वक्त के मरहम अभी सूखे नहीं, घाव अभी भरे नहीं और नश्तर चुभाने लगे… कोरोना काल में अचानक तालाबंदी के चलते भूख से तड़पती सांसें… अपनों से बिछड़ी आसें… सैकड़ों मीलों तक खुद को घसीटती जानें… बिलखते बच्चों की चीखती आवाजें… फटी हुई एडिय़ां… जिंदगी पर डली बेडिय़ां…क्या कुछ नहीं सहा… किसी ने कुछ नहीं कहा… कोई मदद को नहीं आया… फिर भी हमने हर दर्द को भुलाया…और आप जख्मों को कुरेदने की बहस में जुट गए… प्रधानमंत्री ने कल संसद में दिल्ली सरकार पर मजदूरों को धकेलने का आरोप लगाया…जवाब में योगी-केजरीवाल ने एक-दूसरे को गुनहगार बताया… लेकिन कोई यह समझ नहीं पाया कि सरकार के उस एक नादान फरमान ने कितनी जिंदगियों को बेबस किया था…अचानक तालाबंदी से कैसे जीवन ठहर गया था…किसी के घर में अनाज नहीं था…किसी के रहने का ठिकाना नहीं था…कोई भूख से बिलबिला रहा था…कोई दूध के लिए छटपटा रहा था…कोई खुले आसमान के नीचे जिंदगी बीता रहा था… वो मजबूर था…बेबस था…रोज कमाता था, रोज खाता था…दो रोटी की आस में अपना जहां, अपना घर-परिवार छोडक़र कहीं और गुजर कर रहा था…अकेलेपन से लड़ रहा था… अपनों की याद में तड़प रहा था और अपने उसकी याद में बिलख रहे थे…फिर केजरीवाल उन्हें घर भिजवाएं या मोदी उन्हें जो जहां है वो वहां रहने का फरमान सुनाए…वो किसी की नहीं सुन रहा था…जान हथेली पर लेकर निकल चुका था…कोई पैदल चल रहा था… कोई साइकिल ढूंढ रहा था…कोई बच्चों को कांधों पर उठाए घिसट रहा था…मीलों लंबी राहें और अपनों की कराहें…कोई पानी पिलाने वाला नहीं मिल रहा था…हर शख्स कोरोना के डर से दुबक रहा था…ताल-तलैया, कुएं, तालाबों पर पहरे लगे थे…खाने-पीने के लाले पड़े थे और वो वक्त जीवन के संघर्ष में गुजर रहा था…आज भी कोई उस वक्त को याद करता है तो सिहर उठता है और आप देश की संसद में उन जख्मों को तार-तार करना चाहते हैं…आरोप की बहस में यह भूल जाते हैं कि शब्दों का प्रहार भावनाओं का संहार कर रहा है…कराहती मानवता का नजारा पूरे देश ने देखा…जिससे जो बन पड़ा उसने किया…जो नहीं कर सका वो बेबस रहा…अब उन जख्मों को मत कुरेदिए…उंगली उठाने से पहले कई सवाल अपने आपसे पूछ लीजिए….
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