सौ साल में कभी ऐसी उठापटक न हुई थी जैसी करोना महामारी के चलते हुई, सबकुछ बेतरतीब और ठप-सा होने लगा। एक लंबा खिचा दु:स्वप्न जीवन की सच्चाई बन रहा था। सांस लेने पर बंदिश और स्पर्श करने से संक्रमण के महाभय के अज्ञात प्रसार की चिंता से सभी विचलित और सकते में आ चुके थे। सभी तरह के भेदों से ऊपर उठकर संसार के अधिकाँश देश एक-एक कर कोरोना की चपेट में आते गए। इस यातना की महागाथा में स्कूल, कालेज, आफिस, फैक्ट्री हर कहीं बाधा, व्यवधान और पीड़ा का विस्तार होता गया।
शहरों से पलायन और विस्थापन की दर्दनाक घटनाओं के विवरण देख सुनकर लोगों की सोच में भी धुंध आती-जाती रही। भारत की विशाल जनसंख्या और ख़ास तौर पर शहरों और महानगरों में फैली इस महामारी ने जीने से जुड़े हर कारोबार को हिला दिया। इस बीच यह बात साफ़ होती गई कि देर-सबेर मनुष्य को अपने किए को भोगना ही होता है उससे नहीं बचा जा सकता। कोरोना की बंदी के बीच प्रकृति को जरूर सांस लेने का कुछ मौक़ा मिला। पृथ्वी, जल और वायु सभी अपने मूल स्वभाव में आने लगे। प्रदूषण कम हुआ, धूल-धक्कड़, धुआं के कम होने और शोर थमने से पर्यावरण को भी राहत मिली। यह संतोष की बात है कि भारत की सरकार और जनता ने बड़े ही धैर्य के साथ इस भीषण चुनौती का सामना किया और अब देश में बने करोना के टीके के साथ चाक-चौबंद होकर जीने की गति अब पटरी पर पर आने लगी है।
अब तो साल बीतने को आया जब से समाज और भौतिक परिवेश पर संशय का पहरा लगा था। लाकडाउन यानी घरबंदी जैसा नियम अफनाने वाला था। मौत की दहशत तले गप-शप, घूमने-फिरने और इधर-उधर की आवाजाही पर रोक-टोक ने जीवन की धारा बदला दी। सामाजिक दूरी बनाकर और मुंह पर मास्क लगाना निजी आचरण का हिस्सा बन गया। यह सब भी तब घर से बाहर निकलना बेहद जरूरी हो नहीं तो घर में बंद रहने में ही भलाई है। पर वक्त रुकता नहीं है और एक सा भी नहीं रहता है। परिवर्तन शुरू हो चुका है और धीरे-धीरे लोग बाग़ अपने मूल स्वभाव की ओर लौटने लगे हैं। हाट बाजार में रौनक भी दिखने लगी है। साथ ही कोरोना के दूसरे दौर की आहट भी सुनाई पड़ने लगी है और करोना के कहर का खौफ फिर छाने लगा है।
इस बीच परिवर्तन को याद दिलाती अनथक चलती प्रकृति अपनी गति से चल रही है। हवाओं के मिजाज बदलने के साथ फूल-पत्ते रंग बदलने लगे हैं और गुनगुनी धूप मन को प्रफुल्लित करने वाली हो रही है। संकेत मिल रहा है कि फागुन आने वाला है और फगुआ का उत्सव भी करीब है। उत्सव की उछाह व्यष्टि मन और समष्टि के चित्त को समरस करती है। ‘ होली है भाई होली है ‘ की गूँज के साथ जाति, आयु, पद और प्रतिष्ठा की सामाजिक सीमाएं और किंचित मर्यादाओं लांघते और सबको समेटते हुए एक धरातल पर सबको लाने का यह अद्भुत समारोह होलिका दहन की रात के बाद आयोजित होता है। होलिका दहन की ज्वाला में सारे दोष, मैल स्वाहा किए जाते हैं और सुबह उसकी राख का टीका लगाते हैं और रंगों के त्यौहार का आगाज होता है। झुण्ड बनाकर गाते-बजाते लोग अपने गाँव-मोहल्ले में घर- घर घूमते हैं। झाल, मजीरा, ढोलक के साथ ‘सदा आनंद रहे एही द्वारे मोहन खेलें फाग’ और ‘शिव शंकर खेलें फाग गौरा संग लिए’ जैसे फाग गाये जाते हैं। रंग, अबीर और गुलाल के साथ एक-दूसरे को रंगने, चिढ़ने-चिढ़ाने और छकाने के साथ दोपहार तक खूब हुड़दंग मचती है।
हर घर में हैसियत के अनुसार आगंतुक होरियारों की आवभगत की जाती है। गुझिया, मठरी, नमकीन, ठंडई आदि पेय से स्वागत किया जाता है। कभी-कभी भांग मिला देने पर व्यक्ति को कुछ हल्की नशे की तरंग उठती है। हास-परिहास, उमंग-उल्लास और नेह-छोह के साथ मेल-मिलाप का यह दौर बेतकल्लुफ होता है। धीरे-धीरे शहरों में समुदाय के स्तर पर होली मिलन आयोजित होने लगा है। बच्चे जरूर पिचकारी में रंग भर उल्लसित भाव से आने जाने वाले लोगों को रंग से सराबोर करते नहीं थकते। दोपहर होते-होते लोग स्नान कर स्वच्छ होते हैं और भोजन विश्राम के बाद संध्या को नए या स्वच्छ वस्त्र पहन परस्पर स्नेह मिलन होता है। साझेदारी और एक-दूसरे से सुख-दुःख बांटना ही पूरे उपक्रम का प्रयोजन होता है।
