– प्रमोद भार्गव
विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आरक्षण के सिलसिले में राज्यसभा में अहम बयान दिया है। उन्होंने भाजपा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव द्वारा पूछे गए एक सवाल के जबाव में स्पष्ट किया कि ‘अनुसूचित जाति के जिन लोगों ने इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिया है, वे आरक्षण के लाभ का दावा नहीं कर सकते हैं। यही नहीं, ये लोग सरकारी नौकरियों के साथ-साथ संसद और विधानसभा के लिए आरक्षित सीटों पर भी चुनाव लड़ने के योग्य नहीं माने जाएंगे। केवल हिंदु, सिख और बौद्ध मत को मानने वाले लोग ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की पात्रता रखेंगे। इन्हीं लोगों को सरकारी नौकरियों की पात्रता रहेगी।’ उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ‘इस्लाम और ईसाई धर्म अपना चुके अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों को संसद या विधानसभा चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में भी संशोधन की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि हिंदुत्व को मानने वाले और इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुके लोगों के बीच अधिनियम में पहले से ही स्पष्ट विभाजन रेखांकित है।’
इस बयान से साफ नजर आ रहा है कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलित और बृहद हिंदू धर्म के तहत आने वाले दलितों के बीच अंतर साफ है। यदि कालांतर में कार्यपालिका और विधायिका में बिना किसी बाधा के इस बयान पर अमल होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है तो हिंदुओं में धर्म परिवर्तन लगभग रुक जाएगा और राष्ट्रवाद मजबूत होगा। क्योंकि ज्यादातर ईसाई व इस्लामिक संस्थाओं को शिक्षा और स्वास्थ्य के बहाने हिंदुत्व और भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ों में मट्ठा घोलने के लिए विदेशी धन मिलता है।
संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर राष्ट्र किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता। इस दृष्टि से संविधान में विरोधाभास भी हैं। संविधान के तीसरे अनुच्छेद, अनुसूचित जाति आदेश 1950, जिसे प्रेसिडेन्शियल ऑर्डर के नाम से भी जाना जाता है, उसके अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में अन्य धर्म समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है, जो समता और सामाजिक न्याय में भेद करती है। इसी तारतम्य में पिछले पचास सालों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान संघर्षरत रहते हुए हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते चले आ रहे हैं। इस बाबत रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट ने इस भेद को दूर करने की पैरवी की थी। लेकिन संविधान में संशोधन के बिना यह संभव नहीं था। 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि एकबार जब कोई व्यक्ति हिंदु धर्म या मत छोड़कर ईसाई या इस्लाम धर्मावलंबी बन जाता है तो हिंदु होने के चलते उसके सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से कमजोर होने की अयोग्ताएं समाप्त हो जाती हैं। लिहाजा उसे संरक्षण देना जरूरी नहीं है। इस लिहाज से उसे अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी नहीं माना जाएगा। राज्यसभा में बयान देते हुए रविशंकर प्रसाद ने भी इस तथ्य को प्रस्तुत किया है।
वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केन्द्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। दरअसल, इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है। परंतु इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केन्द्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। हालांकि अब जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और 35-ए का खात्मा हो गया है। लेकिन कश्मीरी पंडितों को अल्पसंख्यक दर्जा देने की दिशा में कोई पहल नहीं हुई है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की सरकार के दौरान जैन धर्मावलंबियों को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था, लेकिन अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से ये आज भी सर्वथा वंचित हैं। इस नाते ‘अल्पसंख्यक श्रेणी’ का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें रविशंकर प्रसाद ने राज्यसभा में स्पष्ट रूप से परिभाषित कर महत्वपूर्ण विधायी पहल की है।
2006 में केंद्र में जब संयुक्त प्रगतिशीन गठबंधन की सरकार थी, तब संविधान में 93वां संशोधन कर अनुच्छेद-15 में नया खंड-5 जोड़कर स्पष्ट किया गया था कि सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकेंगे। लेकिन ये प्रावधान अल्पसंख्यक संस्थाओं को छोड़कर सभी निजी संस्थाओं पर लागू होंगे। चाहे उन्हें सरकारी अनुदान प्राप्त होता हो। यह प्रावधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को अनुच्छेद-15 के खंड 3 व 4 के क्रम में ही किया गया था। इससे भी साफ होता है कि इन जातियों के जो लोग ईसाई या इस्लामिक संस्थाओं अर्थात अल्पसंख्यक संस्थाओं में धर्म परिवर्तित कर शिक्षा लेते हैं, उन्हें अनुदान की पात्रता नहीं होगी। साफ है, अबतक धर्म परिवर्तन कर अनुसूचित जातियों के अधिकार को छीनकर हकमारी कर रहे लोगों को अब आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
हमारा संविधान भले ही जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर वर्गभेद नहीं करता, लेकिन आज इन्हीं सनातन मूल्यों को आरक्षण का आधार बनाने के प्रयास होते रहे हैं। शायद आजादी के 70 साल बाद यह पहला अवसर है कि अनुच्छेद-15 और जन-प्रतिनिधित्व कानून को किसी विधि मंत्री ने संसद में स्पष्ट रूप से परिभाषित करने की हिम्मत जुटाते हुए, इसके प्रावधानों को धर्म और जाति के रूप में विभाजित कर रेखांकित किया है।
दरअसल स्वतंत्रता के बाद जब संविधान अस्तित्व में आया तो अनुसूचित जाति और जनजातियों के सामाजिक उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा दी गई थी। 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए ओबीसी आरक्षण का प्रावधान किया था। आरक्षण व्यवस्था के परिणामों से रूबरू होने के बावजूद पूर्व की सरकारें एवं राजनेता वोट की राजनीति के लिए संकीर्ण लक्ष्यों की पूर्ति में लगे रहे हैं। हालांकि वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण, यदि वह भारतीय नागरिक है तो उन्हें बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अब अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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