भोपाल। प्रदेश में सरकार की जीरो टॉलरेंस नीति को शासकीय विभाग ही मान नहीं रहे हैं। आलम यह है कि विभाग भ्रष्टाचार में फंसे अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए लोकायुक्त की मदद नहीं कर रहे हैं। इस कारण लोकायुक्त में भ्रष्टाचार की शिकायतों का अंबार लगता जा रहा है। उधर, भ्रष्टाचारी जांच में दोषी पाए जाने के बाद भी निर्दोष बने हुए हैं। गौरतलब है कि भ्रष्टाचार के मामले में लोकायुक्त संगठन ने विभिन्न विभागों के अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करके न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने के लिए अभियोजन की स्वीकृति मांगी, पर प्रशासकीय विभाग इससे सहमत नहीं हैं। लोकायुक्त के तर्कों को विभाग कुतर्क मानकर अभियोजन स्वीकृति से इन्कार कर चुका है। अब इन मामलों का निर्णय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की समिति करेगी।
न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने नहीं दी अनुमति
प्रदेश में कई विभाग ऐसे हैं जो भ्रष्टों और रिश्वतखोरों के खिलाफ लोकायुक्त को न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दे रहे हैं। लोक निर्माण विभाग के इंदौर में पदस्थ तत्कालीन कार्यपालन यंत्री आनंद प्रकाश राणे पर आय से अधिक संपत्ति के आरोप हैं। लोकायुक्त ने 1992 से 2016 तक की वैध आय की तुलना में खर्च एक करोड़ 78 लाख 77 हजार 312 रुपए अधिक पाया। इस आधार पर राणे के विरुद्ध न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी गई, जिसे विभाग ने अस्वीकार कर दिया। विभाग ने तर्क दिया कि आय-व्यय की गणना में भाई, पिता के आय-व्यय को भी शामिल किया गया। पत्नी की आय को नहीं माना। मां से प्राप्त जेवरात को आय में शामिल करके गणना की। राणे के अभ्यावेदन पर विचार करके विभाग ने असहमति जताई। वहीं अगस्त 2018 में लोकायुक्त ने पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के बालाघाट में पदस्थ प्रभारी कार्यपालन यंत्री वीरेन्द्र सिंह वर्मा को तीन लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा।
आरोप यह था कि उमाशंकर पटले से वर्मा ने सड़क निर्माण की परफारमेंस राशि की एफडीआर मुक्त करने एवं कार्य के कमीशन के रूप में 11 लाख रुपये की रिश्वत मांगी। विभाग ने अभियोजन की स्वीकृति देने से इस आधार पर असहमति जताई कि 11 लाख रुपये की रिश्वत की मांग तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि परफार्मेंस गारंटी 12 लाख रुपये की थी। जिस व्यक्ति को रिश्वत दिया जाना बताया गया, वह न तो अनुबंधकर्ता था, न ही ठेकेदार। ऐसा ही मामला जनपद पंचायत डबरा, जिला ग्वालियर में पदस्थ उपयंत्री अतुल तिवारी के प्रकरण में सामने आया। लोकायुक्त संगठन ने ग्राम पंचायत चतुपाड़ा के सरपंच इंदर सिंह रावत से सीमेंट कांक्रीट सड़क के निर्माण कार्य के पूर्णता प्रमाण पर हस्ताक्षर करने और कमीशन के रूप में 12 हजार रुपये की रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़े जाना बताया। जबकि, न तो तिवारी और रावत की वार्ता में रिश्वत के लेन-देन की कोई बात स्पष्ट होती है और न ही रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़े जाने की। हाथ घुलाने पर घोल का रंग गुलाबी नहीं हुआ, जो नोट पर रयासन लगाने की वजह से होता है। इस आधार पर विभाग ने अभियोजन स्वीकृति देने से असहमति जता है। खाद्य नागरिक आपूर्ति विभाग के डिंडौरी में पदस्थ तत्कालीन जिला आपूर्ति अधिकारी श्यामलाल प्रजापति के विरुद्ध पचास हजार रुपये की रिश्वत के मामले में भी लोकायुक्त के तर्क को नकार दिया। कैरोसिन के मासिक आवंटन के उठाव के लिए कमल कुमार गुप्ता ने पांच लाख रुपये की रिश्वत मांगे जाने की शिकायत की थी। लोकायुक्त पुलिस ने जुलाई 2015 में छापा मारकर 50 हजार रुपये की राशि बरामद करके अभियोजन की स्वीकृति मांगी। विभाग ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि राशि मेज पर छोड़ी गई थी। जांचकर्ताओं के कथन में विरोधाभास है और शिकायतकर्ता ने जांच में सहयोग तक नहीं किया।
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