होली भावनाओं, संवेगों और रिश्तों को संजोने, सजाने और संवारने के अवसर के रूप में जीवन और साहित्य दोनों में उपस्थित रहा है। भारतीय संस्कृति के प्रतीक भावपुरुष श्रीकृष्ण और वरदायी शिव शम्भु दोनों ही होली के उल्लास, हास और विलास की कथाओं के महानायक हैं। श्रीकृष्ण और राधा माधुर्य के प्रतिमान हैं और उनके अछोर अथाह प्रेम की भावना ने लोक जीवन में स्थान बनाया है। ब्रज और बरसाने की लट्ठमार होली आज भी विश्वप्रसिद्ध है और उसे देखने कोने कोने से लोग जुटते हैं।
अनेक कवियों ने अवध के राम और नंद गाँव और बरसाने के कृष्ण कन्हैया की मधुर छवियों को केन्द्र से रख कर बड़ी मोहक रचनाएँ की हैं। श्रृंगार और प्रेम के रस में पगी राग रंग की इन दुर्लभ कविताओं का आकर्षण अभी भी काव्य-रसिकों की प्रिय पसंद बना हुआ है। कृष्ण और गोपियों के प्रसंग तो विशेष रूप से स्मरण किए जाते हैं जिनमें कृष्ण को मन भर खूब छकाया जाता है और फिर आमंत्रित भी किया जाता हैः नैन नचाइ कही मुसकाइ लला फिर आइयो खेलन होरी !
भारतीय जीवन समाज और परिवेश के बीच पलता-बढ़ता है। यहां मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के सहचर हैं न कि प्रतिद्वन्दी इसलिए यहां का आदमी सालभर रंग बदलती प्रकृति के साथ संचाद भी करता चलता है। साथ ही हर उत्सव व्यक्ति को उसकी निजता की खोल (आवरण) से बाहर निकलने का अवसर उपस्थित करता है। शायद व्यक्ति के अहंकार के विसर्जन के उपाय के रूप में भी उत्सवों को सामाजिक रूप दिया गया इसलिए यहां के परम्परागत पर्व और त्योहार जहां एक ओर ऋतुओं के साथ सामंजस्य बैठाते हैं तो दूसरी ओर लोक-जीवन को भी कई तरह से समृद्ध करते चलते हैं। होली भी आम और खास सबमें उन्मुक्त भाव से सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाला पर्व है। आज जब अहंकार, घृणा और द्वेष फन काढ़कर सामाजिक समरसता और शान्ति को चुनौती दे रहे हैं तो होली का पर्व उनसे उबरने का निमंत्रण दे रहा है क्योंकि जीवन की संभावना कटुता और तिक्तता में नहीं सरसता और सहकार में है।
होली वस्तुत: रस में भींगने-भिगाने का एक महा उत्सव है जिसमें बड़े-छोटे, ऊँच-नीच, बाल-वृद्ध आदि का भेद भुलाकर लोग एक-दूसरे को गुदगुदाने, हंसने- हंसाने और रंगों से सराबोर करने की छूट ले लेते हैं। होली का त्योहार पूरी तरह से एक लोकतांत्रिक भाव-संवाद का अवसर देता है जिसमें जाति और वर्ग की सामाजिक सीमाएँ टूटती हैं। इस अवसर पर झिझक छोड़ लोगों के मन की गांठें भी खुलती हैं, दरारें पटती हैं और भाईचारे के रिश्ते प्रगाढ होते हैं। इन सबमें एक तरह की ‘सोशल इंजीनियरिग’ की देसी युक्ति काम करती है।
होली की बात अधूरी रहेगी यदि इस अवसर के व्यंजनों की बात न हो। भारतीय त्योहार खास किस्म के व्यंजनों के साथ भी जुड़े होते हैं। होली के अवसर पर मावा और मेवा के साथ बनी मीठी गुझिया और मठरी अनिवार्य व्यंजन हुआ करते हैं। अब दही में पगा ‘दही बड़ा’ भी इसमें शामिल हो गया है। पूड़ी, मौसम में उपलब्ध शाक-सब्जी और अंचार से सज्जित प्रेम से परोसी गई थाली सभी को बड़ी प्रिय लगती है। दोपहर तक छककर होली खेलने के बाद रंग छुड़ाने की कोशिश होती है और स्नान करने के बाद भूख भी लगी रहती है जिससे लोग रुचि लेकर भोजन करते हैं। फिर विश्राम के बाद नए या साफ सुथरे वस्त्रों में लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं।
सचमुच होली एक सम्पूर्ण त्योहार है जिसमें व्यक्ति मिथ्या घेरों, घरौदों और दायरों से बाहर निकलता है और आसपास के परिवेश को जानता पहचानता है। ऐसा हो भी क्यों न! आखिर दीन दुनिया से जुड़कर ही तो जीवन सम्भव होता है। दूसरों के लिए भी जगह होनी चाहिए और उनके सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानने से ही सामाजिक प्रगति सम्भव हो सकेगी। कोरोना की छाया में होली अधिक अनुशासित होने की मांग करती है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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