रतलाम: राजस्थान व मध्यप्रदेश में गुर्जर समाज हर साल दिवाली पर श्राद्ध मनाता आ रहा है. मध्य प्रदेश के रतलाम में भी समाज के लोग अच्छी संख्या में निवासरत है. यहां गांव व शहर में रहने वाले गुर्जर दिवाली के दिन ब्राह्मण व्यक्ति का चेहरा नहीं देखते. घरों में कैद रहकर होने वाली पूजा गुर्जर समाज के पूर्वजों की शांति के लिए होती है. दिलचस्प बात है कि समाज नवरात्रि के पहले आने वाले सोलह श्राद्ध में अपने पूर्वजों को तर्पण नहीं करता है. कहा जाता है कि प्राचीन समय में दीपावली पर गुर्जर समाज के लोग पांच दिनों तक ब्राह्मणों का चेहरा नहीं देखते थे तथा समाज पांच दिनों तक श्राद्ध मनाता था.
क्यों नहीं देखते ब्राह्मणों का चेहरा?
समाज के वरिष्ठों के अनुसार कई वर्षों पहले दुश्मन राजा ने समाज के आराध्य भगवान देवनारायण की हत्या के लिए ब्राह्मणों को भेज था. यह दिन भी दिवाली का दिन ही था. लेकिन काफी प्रयासों के बाद भी ब्राह्मण भगवान देवनारायण की हत्या नहीं कर पाए. तब नागों (सांपों) ने उनकी रक्षा की थी. देवनारायण की माता साढू को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने ब्राह्मणों को दिवाली के दिन चेहरा ना दिखाने का श्राप दिया. तब से अपने पूर्वजों की श्राद्ध पूजा के दिन गुर्जर समाज के लोग ब्राह्मण का चेहरा नहीं देखते हैं. तब से इस दिन कोई भी ब्राह्मण गुर्जर समाज के सामने नहीं आता और ना ही कोई ब्राह्मणों के सामने जाता है। इस परंपरा के चलते गांव में रहने वाले सभी ब्राह्मण अपने-अपने घरों के दरवाजे बंद कर लेते हैं.
वंश बेल की होती है विशेष पूजा
दिवाली पर गुर्जर समाज में इस दिन पूजा नदी या तालाब किनारे की जाने की परंपरा है. ग्रामीण में रहने वाला गुर्जर समाज तालाब या नदी स्त्रोतों के पास जाकर सामूहिक रूप से पूजा करता है. वहीं शहर में गुर्जर समाज के परिवार अपने घरों में कैद रहकर पूजा पाठ करते है. पूजा सुबह 4 बजे शुरू होकर 12 बजे तक चलती है. इस दौरान समाज के लोग जंगल से लाई गई 5 प्रकार की वनस्पतियों के पौधों से एक बेल तैयार करता है, जिसे वंश बेल कहा जाता है. मान्यताओं के अनुसार समाज का वंश आगे बढ़ता रहे इसलिए इसकी पूजा की जाती है. पूजा खत्म हो जाने पर समाज के बन्धु बड़ों से आशीर्वाद लेते हो और सामुहिक रूप से भोजन करते है. इस दिन सभी घरों में विशेष रूप से चवले, पुड़ी और खीर बनाई जाती है.
यह मान्यता भी है प्रचलित
गुर्जर समाज उत्तर भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण तक फैला हुआ है. भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे तो सबसे पहले उन्होंने अपने पिता महाराजा दशरथ का श्राद्ध किया था. कई लोगों ने उन्हें श्राद्ध करते हुए देखा था. इनमें पशुपालक गुर्जर समाज के लोग भी शामिल थे. तब से ही गुर्जर समाज ने दीपावली के पावन दिन को ही पूर्वजों की श्राद्ध के लिए निर्धारित किया. वहीं एक तर्क यह भी है कि समाज के लोग पशुपालन के चलते पशुओं को चराने के लिए दूर-दूर तक जाते थे, जीवनपालन के लिए ये लोग दूर दराज निकल जाते हैं इसलिए अमूमन श्राद्ध पक्ष में मौजूद नहीं रहते थे. समाज के लोग केवल दिवाली पर ही एक साथ मौजूद रहते थे. इसी कारण समाज के बड़े-बुजुर्गों ने दीवाली पर श्राद्ध मानने का फैसला किया.
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